समय की पीठ पर रह गए हैं महज
हमारी अच्छाईयों के निशान
आज जो दिखता
वह एक अंधी दौड़
किसे किसकी फिकर
भागते लोग बेतहासा
स्वयं में सिमटे
ऐसे सपनों की गठरी कांधे पर लटकाए
जिनका दुनिया से नहीं कोई सरोकार
सबकी अपनी छोटी-मोटी दुनिया
सबके नीजि झमेले
वह आदमी जो दुनिया को बदलने का
लगा रहा नारा
उसकी जेब में भी उसकी अपनी दुनिया
जिसे वह बार-बार सहलाता- पोसता
इतनी हिंसा
इतने युद्ध
इतनी नफरत के बीच
जहाँ कभी भी मौत की आहट का अंदेशा
ऐसे में मेरे हमदम
दुनिया सुन्दर बनी रहे
इसलिए चलता हूँ रोज एक कदम
क्योंकि मैं इस दुनिया की तरह ही
तुम्हे करता हूँ प्यार….
उम्दा कविता ,समय के धूल- धक्कड़ में धवल प्रेम का आंख मिचमिचाना शीतल फुहार जैसा है .