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Home कथा

योगिता यादव की कहानी – अश्वत्थामा पुन: पुन:

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कथा, साहित्य
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3
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अश्वत्थामा पुन: पुन:
योगिता यादव
योगिता यादव
होटल के कमरे से निकलकर मैं सीधे निचले तल पर बने जिम में चला गया। यहां लगभग एक घंटा व्यायाम करने के बाद मैं स्विमिंग पूल के पास बैठकर मोबाइल पर ताजा अपडेट्स चैक कर रहा था। लगातार ईमेल चैक करना मेरी नौकरी का हिस्सा है और सोशल साइट पर होने वाली गतिविधियों के बारे में जानकारी रखना मेरी नौकरी में मदद करता है। मैं दो दुनिया एक साथ जीता हूं। पहली वह जो मैं सचमुच जीता हूं और दूसरी वह जो मुझे लोगों को दिखाना है कि मैं जी रहा हूं। जैसे मुझे अभी दोपहर में वाटर पार्क में जाकर मस्ती करनी है और अपनी कुछ तस्वीरें अपने फेसबुक पेज पर लगानी हैं। जबकि मैं यहां एक दूसरे ही काम में आया हूं। जिसके बारे में मैं खुद को भी नहीं बता सकता। यह नौकरी के नियमों के खिलाफ है। कभी-कभी मैं खुद भी भ्रमित सा हो जाता हूं कि मैं जो जिंदगी जी रहा हूं वह सचमुच जी रहा हूं या वह भी सिर्फ अपने अफसरों को बता रहा हूं कि ‘देखिए जनाब मैं जी रहा हूं।‘
जो भी हो, मैं खुश हूं ही इस दोहरी जिंदगी से। वरना पहले तो मुझे सिर्फ अपने से वरिष्ठ अधिकारी का कंप्यूटर ठीक करने का ही काम करना पड़ता था। हालांकि कंप्यूटर खराब नहीं होता, बस कुछ तकनीकी दिक्कतें होती थीं जहां वह अभ्यस्त न होने के कारण अटक जाया करते थे। कई बार कोई गलत कमांड मार देते, जिससे कोई आइकन गायब हो जाता। और मैं उसी को ढूंढता, फिर दोबारा डेस्कटॉप पर ला देता। और वह खुश हो जाते। शुक्र है कि अब मुझे काम सौंपे जाने लगे हैं। जिसमें से कुछ बिल्कुल बकवास किस्म के होते हैं, जिनकी बाद में कोई खास जरूरत नहीं रह जाती। पर कुछ बहुत जरूरी भी, जिनसे कई दूर के काम साधे जाते हैं। जो नीति निर्माण के लिए ठोस आधार बनते हैं। खैर छोडि़ए मुझे अपने बारे में ज्यादा बात नहीं करनी चाहिए। यह ठीक नहीं होगा। इसके लिए मुझे सजा भी दी जा सकती है। पिछले कुछ सालों से मुंबई में हूं। मेरी नौकरी के लिहाज से यह अच्छी जगह है। क्या पता कल को मिजोरम, उड़ीसा या चैन्नई कहां फेंक दिया जाऊं। हो सकता है दिल्ली के किसी घटिया से ऑफिस में सिर्फ कागजी काम निपटाता रहूं। इससे बेहतर है कि मैं अपने बारे में कम से कम बातें करूं। अब तो यह मेरी प्रवृत्ति में शामिल हो चुका है। अपनी पत्नी, अपने बच्चों यहां तक कि अपनी मां को भी मैं अपने बारे में अब कुछ भी सही सही नहीं बताता।
सोशल साइट देखते हुए नजर फिर से सुहाना शर्मा पर जाकर टिक गई। इसका संदेश मैं पिछले कई दिनों से नजरंदाज कर रहा हूं। पर लगा आज चंडीगढ़ आ ही गया हूं तो क्यों न मिल लूं। लगभग तीन महीने पहले उसने मुझसे बहुत छोटी सी बातचीत की थी। बातचीत के ये तीन जोड़ी संवाद भी तीन दिन में पूरे हुए थे। एक तो मैं एक जरूरी काम में बिजी था, दूसरे जैसा कि मेरी आदत है, उसके बातचीत शुरु करने के फौरन बाद मैंने उसके बारे में जरूरी मालूमात हासिल कर ली थी। मेरे पास जो संसाधन हैं उसमें यह बहुत आसान और बहुत जल्दी हो जाने वाला काम है, पर इसकी शुरुआती जानकारी से मैं यह तो जान ही गया था कि यह मेरे लिए कोई खास अहमियत नहीं रखती। ये एक आम नौकरीपेशा कमाने, खाने और परिवार चलाने वाली महिला है। जो अपनी सही तनख्वाह या सही उम्र लोगों से छुपाकर खुद के पास कुछ गोपनीय होने का भ्रम पाले रखते हैं। दुनिया भर के ज्यादातर आम लोग ऐसे ही हैं, जिनकी नजर में आज भी पैसा सबसे गोपनीय चीज़ है और ऐसे लोग हमारे लिए कोई खास अहमियत नहीं रखते।
मैंने बातचीत शुरू करते हुए उसका हल्का सा अभिवादन किया था। वह ऑनलाइन थी और उसने झट से हैलो का जवाब, हाय, आप कैसे हैं के साथ दिया।
”माफ कीजिएगा मैं व्यस्त था। इसलिए आपकी बात का जवाब नहीं दे पाया।”
”कोई बात नहीं। मैं भी अक्सर व्यस्त रहती हूं। मैं समझ सकती हूं आपकी व्यस्तता।”
”जी मैं आज चंडीगढ़ में ही हूं।”
”ओह ये अच्छा है, मैं आपसे मिलना चाहती थी।”
”कोई खास बात?”
”नहीं ऐसा कुछ खास नहीं।”
”वैसे शायद आप जानते हों।”
”मैं आज शाम तक यहां हूं, आप चाहें तो मेरे होटल में आ सकती हैं।”
”मैं शाम पांच बजे तक ऑफिस में होती हूं, क्या आप मेरे ऑफिस आ सकते हैं?”
”नहीं यह मेरे लिए मुश्किल होगा।”
”इसी तरह होटल आना मेरे लिए मुश्किल होगा। रॉक गार्डन से लगभग आधा किलोमीटर आगे एक छोटा सा रेस्टोरेंट है। हम वहां मिलते हैं छह बजे।”
सपाट सी बातचीत के बाद वह ऑफलाइन हो गई। जब मैं अपनी नौकरी करने के लिए पूरी तरह तैयार हो गया। मुझे अभी करने और दिखाने दोनों तरह के काम करने थे।
शाम को अपने तय समय से दस मिनट पहले ही मैं रेस्टोरेंट पहुंच गया था। पर जैसा कि मेरी आदत में शामिल हो चुका है मैं रेस्टोरेंट के अंदर नहीं गया बस आसपास ही बना रहा। हर आती जाती महिला पर मेरी निगाह थी। मेरे ख्याल से वह अधेड़ उम्र की महिला उम्र में मुझसे कुछ छोटी ही होगी। बातचीत के अंदाज से बेहद साफ, स्पष्ट, लेकिन तेज तर्रार लगती थी। पैंट और ढीलेढाले टॉप में जब एक लड़की अंदर दाखिल हो रही थी तो मुझे लगा कि हो न हो यह वही है। अब यह टेबल पर बैठकर मुझे उसी साइट पर संदेश देगी, जहां उसने मुझसे मिलने की गुजारिश की थी, क्योंकि मेरा मोबाइल नंबर उसके पास नहीं है। वह बैठी और उसने अपने पर्स से मोबाइल निकाला ही था कि एक दूसरी लड़की उसके पास आ गई। गर्मजोशी से इनके मिलने के अंदाज से लगा कि दोनों बहुत अच्छी तरह एक-दूसरे को जानती हैं और यह मुलाकात पहले से तय है। हंसी-ठहाकों के साथ ही उनकी बातचीत शुरु हो गई।
ओह तो यह वह नहीं है। मैं लगभग बोर होने लगा था। छह बज चुके थे और अब मिनट वाली सुई आगे बढ़ रही थी। इतनी देर में मैंने एक सिगरेट सुलगाई और कुछ दूर यूं ही सड़क पर तफरीह करने लगा। फिर सोचा अंदर जाकर बैठना चाहिए। अब तक छह बजकर बीस मिनट हो चुके थे। हमें वक्त की पाबंदी घुट्टी की तरह पिलाई जाती है। मुझे याद है एक बार अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार करते हुए हमारा एक साथी पच्चीस सैकेंड लेट हो गया था और उसके इस पच्चीस सैकेंड की देरी की वजह से हमें क्या कुछ नहीं भुगतना पड़ा था। पर आम लोगों के लिए पच्चीस सैकेंड कोई खास अहमियत नहीं रखते, मैं जानता हूं। खुद मेरी पत्नी के लिए किसी फंक्शन में आधा, एक घंटा लेट पहुंचना बहुत सामान्य सी बात है।
एक खाली मेज और दो कुर्सिया देखकर मैं वहां बैठ गया। मैंने जेब से मोबाइल निकाला और सोचा कि उससे पूछूं, कि वह कितनी देर में आ रही है। नहीं इस तरह मेरा नंबर उसके पास चला जाएगा। यह सिम मुझे ऑफिस के काम के लिए मिली है, जिसे शाम तक मुझे समाप्त कर देना है। मैं अभी यह सब सोच ही रहा था कि सलवार कमीज पहने एक महिला ठीक मेरे सामने आ खड़ी हुई। इसके दाएं कंधे पर पर्स टंगा हुआ था और उसी हाथ से उसने सब्जी का एक छोटा सा थैला पकड़ा हुआ था।
”माफ कीजिएगा मुझे आने में थोड़ी देर हो गई। वो रास्ते में सब्जियां लेनी थी। शायद पंद्रह-बीस मिनट ज्यादा हो गए।”
”जी आप मिस सुहाना।”
”हां जी।”
”ओह कोई बात नहीं, आइए बैठिए न।”
”पर आपने मुझे पहचाना कैसे?”
”आपकी फोटो देखी है मैंने, आपके अकाउंट पर, आप बहुत ज्यादा अलग नहीं लगते हैं उससे।”
”ओह, ओके और मैंने हल्की मुस्कान के साथ अपने शक को झुठलाने की कोशिश की। वह एक बहुत साधारण महिला थी। दिन भर की थकान उसके चेहरे से झलक रही थी। बाल भी शायद उसने सुबह एक बार ही बनाए होंगे, तभी वे इस वक्त शाम को बिखरे हुए से थे। मेकअप भी लगभग फीका पड़ चुका था और लिप्स्टिक की हल्की उतरी हुई रंगत उसके होंठों पर अभी भी थी। साथ में सब्जी का थैला। इस थैले ने उसके बारे में मेरी कल्पना को बहुत बुरी तरह तोड़ा था। यह कोई खालिस गृहस्थिन थी। जिसकी याददाश्त में बहुत ज्यादा सूचनाएं नहीं थी। तभी इसके लिए मेरी तस्वीर को पहचान कर अपनी याददाश्त में सुरक्षित कर पाना ज्यादा आसान था। जबकि इसकी तस्वीर देखने के बाद भी मेरे अपने दिमाग ने उसे सुरक्षित रखना जरूरी नहीं समझा। मैं अभी तक कुछ और ही कल्पना किए बैठा था। ऐसा अभी तक कभी मेरे साथ नहीं हुआ था। आखिर लोगों को पहचानना, उनकी खोजबीन करना मेरी नौकरी का हिस्सा है। अब इसके सामने आने के बाद से मेरे दिमाग ने इस पर काम करना शुरू कर दिया था। मुझे लगा इसकी प्रोफाइल पर जो तस्वीर है, वह ज्यादा नहीं तो पांच साल पुरानी तो होगी ही। जिसमें वह एक चुस्त-दुरस्त और तेज तर्रार महिला लगती है।
”क्या लेंगी आप?”
”कुछ खास नहीं।”
”मैं मंगवाए लेती हूं, आप कॉफी पीते हैं न?”
”चीनी लेते हैं या नहीं?”
”जैसा आपको ठीक लगे।”
”आप बैठिए मैं खुद लेकर आती हूं।”
मैं उसकी एक-एक हरकत का बड़ी सूक्ष्मता से मुआयना कर रहा था। वह एक ट्रे में दो कॉफी और साथ में फ्रेंच फ्राईज भी ले आई थी।
हमने अभी बातचीत शुरू ही नहीं की थी कि रेस्टारेंट में पाश्चात्य संगीत चलने लगा। म्यूजिक कुछ लाउड था-
”क्या हमें बाहर चलकर बैठना चाहिए? मुझसे अब जरा भी तेज आवाज बर्दाश्त नहीं होती। असल में चिल्ला चिल्ला कर मेरे सुनने की शक्ति भी लगता है कुछ गड़बड़ हो गई।”
”जी जरूर, जैसा आपको ठीक लगे।”
”मैं यह ट्रे उठाती हूं, आप प्लीज थैला उठा लेंगे?” उसने ऐसे अधिकार से कहा जैसे मेरी पत्नी मुझे कहती है।
”अरे आप छोडि़ए, मैं ट्रे उठा लेता हूं।”
अब हम अंदर वाले शोर शराबे से उठकर बाहर की तरफ बगीचे की हरियाली में आ गए थे।
”हां तो कहिए आप मुझसे क्यों मिलना चाहती थी?”
”आज सुबह सब्जी के लिए प्याज काट कही थी। अचानक नज़र पड़ी कि मैं छिलके प्लेट में रख रहीं हूं और प्याज कचरे में डालती जा रहीं हूं… ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है। कोई नई बात नहीं है।
खैर मैंने यह सब बताने के लिए आपको यहां नहीं बुलाया।
मैं भूमिका नहीं बनाऊंगी। सीधे बात करते हैं। मेरे पति ने मेरी जासूसी का काम आपको सौंपा है?”
”नहीं, ऐसा कुछ नहीं। आपको गलत बताया गया है।” मैं एकदम सकपका गया, फिर कुछ सहज होने की कोशिश की?
”मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरी फेसबुक और वाट्सएप चैट आपने निकालकर उन्हें भेजी हैं।”
”ऐसा किसने कहा?”
”जी उन्होंने ही मुझे बताया।”
”ऐसा उन्होंने कहा?”
”हां, उन्होंने ही कहा। और जब से आपने उन्हें यह सब सौंपा है तब से वह हर बार, लगभग दिन में पांच-सात बार मुझे यही धमकी देते हैं, ”निकालूं तुम्हारे चिट्ठे? किस-किस के साथ क्या-क्या गुल खिलाए हैं तुमने?”
”ओह, और क्या बताया?”
”अगर यह सब आपने नहीं किया होता तो मुझे आपका नाम कैसे मालूम होता। सच नहीं है तो यह ऐसा क्यों कहेंगे? मैं तो आपको जानती ही नहीं थी कि आप कौनं? नाम से भी नहीं। उन्होंने ही मुझे यह सब बताया और यह भी कि ये सब काम आपने किया किया।”
”मैं भी आपको कहां जानता था।”
”जी बिल्कुल।”
”ये तो आप ही ने बताया कि आप निर्मल की पत्नी हैं।”
”हां सही है।”
”निर्मल मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं। हम पिछले बीस सालों से एक-दूसरे को जानते हैं। हम दोनों एक-दूसरे को मदद करते हैं। वे एक बहुत अच्छे इंसान हैं।”
”उन्होंने क्या कहकर ये सब जानकारियां निकलवाई?”
”मुझे याद नहीं।”
”शायद दो-चार बार किया होगा।”
”वैसे मुझे नहीं लगता कि आपके बारे में कोई डिटेल्स लिए, उन्होंने।”- ये मैं कैसी अजीब सी बातें कर रहा हूं। अभी मैंने कहा कि मैंने दो-चार बार ऐसा किया है और फिर मैं कह रहा हूं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्या मैं भूलता जा रहा हूं कि मुझे क्या कहना चाहिए! उसकी आवाज से मैं फिर खुद से बाहर आया-
”नहीं होता तो क्या कहते?”
”मुझे नहीं पता, मैं बस इतना जानता हूं कि वो एक बहुत अच्छे इंसान हैं।”
”शायद उन्हें लगा हो कि मैं आपसे कभी मिल नहीं पाऊंगी। और हां, उन्हें यह भी लगा कि आप पूरा काम ठीक से नहीं कर पाए हैं। इसलिए बचे हुए काम के लिए अब उन्होंने दिल्ली और मुंबई के दोस्तों से मदद ली है। वो देशभर से मेरे आशिक ढूंढ निकालेंगे”, कहते हुए उसने जोर का ठहाका लगाया।
उसके इस ठहाके से मेरा मन अजीब सा हो गया। क्या मुझे साधारण लोगों की साधारण हंसी की आदत नहीं रही है!
”मुझे लगता है वे आपके साथ चुहल कर रहे हैं।”
”आप चिंता न करें। बाकी चिट्ठे सबके होते हैं।”
”वो एक बहुत अच्छे इंसान हैं, अभी आपने कहा। क्या अच्छे लोग पत्नी से इस तरह के अशोभनीय चुहल करते हैं?”
”देखिए मुझे बिल्कुल भान नहीं है कि आपके बीच क्या है। मगर मैं उन्हें बहुत समय से जानता हूं। मैं खुद भी बहुत हैरान हूं। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि हमें इस तरह मिलना होगा। और मुझे अपने दोस्त के बारे में इस तरह की बातें सुननी पड़ेंगी।”
”मैंने उस अच्छे इंसान के साथ पंद्रह साल रो रोकर काटे हैं। इन पंद्रह सालों में कौन सी तकलीफ है जो उन्होंने मुझे नहीं दी। दर-दर भटकी हूं एक पत्नी का हक पाने के लिए। उनके दिल में जरा सी जगह बनाने के लिए इन पंद्रह सालों में तीन बार आत्महत्या की कोशिश की। हर बार बच गई। अब तय किया कि मरूंगी नहीं। अपनी जिंदगी खुशी से जिऊंगी। सच पूछिए तो अब सुकून में हूं।
उनसे मनुहार करते जब बहुत थक गई तो एक दिन उन्हें अपने दिल से निकाल दिया। बस उस दिन से सुखी हूं।”
”ओह, दुख हुआ यह सब सुनकर, क्या आप दोनों एक साथ नहीं रहते?”
”मैंने उन्हें दिल से निकाला है, घर से नहीं। मैंने कहा न, मैं बहुत मजबूत हो चुकी हूं। मैं आधी रात तक जिस आदमी का इंतजार करती थी वह शराब के नशे में धुत होकर घर लौटता था। क्योंकि उसके पास पिलाने वालों की कमी नहीं थी। पर मेरे पास मुझे सुनने वाले एक अदद इंसान की कमी थी। मुझे आज भी ऐसा लगता है कि मैं अपने पति के साथ नहीं सिर्फ एक थानेदार के साथ रह रही हूं। साहनी मर्डर केस याद है आपको? तब उन्होंने मुझे तीन रातों तक सोने नहीं दिया था। सारे सुबूत उनके पास थे। वे केस सुलझा कर प्रोन्नति पा सकते थे और चाहते तो कुछ लोगों को बचाकर अपने दूसरे काम निकाल सकते थे। पर दिक्कत राजनीतिक संपर्कों की वजह से खड़ी हो गई और उन्हें वह फाइल बंद कर देनी पड़ी। इस दौरान वे उन सभी का गुस्सा, अपनी बुद्धिमत्ता की कलगी,अपनी हार की हताशा सब मेरे सिर मढ़ते रहे थे। न उन्हें प्रोन्नित मिल पाई, न ही वे कोई काम साध पाए। उल्टे उनके अधिकारियों ने जितने हो सकते थे, उतने राजनीतिक लाभ लिए। इसके लिए भी वे मुझे ही कसूरवार मानते हैं। मैं बहुत अच्छी नहीं दिखती हूं न। उनके साथ उनकी पार्टियों में शामिल नहीं हो पाती। उनके दोस्तों के लिए घर पर कॉकटेल आयोजित नहीं कर पाती। इससे उन्हें लगता है कि उनके जिन साथियों की पत्नियों ने इस तरह के काम किए वे उनसे आगे बढ़ गए हैं और बेहतर स्थिति में हैं। वरना उनमें प्रतिभा और समझ की कोई कमी नहीं है…।”
योगिता यादव के इस कथा संग्रह पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिल चुका है।
उसकी बातें सुनते हुए मेरे सामने अपने दोस्त निर्मल का चेहरा आ गया। निर्मल वाकई बहुत बुद्धिमान इंसान है। बड़ी से बड़ी गुत्थी वह चुटकी में सुलझा सकता है। मैं और निर्मल स्कूल में एक साथ पढ़े हैं। बाद में वह पुलिस सेवा में चला गया और मैं यहां इंटेलीजेंस में आ गया। मुझे याद है कुछ महीनों पहले उसने एक नंबर देकर मुझसे इसकी डिटेल निकालने को कहा था। एसएचओ थाने का मालिक होता है, पर थाने से बाहर उसकी कुछ खास नहीं चलती। पर जो संसाधन मेरे पास हैं, मेरे लिए यह बहुत छोटी बात थी। पिन, पैटर्न, पासवर्ड ये सभी बाहरी ताले हैं। हमारे पास ऐसी सुरंग है जिससे हम किसी के भी घर में दाखिल हो जाते हैं और सारी खोज खबर निकालकर ऐसे वापस आ जाते हैं कि उसे पता भी नहीं चलता। शुरू-शुरू में मुझे यह बहुत रोमांचक लगता था। पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, मुझे अब इसमें कोई खास लुत्फ नहीं आता। बस ऐसे ही बेमन से मैंने अपने दोस्त के लिए नंबर की डिटेल उसे चार-पांच बार लगातार ईमेल की थी। सोशल साइट्स ने हमारी सहूलियतें और बढ़ा दी हैं। यहां सब चुपके चुपके खास बातें करते हैं और हम चुपके चुपके इन खास बातों के खास डिब्बों में बड़े आराम से घुस जाते हैं। ऑनलाइन वल्र्ड में आया कोई भी संदेश सुरक्षित नहीं है। हम किसी को, कभी भी क्रेक कर सकते हैं। किसी मैसेज को डिलीट करना हमारे लिए सबसे बचकाना शब्द है। हर फाइल की, हर संदेश की कई बैकअप फाइलें अपने आप तैयार हो जाती हैं। जिन्हें हम कभी भी निकाल सकते हैं। रही बात सूचनाओं की, तो हमारे ज्यादातर पेज हमने सिर्फ सूचनाएँ लीक करने के उद्देश्य से ही बनाएं हैं। ऐसी सूचनाएं जो दूसरों को भ्रम में डालने के लिए फैलाई जाती हैं। मैं जो ईमेल अपनी टीम को करता हूं उनमें से ज्यादातर ऐसी भी भ्रमित सूचनाएं होती हैं, जो बस भेजने के लिए भेजी जाती हैं। जबकि असल सूचनाएं हम अपने अलग सिस्टम के इस्तेमाल से भेजते हैं। ओह, मैं फिर अपने बारे में बातें करने लगा। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए।
वह कुछ बोल रही है, मुझे उसकी बातों पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देना चाहिए-
”अब जब मैंने जीना शुरू किया है, हंसना शुरु किया है, उन्हें तकलीफ होती है। वो मुझे परेशान करना चाहते हैं और मैं परेशान नहीं होती।”
”आप क्यों ख्वामखाह परेशान हो रहीं हैं। मुझे तो कुछ याद भी नहीं कि था क्या, उस सबमें।”
”मैं भी तो यही जानना चाहती हूं कि आखिर मैंने ऐसा क्या गुनाह कर दिया, जिसकी वे मुझे लगातार धमकी दे रहे हैं?”
अब मुझे उसकी बातचीत का एक-एक शब्द याद आ रहा था। वह अपने किसी दोस्त के साथ खूब आत्मीयता से बात किया करती है। उसे अपनी दिन भर की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बात साझा कर रही थी। एक बार को मुझे भी लगा कि दोनों के बीच काफी कुछ खास है। पर फिर मैंने कहा न, मुझे अब इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई। मैं अब सिर्फ किसी कसाई की तरह काम करता हूं। संवेदनाओं का ताला मैंने लगभग बंद कर दिया है।
”अगर वो आपके साथ ऐसा करते हैं तो यह बहुत गलत है…” यह मैं क्या बोल गया? आखिर मुझे बुरा क्यों लग रहा है। मैंने एक दोस्त होने के नाते अपने दोस्त का साथ दिया है। कल मुझे कुछ जरूरत होगी, तो वह भी मेरा इसी तरह साथ देगा। बिना कुछ भी पूछे।
”नहीं नहीं, आप परेशान न हो। मैंने कहा, अब मुझे कुछ बुरा नहीं लगता। बल्कि आदत हो गई है, उनके इन तानों, उलाहनों की।”
”फिर भी, आप परेशान न हों, छोटे-मोटे मन मुटाव होते रहते हैं, सबके जीवन में।”
”हां, जिनके आप जैसे मददगार हों, उनकी जिंदगी में छोटे-मोटे होते हैं।”
”हा, हा, हा” मैंने हंसते हुए माहौल को हल्का करने की कोशिश की। वह भी मुस्कुरा रही है, मुझे देखकर खुशी हुई।
”दोस्तों की मदद करना कुछ गलत तो नहीं।”
”अभी हंसते हुए क्या आपको लगा कि मैं मुंह फाड़ के हंसती हूं?” उसने अप्रत्याशित सवाल किया।
”नहीं तो, मुझे तो ऐसा कुछ खास नहीं लगा।” असल में मुझे उसका खिलखिलाना अच्छा लगा था।
”अब देखिए न, आपकी जगह अगर मेरे सामने वो, यानी मेरे पति बैठे होते तो निश्चित ही मुझे डांट पड़ जाती, वो अक्सर कहते हैं कि मुझे हंसना नहीं आता, मैं बेशऊर हूं। पहले उनकी मां कहती थी कि मुझे खाना बनाना नहीं आता। उनके दोस्तों की पार्टियों से लौटकर मुझे सुनने को मिलता कि मुझमें ड्रेसिंग सेंस नहीं हैं। मैं हाईहील पहनकर बिल्कुल नहीं चल पाती, इस पर भी कई बार बेइज्जत हुई हूं मैं। और अब देखिए न मैं बदचलन भी हो गई… आपकी मदद से।”
ओह, अचानक जैसे किसी ने कोई सुई चुभो दी हो, ऐसा अहसास हुआ मुझे और वह कितनी सहजता से इतनी बड़ी बात कह गई।
”मुझे बहुत बुरा लग रहा है यह सब सुनकर, अगर वो ऐसा सोचते हैं।”
”नहीं नहीं कोई बात नहीं, आप क्यों दिल छोटा करते हैं। मुझे तो इस सब की आदत हो चुकी है।”
”खैर, आप ध्यान रखिए। जिंदगी में प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। जो कुछ हुआ, उसे भूल जाइए और बच्चों को देखिए।”
”जी शुक्रिया। पर नहीं, अब नहीं भूल पा रही हूं। मैं सब कुछ भुला कर दोबारा से अच्छे रिश्ते की शुरूआत कर रही थी, लेकिन आप दोनों के इस कृत्य ने भविष्य की अपार संभावनाओं को तहस-नहस कर दिया। कमरे में, बिस्तर पर दी गई गालियां बुरी तो लगती हैं, पर इतनी बुरी नहीं लगती, जितना अब लग रहा है।
उसके दिमाग पर सनक सवार है। पर आपने क्या किया? आपने अपने संसाधनों और सुविधाओं का गलत इस्तेमाल किया है। जिंदगी के साधारण मसलों के लिए बहुत बड़े संसाधन इस्तेमाल नहीं करने चाहिए। जिस सबके लिए उन्होंने आपकी मदद ली, अगर साफ मन से कुछ दिन मेरे साथ बैठ जाते, तो क्या मैं न बता देती? क्या जरूरी है कि छोटे से प्रतिशोध के लिए हम अश्वात्थामा की तरह इतने आक्रोशित हो जाएं कि अपने विशेष गुणों को हथियारों की तरह इस्तेमाल कर कितने ही जीवन तहस-नहस कर दें? छोटी सी नोंक झोंक को उन्होंने ऐसे घृणित मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। जहां रिश्तों की सीवन के लिए सुईं की जरूरत थी, आप अश्वात्थामा की तरह ब्रह्मास्त्र चला बैठे… बिना यह सोचे कि इसका प्रतिफल क्या होगा…
सुनंदा को जानते हैं न? मेरी बहुत अच्छी दोस्त थी वो। आज भी अंकल जब किसी वीआईपी गाड़ी को देखते हैं तो पत्थर उठाकर मारना शुरू कर देते हैं। वे अपनी जिद्दी बेटी की किसी भी मनमर्जी से इतने आहत नहीं हुए, जितने उसकी आत्महत्या से हुए। कसूरवार आप ही के जैसा कोई खास दोस्त था, जिसने अपने अधिकारों, सुविधाओं का गलत इस्तेमाल किया। कम से कम जिंदगी के साधारण मसलों में देश के असाधारण संसाधनों का इस्तेमाल आप लोगों को शोभा नहीं देता। मैं तो मजबूत हूं। सब कुछ झेल गई, आगे भी झेल जाऊगी। पर हर औरत मेरी तरह ढीठ या कहें कि मजबूत नहीं होती। किसी और औरत के साथ ऐसा मत कीजिएगा। अब मुझे चलना चाहिए। बेटी के कोचिंग से आने का वक्त हो गया। नमस्कार। ईश्वर आपको खूब तरक्की दें।”
जैसे जंगल में दरख्तों को बुरी तरह हिलाती हुई किसी तेज हवा की तरह वह अचानक यह सब कह गई। और मैं तय नहीं कर पाया कि मैं दरख्त हूं या पूरा जंगल… या फिर द्रोपदी के सामने बंधा पड़ा अश्वत्थामा। नहीं मुझे दुआ नहीं चाहिए… मैं कहना चाहता था।
”मैंने कुछ नहीं किया। मुझे तो याद भी नहीं…” और मैं बस इतना कह पाया।
वह पर्स और थैला उठाकर उसी थकी हुई सी मद्धिम चाल से चलते हुए वहां से चली गई। उसकी दुआ ने जैसे मुझे निशस्त्र कर दिया। हजारों हजार बेडिय़ों में बंधा मैं जैसे जंगल में एकदम अकेला रह गया था। इससे कैसे निकलूं क्या मुझे बढ़कर माफी मांगनी चाहिए? क्या मैं माफी मांगना चाहता हूं? नहीं मेरी ड्यूटी कहती है कि मुझे मुकर जाना चाहिए। क्या मैं सचमुच मुकर जाना चाहता हूं कि मैंने कुछ नहीं किया?
 ****
योगिता यादव

संपर्क : मो. 09419148717

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 3

  1. Pooja Singh says:
    8 years ago

    बेहद अच्छी सच्ची सी कहानी योगिता यादव को बहुत सारी शुभकामनाएं…. I

    Reply
  2. Pooja Singh says:
    8 years ago

    This comment has been removed by the author.

    Reply
  3. yogita yadav says:
    6 years ago

    thanks a lot pooja ji

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

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