आबल-ताबल – ललन चतुर्वेदी
परसाई जी की बात चलती है तो व्यंग्य विधा की बहुत याद आती है। वे व्यंग्य के शिखर हैं – उन्होंने इस विधा को स्थापित किया, लेकिन यह विधा इधर के दिनों में उस तरह चिन्हित नहीं हुई – उसके बहुत सारे कारण हैं। बहरहाल कहना यह है कि अनहद कोलकाता पर हम आबल-ताबल नाम से व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ शुरू कर रहे हैं जिसे सुकवि एवं युवा व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी ने लिखने की सहमति दी है। यह स्तंभ महीने के पहले और आखिरी शनिवार को प्रकाशित होगा। आशा है कि यह स्तंभ न केवल आपकी साहित्यिक पसंदगी में शामिल होगा वरंच जीवन और जगत को समझने की एक नई दृष्टि और ऊर्जा भी देगा।
प्रस्तुत है स्तंभ की दूसरी कड़ी। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
मेरे पास भी एक कुत्ता होता !
ललन चतुर्वेदी
कुत्तों पर गौर करें तो ज्ञान का पिटारा खुल जाता है।क्या आपने गौर किया है कि कुत्ते पशु-जगत में किसी से दोस्ती नहीं करते। वे हमेशा इन्सानों के बीच रहना पसंद करते हैं। जहां इन्सानों की संख्या अधिक होगी,वहाँ कुत्तों की संख्या भी ज्यादा होगी। मैंने अनुभव किया है कि गाँवों की तुलना में शहरों या महानगरों में कुत्तों की संख्या अधिक होती है।इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि जहाँ बौद्धिकों की अधिक संख्या होती है,वहाँ कुत्ते रहना पसंद करते हैं। इसी प्रकार इंसान सैकड़ों इन्सानों से दोस्ती करते हुए भी कुत्तेका गुणगान करता फिरता है। इंसान और कुत्तों के संबंध की जटिल पहेली को सुलझाना बड़ा टफ टास्क है। मैं वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि एक दिन मैं सफलता पा ही लूँगा। आप समझ सकते हैं रिसर्च एक सतत प्रक्रिया है।इसे हमारे वैज्ञानिक बहुधा दोहराते रहते हैं। अब आर्किमिडीज़ वाला जमाना रहा नहीं कि कुंए में बाल्टी डाली और उत्प्लावन का सिद्धान्त निकल गया। न्यूटन वाला समय भी नहीं कि पेड़ से सेव गिरा और गुरुत्वाकर्षण का नियम बन गया। अब रिसर्च में समय देना पड़ता है।इसके लिए दिन-रात काम करना पड़ता है। मेरा रिसर्च तो जीव –जगत से संबंधित है,इसलिए और कठिन है। रिसर्च से मन बोझिल न हो इसलिए मूड हल्का करने के लिए मैं दो महत्वपूर्ण काम करता हूँ -सुबह की सैर और पत्नी के साथ शाम की चाय। इन दोनों को मैं कभी नहीं मिस करता। ये दोनों काम मेरे प्रोजेक्ट के अहम हिस्से हैं। इसी क्रम में धीरे-धीरे बहुत सी गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं।
आज की ही बात है, जब सैर पर निकला तो मस्तिष्क में भाग्य और भगवान को लेकर घमासान मचा हुआ था। यह प्रश्न इतना आसान तो है नहीं। सदियों से इसके पक्ष और विपक्ष में बहस जारी है। यहाँ तक कि दार्शनिकों ने करोड़ों पन्ने रंग डाले पर फैसला कुछ भी नहीं हुआ। यह सब सोचते हुए मैं सिर झुकाये बढ़ ही रहा था कि अचानक बीस लाख की लग्जरी कार से एक सुदर्शना उतरीं। उनकी गोद में घुँघरालेबालों से आच्छादित एक श्वान-शावक ने वसुधा का स्पर्श किया। मैंने सोचा- धरती धन्य हुई और आज की सैर भी सार्थक हुई। मेरे चरणों की चपल चाल की रफ्तार थोड़ी कम हो गई और दिमाग ज्यादा दौड़ने लगा। थोड़ी खुशी भी हुई कि अपने प्रोजेक्ट के एक महत्वपूर्ण पड़ाव की ओर मैं धीरे-धीरे ही सही लेकिन बढ़ रहा हूँ। यकीन मानिए जो लोग इस नयनाभिराम दृश्य के दर्शन से वंचित हैं वही दार्शनिक प्रश्नों में अपना बहुमूल्य समय बर्बाद कर रहे हैं। जब कभी मैं ऐसे दृश्यों को देखता हूँ, ईश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर उठता हूँ।
आध्यात्मिकश ब्दावली में इसे ही तो अहोभाव कहते हैं। कैसे लोग कहते हैं कि भाग्य कुछ नहीं है, भगवान कुछ नहीं है।घोर नास्तिक और निरीश्वरवादी भी ऐसे दृश्यों पर मनन करे तो वह तत्क्षण प्रभु के चरणों में स्वयं को समर्पित कर देगा। औरों की बात छोड़िए, जब-जब मैं कुत्ते को देखता हूँ,ईश्वर पर मेरा विश्वास और पुख्ता होता जाता है। ऐसे भी मेरा ईश्वर पर पूरा विश्वास है। उनके सिवा और किस पर विश्वास करूँ?यदि मेरे पास भी एक कुत्ता होता तो अपने ऊपर गर्व करता। उससे बातें करता,मन की भड़ास निकालता। आज के समय में कौन किसकी बात सुनता है। शायद कुत्ते का महत्व इसीलिए बढ़ गया है और उसका मूल्य भी। खैर,जब बड़े लोगों, खासकर अनिंद्य सुदर्शनाओं के साथ कुत्ते को देखता हूँ तो भगवान के साथ-साथ भाग्य पर भी मेरा पूरा भरोसा जम जाता है। सचमुच मैं नतमस्तक हो जाता हूँ। कभी-कभी तो ऐसा देखते या इसकी कल्पना करते हुए भी मैं बीच सड़क पर ही आँखें मूँद कर हाथ जोड़ लेता हूँ। सोचता हूँ- “ईश्वर तू कितना दयालु है।” एक बार तो ऐसी घटना घटी कि बताते हुए भी शर्म आ रही है। ईश्वर हैं और उनकी कृपा भी मुझ पर है कि यह बताने के लिए बचा हूँ। मैं सड़क किनारे कुत्ते के साथ खेलते हुए मैम को देखने में इस तरह ध्यानमग्न हो गया कि पीछे से तीव्र गति से आते वाहन का हॉर्न भी सुनाई नहीं दिया।चालक ने बहुत चालाकी से गाड़ी मोड़कर ब्रेक लगाया।अचानक चरमराने जैसी आवाज से तंद्रा भंग हुई। उसनडांटकर कहा कि इस उमर में ऐसा ही चाल-चलन रहा तो एक दिन कुत्ते की मौत मरोगे। मेरी मुद्रा मानो ऐसी हो गई थी,जैसे मेरे चोरी पकड़ ली गई हो। मैं लगभग रूआँसा हो गया था। सिर्फ इतनी सी बात जबान पर लड़खड़ाती हुई आई- कितना प्यारा डॉगी था ! चालक ने डपटते हुए कहा- “खरीद क्यों नहीं लेते?” शायद उसे मेरी हैसियत का पता होता तो इतनी कैफियत नहीं पूछता। फिलहाल, इन छोटी-मोटी बातों से बिलकुल निराश नहीं हूँ। कुत्तों पर मेरा रिसर्च वर्क जारी रहेगा।मुझे अपने भाग्य और भगवान पर भरोसा है। एक दिन मेरे मन की मुराद पूरी होगी। मैं अपनी पत्नी चंचला के साथ सुबह जब विदेशी नस्ल के डॉगी के जोड़े के साथ निकलूँगा तब लोग कभी हमें देखेंगे,कभी हमारे डॉगी को।
( जारी … )
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लेखक परिचय
ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।