जानने वाले जानते हैं कि इन दिनों मेरा लिखना-पढ़ना लगभग बंद ही रहा। कुणाल, निशांत, प्रफुल्ल कोलख्यान, नीलकमल जैसे मित्रों को हमेशा यह शिकायत रही कि मैं क्यों ऐसा कर रहा हूँ। कुणाल ने तो यहां तक कहा कि आपने खुद को बरबाद किया है। यह शायद इसलिए था कि मेरी शुरूआती कहानियों ने काशीनाथ सिंह, संजीव, उदयप्रकाश, रविन्द्र कालिया, कृष्णमोहन आदि वरिष्ठ लोगों का ध्यान खींचा था, और मित्रों को मेरे अंदर लेखन की भारी संभावना दिखती थी। लेकिन तब यह न हो सका था। क्यों, इसका कोई एक उत्तर नहीं हो सकता। बहरहाल, बहुत समय बाद ज्ञानोदय के जून अंक में यानि कि अगले महीने ही मेरी एक कहानी आ रही है। शायद अब जाकर जड़ता टूटी है, जिसे मैं “कोमा से बाहर आना कहता हूँ। कहानी के कुछ अंश आपके लिए …।
चिन्दी-चिन्दी कथा
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि हमारे अपने घरों में कितनी घुटन थी। हमारे अनपढ़ और धर्मभीरु पिताओं के मजूरी करते घिस गए हाथ हर बार दुनिया के क्रोध मिटाने हमपर ही उठते थे – कि अभाव था वह जो शब्दों के जाले बुनता था, उनके मुंह से निकल कर हमें घेरने की हर एक कोशिश करता था, देखता था हमारे साथ को एक गहरे संशय की नजर से।
जीत का जश्न साथ मिलकर मनाया था तो हार गए हर एक क्षणों में हमने एक दूसरे के आँसू पोछे थे। यूँ कि बहुत याराना लगता था।
कैसे जिएंगे हम तुम्हारे बगैर – वह कहता।
कैसे जिएंगे हम तुम्हारे बगैर – मैं कहता।
जीना छोड़ो – वह कहता।
मरना छोड़ो – मैं कहता।
बदलेगी यह दुनिया – चलते जाते थे हम।
अपन बदलेंगे — हंसते जाते थे हम।
बदलेगी यह दुनिया – दादा सूर पतली और महीन आवाज में कहते।
कपड़े का ठेला लगाते, मजूरी करते, मुहल्ले के लड़के लड़कियों को ट्यूशन देते हमने अपनी पढ़ाई जारी रखी थी। यह अजीब ही था कि जहाँ पूरी दुनिया एक मायावी आँधी में बेतहासा भागती जा रही थी, हमने अपने लिए कुछ और ही चुना था। चुना था कि हम चुन लिए गए थे किसी के द्वारा…. कि कविताएं चलती रहीं साथ.. कि हम चलते रहे कविताओं के साथ… गुलजार, सुदर्शन फ़ाकिर, फैज़ की गज़लों के साथ बैठने-उठने की वह आदत। और फिल्में जो सच को सच की तरह कहना सिखाती थीं – और सच के साथ जीने को कहती थीं। ऐसे ही थे हम – ऐसे ही बने थे हम।
वे सच्चे और बच्चे क्षण। वह वक्त और यह प्लेटफॉर्म जहाँ हम खड़े थे एक-दुसरे के आमने-सामने।
कैसे कहें अलविदा….।
अलविदा……..???
कैसे रह पाएंगे हम तुम्हारे बगैर – उसकी सूनी आँखों में पढ़ती हैं मेरी आँखें।
कैसे जिएंगे हम तुम्हारे बगैर – अन्दर बुदबुदाता है ध्वनिहीन कोई..।
मत जाओ, हमें मिलकर ये दुनिया बदलनी है – कहते- कहते रह जाती है ज़बान।
मेरा जाना भी इस दुनिया के बदलने में शामिल है – सुनते-सुनते रह जाते हैं मेरे कान।
और हमारे बीच जंगल के किसी रात की चुप्पी।
हमारे जीवन में भी यह मोड़ आना था जो हमें इतना शान्त कर दे कि हलक से आवाज तक का निकलना मुंकिन न हो ? अचानक जैसे एक आँधी आई थी हमारे अब तक के बने सब कुछ को ध्वस्त करती। और अली ने अपनी पूरी ताकत से साथ मुझे अपनी बाहों में भींच लिया। वह हिचकियाँ लेकर रो रहा था और मैं चुप। कोई आवाज नहीं बस दूर-दूर तक उसके गले की हिचकियाँ….अवसाद….
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
kahani ka ansh padh ker kavita ka-sa anand aata hai…badhai
काव्यात्मक प्रस्तुति.
bahut sunder ansh hain…kahani ka intezaar aur badh gaya hai
badhai
विमलेश जी आपकी पहली कहानी "अधूरे अंत की शुरूआत" से ही मैं आपकी कहानियों का फैन रहा हूँ..सच कहूँ तो आपने पर कहानी में कथ्य और शिल्प के नए प्रयोग किए हैं..कहानी के रूप में हर बार एक नई ऊर्जा से लबरेज कहानियां आपकी कहानी के इंतजार के लिए बार-बार उकसाती हैं…खैर एक लंबे समय के बाद आपकी वापसी का स्वागत…अब आप कन्टिन्यू करेंगे..ऐसी आशा है…बधाई…पूरी कहानी ज्ञानोदय में पढ़कर आपको लिखता हूँ….
— विनोद कुमार, म.प्र.