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कल्पना झा |
कल्पना झा मूलतः रंगकर्मी हैं। कॉलेज के दिनों से ही मंच पर अभिनय करती रही हैं और दर्शकों का दिल जीतती रही हैं। उनके द्वारा अभिनित नाटक अंगिरा के देश भर में कई मंचन हो चुके हैं। कल्पना ने प्रसिडेन्सी कॉलेज से साहित्य में एम.ए. किया है और भारत सरकार के एक दफ्तर में कार्य करती हैं।
उनकी कविताओं पर कुछ भी कहना बेमानी है। इसलिए यहाँ प्रस्तुत है उनकी कुछ ताजा कविताएँ। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही।
समय के पार माँ
बताओ तो मैं कौन हूँ? – बेटी पूछती है
और बूढ़ी आँखें टटोलती रहती हैं एक नाम
कि पुकार सके, पहचान सके
उम्र भर लिए गए तमाम नाम
उसकी कमज़ोर पड़ चुकी नसों में घुमड़ते हैं
ढूंढ लाती है वह एक नाम
अतीत के खोह से – मुंद्रिका हो?
नहीं माँ
चन्द्रिका?
ना..
ऑंखें ढूंढती रहती हैं चेहरे का नाम
पहचानी सी आवाज़
गाल, भवें, ठोढ़ी, ललाट सब जाने पहचाने
कौन है ये, जो आती है अक्सर मेरे पास
बैठती घंटों
सदियों से कौन जाने हाथ की उंगलियां
आदतन चेहरा सहला देती है
सर पर हाथ फेरती है
नाम याद नहीं कर पाती माँएं
जब बूढी हो जाती हैं
तब वे सिर्फ दो धुंधली ऑंखें भर रह जाती हैं
माँ, मैं इंदिरा, तुम्हारी बेटी
तुमने ही तो नाम रखा था न – वह फिर याद दिलाती है
गूंजती है आवाज़ें फिर –
भगवती के चार गीत गाओ कम से कम
कनिया सब खोइंछा भरने को बारी से दूब तोड़ ला
बिसेसस्वर बौ धोती दू जोड़ी
लाल दू जोड़ी
पियर रंगना
दलपुरी के आटे में मोईन डालना न भूलना
भार जायेगा बेटी के ससुराल
लड्डू मीठा ठीक बने
चाशनी का तार देखना हलवइया
अंगना गोबर से लीपना भोरे
घुमड़ती है चार पीढ़ियों की जन्मकुंडलियाँ
ग्रह दोष
उसके काट
एक साथ कमज़ोर तंतुओं पर
स्मृतियों का शोर भारी पड़ता है
एक चमक आकर लौट जाती है
धुँधलायी आँखों में
और समय के पार माँ फिर ढूंढती है
बहुत से नामों में से एक नाम
बेटी ख़ुद को धीरे धीरे
उन अपरिचित आँखों में बदलते देखती है ।
टूटी पंखुड़ियों वाला गुलाब
कॉलेज के मुख्यद्वार पर
जब सारे गुलाब बिक गए
सबकी देखा देखी
आख़िरी बचा रह गया
टूटी पंखुड़ियों वाला गुलाब घर ले गया वह
झोली वाला हाथ सामने
और गुलाब की कचक चुकी डंडी को
बड़े ध्यान से पीठ से टिका
धीरे से किवाड़ खिसका
चौखट पार किया
दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत की
उघड़ी पीठ निहारता रहा कुछ देर
उसके उलझे बालों में फूल खोंसने बढ़ा ही था
कि लपक कर मुड़ी लुगाई ने
अपने हाथों में जाने कब से सना हुआ तरकारी और भात का निवाला
उसके मुंह में झप्प से भर दिया
और खिलखिला दी ज़ोर से
पीले दांत चमके कुछ ऐसे
कि किवाड़ की फांक को चीर कर
रोशनी दरवज्जे पर बैठ गई लजा कर
उसने देखा था घुटनों पर बैठ प्रेम निवेदन करते लोगों को
कसमसा रहा था कि वैसे ही नक़ल करे
और फ़िल्मी अंदाज में
अपने पसंदीदा मुकेश का गाना गाते गाते कह डाले
जो कभी न कहा था
फिर
उसने बड़े करीने से कुछ पंखुड़ियों वाला गुलाब
जड़ दिया उसके बालों में
और उसे झोंटे से अपनी ओर खींच कर कहा –
सुन, आज कंघी न करना तू।
खिड़कियाँ
मैं खिड़की से लग कर
जब भी आसमान देखना चाहती हूँ
मुझे दिखती हैं कई कई खिड़कियां
और उनसे झांकती
कई कई जोड़ी आँखें
जब शाम की लाली ढूंढती हूँ
तो दिखती हैं उन आँखों की रक्ताभ शिराएं
जिनके लिए खिड़की एक कोना है
आँख बचाकर बरसने के लिए
कई बेमौसम बरसातों में
जब छई छपा करते हैं लोग
तो दरअस्ल कहीं भीग रहे होते हैं
खिड़कियों से सटे कई वजूद
जब कई दफा बारिश अचानक थम जाती है
तो दरअसल उन आँखों को
झट से पोछ लिया गया होता है
कि उन्हें कई आहटों पर संभलना होता है
कई पुकारों पर लौटना होता है
अपनी दिनचर्या में मुस्कुराते हुए
खिड़की वहीं रहती है
उनके लौटने के इंतज़ार में
वह कहीं नहीं जाती।
जाने के बाद भी
हाथ बहुत देर तक
हवा में हिलते रहते हैं
और नोर धीरे धीरे सूख जाते हैं
मुड़ के देखने पर भी न दिखे वो जब
आश्वस्ति हो तो लौटते हैं
शरीर अपने अपने घर
जब कोई कहीं से चला जाता है
तो छूट जाती है पीछे
उसकी गंध
कोई रुमाल या अंगोछा
और वो बसता रहता है
वहां बहुत देर तक
वहां से चले जाने के बाद भी।
***
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
बहुत ही सुंदर और कामयाब कविताएँ कल्पना झा को बहुत बहुत बधाई
जिस कलम से बाया गुलाब की टूटी पंखुडियां, ऐसा पवित्र प्रेम झडे, प्रभु उसे और निखारें.
अभयानंद कृष्ण
वाह वाह वाह क्या बात है 🙏🙏🙏🙏❤❤🌷🌷