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Home कविता

यतीश कुमार की कविताएँ

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कविता, साहित्य
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3
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यतीश कुमार

यतीश कुमार की कविताएँ इस लिए रूहानी लगती हैं क्योंकि इनके कवि को कृत्रिमता छू तक नहीं पाई है – यही इस कवि की मौलिकता है। आज जब कविताएँ पढ़-पढ़कर कविताएँ लिखने का चलन बढ़ता जा रहा है यह कवि शिल्प के फेरे में न पड़कर अपने अनुभव और स्मृतियों को कविता में लागातार ढाल रहा है। दीगर बात यह कि प्रस्तुत कविताएँ ही इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए काफी हैं कि कवि ने अपनी भाषा स्वयं निर्मित की है और समय की विसंगतियों से लागातार मुटभेड़ करने में जुटा हुआ है।
अनहद पर पहली बार इस कवि से परिचय करना सुखद है और इस बात की आस्वस्ति भी कि मौलिकता थोड़ी रूखर हो सकती है लेकिन वह काल की सीमा को अतिक्रमित करने की योग्यता भी रखती है। यतीश कुमार को अनहद की ओर से बहुत बधाई। और हाँ, आपकी बेवाक प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही।
देह के मोती
कभी कभी कुछ पल
ऐसे होते है
जिनमें पलकें खोलना
समंदर बहाने जैसा होता है
उन पलों में आप और लम्हे
एक साथ सैकड़ों नदियों में
हज़ारों डुबकियाँ लगा रहे होते हैं
कभी लम्हा सतह से उपर
और कभी आप
लम्हों और आपके बीच की
लुक्का -छुप्पी , डुबकियाँ
सब रूमानी- सब रुहानि
फिर आप जैसे समंदर पी रहे हों
और नदियाँ सिमट रहीं हों
आपका फैलाव असीमित
सब कुछ समेटने के लिए
फिर एक लम्हे में छुपे हुए सारे समंदर
और उनमें छुपी सैकड़ों नदियाँ
आप छोड़ देते हैं बहते
लम्हे बिलकुल आज़ाद हैं अब
छोड़ देना आज़ाद कर देना
सुकून की हदों के पार ला रखता है आपको
आप जैसे खला तक फैल कर
फिर ज़र्रे में सिमट रहे हों
बिखरते हर लम्हे ऐसे लगते हैं
जैसे आप के अस्तित्व के असंख्य कण
आपसे निकल कर
अंतरिक्ष के हर नक्षत्र को टटोलते फिर रहे हों
पूरे ब्रह्मांड में आपका फैलाव
हावी हो रहा हो
जैसे हर लम्हा आपसे झूटकर
जाता  हो ईश्वर को छूने
देवत्व का टुकड़ों में हो रहा हो
स्वाभाविक वापसी
जगमगाते लम्हे, टिमटिमाते लम्हे
अंतरिक्ष में असंख्य सितारे
और ऐन उसी पल उगते हैं
देह पर असंख्य नमकीन मोती
ब्रह्मांड भी कभी धरती पर
समाता है एक शरीर के बहाने
हर ज़र्रा, हर लम्हा, शरीर का हर मोती
कायनात को रचने की क्षमता रखता है
प्रेम भरे पल में रीता एक लम्हा भी
सृष्टि रचने की क्षमता रखता है ।
मैं ख़ुश हूँ
मैं ख़ुश हूँ
मैं एक जगह खड़ा हूँ
जहाँ से मुझे ग़म दिखता नहीं
ख़ुद में
मैं तरंगित हूँ
और मुझमें रोज़
नई तरंगे उन्मादित
उदित हो रही हैं
मैं उनके कम्पन का स्पंदन
अपने हर रोम में महसूस करता हूँ
फिर उन कम्पनों को
उन लोगों में बाँटता हूँ
जो पाषाण हो चले हैं
जो निर्जीव अवस्था
की ओर यात्रा कर रहे हैं
वे चल रहे हैं किसी अनजान नियति के वशीभूत
पर मेरी नियति का क्या?
मैं तो तरंगित हूँ
उन्मादित उत्तेजित हूँ
कल-कल नदी जैसा
मधुर गीत अंदर
बहता रहता  है
मैं भी बहता रहता हूँ
दूसरे के ग़म उधार लेता हूँ
बदले में थोड़ा प्यार देता हूँ
बड़े आश्चर्य में हूँ
ग़म लेना तुम्हें
हल्का कर देता है
तुम्हारे भीतर एक जगह
ख़ाली कर देता है
और ज़्यादा प्यार भरने के लिए
तो इसका मतलब ये हुआ कि
प्यार पालना और  रखना
ज़्यादा भारी है
प्यार देने से ग़म लेने से
भीतर हल्का जो लगता है
गंगा अभी भी जीवित है
संसार से इतने ग़म ले के
और इतना ज़्यादा प्यार देके
कल कल बह तो रही है आज भी
और यकीन कीजिए
मैं ख़ुश हूँ ।
नंगापन
कुछ खोता जा रहा है मेरा
अस्तित्व की ओस गर्म हवा के सम्पर्क में आ रही है
और अंश-अंश  उड़ती जा रही है
अपने ही सिद्धांत और स्वार्थ का संघर्ष
अपनी ही आँखो के सामने दिख रहा है
कभी ख़ुद को अंदर से नंगा महसूस किया है?
महसूस नहीं देखने की बात कर रहा हूँ मैं
मैंने देखा है ख़ुद को नंगा अंदर से
जब अस्तित्व आहिस्ता आहिस्ता
अंदर से खोखला होता जाता है
तो अंततः
आप ख़ुद को नंगा महसूस करते हैं
कभी स्पर्शों से सिद्धांत बनाया है?
मैंने बनाया है स्पर्शों का सिद्धांत
बचपन के बनाए उन पवित्र सिद्धांतों
की क़ब्र भी बनायी है मैंने
आदमी पहले बातों से सिद्धांत बनाता है
फिर लिखकर और अंत में थककर आँखो
के सिद्धांत बनते हैं
पर मैंने स्पर्शों के आधार पर
ख़ुद के जीने का सिद्धांत बनाया है
पर क्या करूँ कि  छोटी -छोटी बातें
छोटे- छोटे स्वार्थ छोटे- छोटे दीमक मेरे
सिद्धांतों के ग्रंथ को चट करते जा रहे हैं
शायद कुछ खोता जा रहा है मेरा
और जो बचा है
उसे इंतज़ार है सिर्फ तुम्हारे स्पर्श का
शायद कुछ खोता जा रहा है मेरा
दिल दिमाग़ जिगर ग़ुर्दा ख़ून क्या
आख़िर क्या खोता जा रहा है मेरा ?
वास्तव में ये सारी चीज़ें अंदर से
अपने अपने आयत में कमी करती जा रही हैं
और मेरे अंदर के पोशाक को घिस -घिस कर
नंगा करने की कोशिश कर रही हैं
यह समय भी अजीब है
इसके पास सिर्फ़ तीन कपड़े हैं –
भूत,वर्तमान और भविष्य
और
इन तीन कपड़ों के बनने की
प्रक्रिया भी अजीब है
एक दिन के आकार का धागा
आगे की ओर आकर लगता है
दूसरा उसी आकार का धागा
पीछे से निकल जाता है
कपड़े की लम्बाई चौड़ाई
एक समान ही रह जाती है
पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं
जो इन कपड़ों के बनने की प्रक्रिया
को जानने के चक्कर में पूरे
कपड़े को उधेड़ डालते हैं और ख़ुद को
नंगा कर डालते हैं
शायद कुछ खोता जा रहा है मेरा
और जो बचा है उसे इंतज़ार है
तुम्हारी पोशाक का
ताकि मेरा नंगापन फिर से
उधेड़ा जा सके ।
शहर से बड़े बादल
उपर आसमान से उड़ते वक़्त
नीचे शहर चीटियों सा रेंगता दिखता है
और बादल विशाल समंदर सा
समूहों में गुँथा गुँथा
लगता है अनन्त खलाओं में
बादलों ने क़ब्ज़ा कर रखा है।
उनकी मिल्कियत के आगे
नीचे का शहर बौना दिखता है
ये मस्त मौला हाथियों के समूह हैं
अपनी धुन में हवा के रूख पे सवार
दुनिया से बेख़बर अपनी दुनिया में
उनकी नज़र से देखो तो
हमारे बनाए नदी नाले
जिसके भरोसे हम विकास
और माडर्न ड्रेनेज सिस्टम
का झूठा हवाला देते हैं
बिलकुल सफ़ेद झूठ है
दोनों के बीच कोई सामंजस्य
या पर्याप्तता नहीं दिखती
हाँ इनके बीच एक
मौन समझौता है
अनकही वादों की डोरें बंधी हैं
एक अदृश्य मरासिम के हवाले से
बादलों ने हमेशा
निभाये हैं वो सारे करार
कि अपने समय पे आना है
मौसम अनुसार जितना चाहो
बिना माँगे बौछार कर जाना है
जल ही जीवन है और
शुद्धता की विशुद्ध गारंटी
पर क्या करें कि  हम इंसान हैं
दुनिया के सबसे विचित्र जानवर
सबसे कम भरोसेमंद
वादों के डोरों में असंख्य धागे थे
हर एक ने समय समय पे नोचा
एक एक धागा ग़ुब्बारे में लगाकर उड़ाया
बादलों ने बहुत धीरज दिखाया
वो बादल जो वादों के डोर से जुड़े थे
बिखरने लगे सब्र की दीवारों में दरार आ गयी
वे भी क्या करें
ढहती दीवार का संतुलन
कहाँ सँभलता है
जिस शहर ने जितनी डोरें
तोड़ी हैं उतना ही भुगतना है
चाहे चेन्नई हो या मुंबई
या फिर पूरा झारखंड
ना जाने कब पूरे भारत
की बारी आ जाए
इस खेल में डोर तोड़ना आसान है
फिर गाँठे लगाना बहुत मुश्किल
ये मरासिम हैं
कोई आँत की नाड़ी नहीं
कि यहाँ काटा वहाँ जोड़ा
दर्द और प्यार के रिश्ते हैं
ज़रा सँभल के दोस्त,खीचों मत
सामंजस्य बनाए रखो एतमाद का मामला है
ना जाने कब तुम्हारा शहर
करबला बन जाए और तुम यज़ीद ।
ख़्याल भी एक मर्ज़ है
ख़याल भी अजीब मर्ज़ है
इसकी अपनी फितरत है
अक्सर ख़्याल बिस्तर पे
अर्ध निंद्रा में
हौले से प्रवेश करता है
और एक साथ
सैकड़ों ख़याल
दनादन ज़हन के दरवाज़े पे
मन के साँकल खड़काते हैं
खट खट खट खट
और तब और ज़्यादा तीव्र
हो जाते हैं जब महबूब
तुम्हारे दरमियान हो
एक दिन इसी सोच में लिख डाला कि
“किसको तवज्जो दूँ  पहले, कमबख़्त
ख़याल और महबूबा एक साथ लिपटतें क्यों हैं।”
ख़याल दौड़ते भी हैं
पीछा करते हैं
झट से एक हुक फँसा कर
मेरी गाड़ी के पिछले सीट पर
चुपके से विराजमान हो जाते हैं
और रेंगते हुए आहिस्ता से
दिल में दस्तक देते हैं तब
जब कभी भी आप
अकेले ड्राइव कर रहे हों और
कोई पुराना गीत बज रहा हो
इनके मिज़ाज का क्या
कभी तो भरी महफ़िल में
किसी ख़ास मुद्दे पे बहस
के बीच टपक पड़ते हैं
बात बात में
आपकी बात काट देते हैं
फटकारो तो दुबक जाते हैं
ये अजीब फ़ितरत है इनकी
जब इन्हें आग़ोश में लेने
की तमन्ना करो  तो
फिसल जाते  हैं
जब कहता हूँ कल आना
तो लिपटते हैं
अजीब आँख मिचौली है
और अंततः जब सबसे हार के
ख़ुद से टूट के अपने ही
ग़रेबान से लिपटता हूँ और
क़मीज़ की आस्तीन भिंगोता हूँ
तो कोई चुपके से लिपटता है
कहता है मैं हूँ तुम्हारा जुड़वाँ
मुझसे नाराज़ न हुआ करो
मैं तो यहीं था
तुम्हारे पास बिलकुल तुम्हारे पास
और फिर मेरी क़लम
मेरी नहीं होती
ख़्वाबों और ख़्यालों की हो जाती है ।
 घर का कोना
एक कोना  है घर का
जो सारे घर को साफ़ रखने  के लिए
क़ुर्बानी देता रहता है
बचपन लिए टूटे खिलौने
ख़ुशबू में डूबे पुराने कपड़े
इश्क़ की अंगड़ाई वाले लिहाफ़
रिश्तों से ज़्यादा उलझे ऊन
तक़दीर से ज़्यादा चीथडी किताबें
और न जाने क्या क्या छुपाए है
वह कोना
सारी उलझी यादों
का सोपान है संग्रहालय भी है
पूरे घर की पसंद नापसंद
का ज़िंदा सबूत
एक कफ़स में बंद पालतू  तोता
ज़रूरत पड़ने और ग़लत वक़्त पर
अपना मुँह खोलता हुआ
वह कोना बचपन जवानी बुढ़ापा
सब समेटे ऐसे तकता है
जैसे मृत त्वचा शरीर में रहकर ताक रही है
वह ऐसा हिस्सा जिसका सबको पता है
और पता नहीं भी है
मन के अंदर भी एक कोना ऐसा ही है
मृत स्थिति लिए जिसका होना न होना
अखरता नहीं है
खटकता नहीं है
पर कभी कभी जैसे मानो
दिवाली आ जाती है
और वह कोना बोलने लगता है
यादों पर पड़ी धूल
छटने लगती है
बचपन खेलने लगता है
जवानी इठलाने लगती है
बुढ़ापा खिलखिलाने लगता है
और हम उन यादों को
कभी आँखें मूँदे कभी आँखे खोले
देखते रहते हैं
एक मुस्कुराहट ,एक गुदगुदी
कभी भीतर होती है
कभी होंठों पर आती दिखती है
कोना भी थोड़ा हँस देता है ।
****
यतीश कुमार 1996 बैच के आईईएस अधिकारी हैं। वर्तमान समय में ब्रैथवेट एवं कम्पनी के अध्यक्ष एवं प्रंबंध निदेशक के रूप में कार्यरत हैं।
संपर्कः  yatishkumar93@rediffmail.com

 

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 3

  1. Pooja Singh says:
    7 years ago

    अच्छी कविताएँ …

    Reply
  2. विमलेश त्रिपाठी says:
    7 years ago

    Shukriya pooja

    Reply
  3. विमलेश त्रिपाठी says:
    7 years ago

    Shukriya pooja

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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