
सरिता सैल कवि एवं अध्यापक हैं। खास बात यह है कि कर्नाटक के कारवार कस्बे में रहते हुए और मूलतः कोंकणी और मराठी भाषी होते हुए भी हिन्दी को अपनी लेखनी का भाषा चुना है। उनकी यह कहानी उनके क्षेत्र की स्त्रियों की एक मार्मिक झलक प्रस्तुत करती है।
तो आइए आज पढ़ते हैं अनहद कोलकाता पर सरिता सैल की कहानी – रमा।
रमा
सरिता सैल
शनिवार की दोपहर हुबली शहर के बस अड्डे पर लोगों की भीड़ थी। ये लोग सप्ताह में एक बार अपने गांव जाते थे। कंडक्टर अलग-अलग गांवों, कस्बों, शहरों के नाम पुकार रहे थे। भीड़ के कोलाहल के बीच कंडक्टर की आवाज स्पष्ट और संगीत के लय की तरह सुनाई दे रही थी। हफ्ते भर के परिश्रम और थकान के बाद रमा एक और जिम्मेदारी को कंधों पर लादे अपनी मंजिल की तरफ जा रही थी। हर बार की तरह इस शनिवार भी दो बजे की बस पकड़ने के लिए आधी सांस भरे, आधी छोड़े बढ़ रही थी। तभी उसके कानों में अपने गांव का नाम पड़ा। कंडक्टर ऊंची तान में पुकार रहा था। किरवती…किरवती…किरवती … अपने गांव का नाम सुनते ही उसके पैरों की थकान कोसों दूर चली गई। आधी-अधूरी आ रही सांस नथुनों में पूरी भर आई। बस पर चढ़ते ही उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई। दो चार जगहें खाली दिखाई दीं। वो एक महिला के बाजू में जाकर बैठ गई ताकि थोड़ी जुबान भी चल जाए और पसरकर आराम से बैठ भी सके। बाजू में बैठी महिला भी लगभग उसी के उम्र की थी। रमा ने अपने सामान की थैली पैरों के पास रखते हुए उस महिला से पूछा,
“आप कहां जा रही हैं?’’
“यहीं नवलगुंद में उतर जाऊंगी।”
रमा ने मन ही मन गणित लगाया। मतलब ये घंटे भर में ही उतर जाएगी। बचा हुआ सफर खिड़की वाली सीट पर बैठकर आराम से कट जाएगा।
“नवलगुंद में घर है क्या तुम्हारा?’’
“नहीं बेटी ब्याही है। ‘’
तभी कंडक्टर और ड्राइवर दोनों एक साथ बस पर चढ़े। बाजू में बैठी महिला ने लंबी सांस छोड़ी। रमा ने पर्स में हाथ डालकर टिकट के पैसे निकाले। ड्राइवर सीट पर बैठ गया। ड्राइवर के हाथ में गुटके का पीला पैकेट था और कंडक्टर ने एक गाल में यह धीमा ज़हर दबा रखा था। पिछले दस साल से इस ज़हर के पैकेट को लेकर आए दिन उसके पति के साथ झगड़ा तना रहता था। रमा ने पास बैठी महिला से कहा,
“पता नहीं मर्द यह मौत का ज़हर क्यों मुँह में भरते हैं?”
“ कहते हैं इसे खाने से तनाव से कुछ देर के लिए निजात मिलती है” महिला ने उत्तर दिया।
गाड़ी बस अड्डे को छोड़कर आगे बढ़ रही थी।
“हम तो जन्म से ही तनाव कपाल पर बांधकर आए हैं। कुछ देर के सुकून की खातिर यह ज़हर खरीदने के लिए ना गांठ में पैसे हैं ना समय है हमारे पास। जो जन्म से ढो रहे हैं, उससे मुक्ति तो मिट्टी ही देगी। ‘’
“आप इसी शहर में रहती हैं क्या?”
“ नहीं- नहीं यहाँ पर एक विद्यालय में सहायिका का काम करती हूँ। पहले गांव में थी अब यहां तबादला कर दिया गया है। पिछले दो साल से इसी शहर में रह रही हूँ।”
नवलगुंद कब का जा चुका था। अब रमा खिड़की वाली सीट पर थी। अचानक ड्राइवर ने इतने जोर से ब्रेक मारा कि पैर के पास रखी थैली गिरते-गिरते बची। गिरते समय रमा ने हाथ से उसे धर लिया। बस रुकी तो उसने खिड़की से बाहर नजर दौड़ाई। सामने नाई की दुकान में बड़ा-सा आइना लगा था, जिसमें चार-पांच मर्दों के चेहरे नजर आ रहे थे। बस की खिड़की से रमा का भी चेहरा उस आइने में नजर आया। एक क्षण रमा को लगा उसका चेहरा उन मर्दों के चेहरे की तरह ही सख्त लग रहा है। उसने गाड़ी के भीतर की सवारियों पर नजर दौड़ाई और मन को इत्तला किया नहीं… नहीं… वो औरत है। भले ही इन दिनों घर की छत उसके ही कंधों पर टिकी है पर वो औरत है। पूरी तरह से औरत।
उसके जेहन में दो साल पहले की घटना ने दस्तक दी। सहायिका की छोटी सी तनख्वाह वाली नौकरी करने के लिए किस तरह उसे गांव के विद्यालय से दूर यहाँ शहर के विद्यालय में भेज दिया गया। उस समय विद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती जा रही थी। इस कारण अध्यापकों की भी छटनी की जा रही थी। पर यह सब अनुभव के आधार पर किया जा रहा था। जो पहले से काम कर रहे थे, उन्हें नहीं निकाला जा रहा था नौकरी से। लेकिन रमा के साथ नाइंसाफी हुई थी। प्रिंसिपल ने पहले दिन ही बता दिया था। कल शाम चार बजे संस्था के सभी सदस्य आ रहे हैं, इसलिए विद्यालय की छुट्टी होने के बाद मीटिंग के लिये सबको रुकना होगा। सभी के जबान पर बस यही चर्चा थी कि किसकी छंटनी होगी। कौन रहेगा, कौन जाएगा? रमा उदास होकर स्टोर रूम में जाकर बैठ गई। कुछ ही देर में विद्यालय की छुट्टी होने वाली थी। भारी मन से उसने झाड़ू हाथ में लिया। तभी वहां पर वत्सला आ गई। कुल तीन सहायिकायें थीं इस विद्यालय में, उसमें वत्सला सबसे पहले आई थी। उसे विश्वास था कि रमा और उसे नहीं निकाला जाएगा। हां, मालती को यहां आए तीन साल हुए थे इसलिये उसका जाना तय है।
“ रमा, क्या सोच रही है। घंटी बज गई। चल झाड़ू लगाते हैं। मुझे आज जल्दी जाना है घर।”
रमा यंत्रवत उठी। हाथ में चल रहे झाड़ू की तीलियों की तरह रमा के मन में मालती की बेफिक्री चुभ रही थी। वत्सला ने रमा को बहुतेरे समझाया। तसल्ली दी। तुम्हें नहीं निकालेंगे, कहा। फिर भी रमा निश्चिंत नहीं हो पा रही थी। अगले दिन सुबह जैसे ही रमा स्कूल गेट के भीतर पहुंची, प्रिंसिपल ने उसे आवाज दी।
‘’जी सर’’
‘’ये कुछ फाइलें हैं इसे मीटिंग रूम में रखो।”
रमा ने फाइलें उठाई और वो मीटिंग रूम की तरफ जाने लगी। सामने से जोशना मैडम आती दिखीं। उनके चेहरे पर उदासी थी। रमा का दिल और घबरा गया। उसने सोचा, पता नहीं इन फाइलों में से किस की फाइल हट जाएगी। वत्सला और मालती पहले से मीटिंग रूम में साफ सफाई कर रही थीं ।
शाम चार बजे मीटिंग रूम की कुर्सियों पर संस्था के सभी सदस्य और प्रिंसिपल विराजमान थे। एक-एक कर सबको बुलाया जाने लगा। वत्सला मीटिंग रूम से जैसे ही बाहर आयी, उसके माथे पर बड़ी सी बिंदी मानो खिल उठी ।
मन में अनेक संदेहों के पहाड़ लिए रमा मीटिंग रूम की कुर्सी पर बैठी।
पहला सदस्य, “विद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या कम हो रही है।”
दूसरा सदस्य “इस कारण हमें अधिक सहायिकाओं की जरूरत नहीं है अब।”
पहला सदस्य “आप अन्य जगह पर काम ढूँढ़ सकती हैं।”
प्रिंसिपल ” रमा जी आप यहां की पुरानी सहायिका हैं पर संस्था की अपनी मजबूरी है।”
दूसरा सदस्य “तनख्वाह देना हमारे लिए मुश्किल हो रहा है।”
रमा ने हाथ जोड़े “आप ज्ञानी लोग हैं। कैसे भी पेट भर सकते हैं। पर हम कहां जाएं। घर में कमाने वाला मेरा ही हाथ है। सर दया कीजिए। इस गांव में दूसरा काम मिलेगा भी नहीं ।”
दूसरा सदस्य, “समझने की कोशिश कीजिए।”
पिछले चार साल से पति घर बैठा है। पहले मिस्त्री का काम करता था। एक रात काम से लौटते वक्त किसी ने गाड़ी ठोक दी और एक पैर से अपाहिज हो गया। हम निःसंतानों का और कोई सहारा नहीं है। हमारी रोटी तभी बनती है जब हमारे हाथ में काम होता है।” पर वहाँ मौजूद किसी भी सदस्य की आँखों में दया या सहानुभूति का भाव नहीं उमड़ा।
दूसरा सदस्य, “आप हमारे शहर की संस्था के विद्यालय में जाने के लिए तैयार हैं तो हम वहां आपको भेज सकते हैं।”
“सर शहर का बड़ा खर्चा और हमारी छोटी सी तनख्वाह। ऊपर से वहां किराये के मकान में रहना। यह सब नहीं होगा हमसे।’’
चौथा सदस्य, “हमारे हाथ में कुछ नहीं। पर आपको दूसरी संस्था में हम भेज सकते हैं। हमारे हुबली के विद्यालय में छात्रावास की व्यवस्था है। वहां हम आपके रहने का बंदोबस्त कर देंगे।”
कम पढ़े लिखे लोगों के पास ज्ञानी लोगों की तरह तर्क वितर्क नहीं होते हैं। रमा के पास भाषा की भी चालाकी नहीं थी, जिससे उन्हें प्रभावित करती। आते समय प्रिंसिपल सर ने कल आकर मिलने के लिए कहा। बिना रुके रमा घर के रास्ते हो ली। आज रमा को सड़क पर चलते समय सब कुछ अपरिचित सा लग रहा था। उसकी आंखों के सामने अपाहिज पति और कमर से झुका उसका घर बार-बार आ रहा था, जो मरम्मत की आस लगाए बैठा है। आज उसके कधों का बल मानो छिटककर जमीन पर छितर गया था।
खिड़की के बाहर तारों से सजी आसमान की सुंदरता और यह पूर्णता… मन को मोह रही थी। फिर से उसका मन घर के भीतर आया, जहां विद्रूप अंधेरा पंजे मारकर बैठा था। इस निशब्द रात में कल के निवाले की चिंता में केवल रमा अकेली नहीं थी, उसके साथ भास्कर भी आंखें मूंदे बिस्तर पर अपने अपाहिज पैर को कोस रहा था। उसने रमा को कहना चाहा, फिक्र मत करो। कुछ न कुछ काम मिल ही जायेगा। पर उसके भीतर के पुरुषार्थ ने उसको इजाजत नहीं दी। स्त्री और पुरूष दोंनो के लिये स्वाभिमान, मान-सम्मान इसकी परिभाषा अलग-अलग होती है। जहाँ दुख, त्रासदी, पीड़ा होती है, वहाँ एक स्त्री सम्मान, स्वाभिमान को परे रख सहारा, स्नेह देती है पर पुरुष चाहकर भी हृदय की तरलता को उजागर नहीं करता।
गांव में काम की तलाश करना बेकार था। फिर भी वो अगले दिन उठकर गांव के डॉक्टर के पास गई। डॉक्टर ने व्यंग्य के साथ कहा, “गांववाले मेरे पास कम और ओझा बाबाओं के पास अधिक जाते हैं। मेरा ही गुजारा बड़ी मुश्किल से चल रहा है।’’
शाम को वो विद्यालय में आयी। तब तक उसने मन में निर्णय कर लिया था- अब शहर के संस्था के विद्यालय जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं हैं।
इस तरह रमा शहर के विद्यालय आ पहुंची। उसके बाद हर शनिवार आना और सोमवार की सुबह लौट जाना। भास्कर एक पैर से लंगड़ाता रूखी सूखी रोटी बनाकर खाता। बस यही चल रहा था। बाद के दिनों में उसे पता चला कि मालती ने संस्था के सदस्यों के साथ सांठ-गांठ करके अपनी नौकरी बचा ली थी। घर पहुंचते-पहुंचते सूरज अपनी किरणों को समेट चुका था। बस से उतरकर वो पहले बाबू बनिये की दुकान में गई। उधारी चुकता करके कुछ सामान लेकर घर पहुंची। बरामदे में खड़ा भास्कर उसका इंतजार कर रहा था। रविवार के दिन उसने मांस पकाया। दोनों ने साथ बैठकर खाना खाया। सोमवार की सुबह फिर वह विद्यालय आ गयी। गांव के विद्यालय से भी अधिक शहर के विद्यालय में उसका मन लगता। सभी अध्यापक रमा के साथ आदर और अपनत्व का व्यवहार करते थे। और यहां की अध्यापिकायें अक्सर उसे पुरानी और नई साड़ियां लाकर देतीं। यह सब तो ठीक था पर अपाहिज पति को अकेले गाँव में छोड़ आना उसके लिये बहुत कष्टकर होता जा रहा था। उसने इन दो सालों में प्रिंसिपल सर से कई बार कहा कि उसे वापस गांव के विद्यालय में भेजा जाए। उसने उनको यह भी बता दिया किस तरह उसके बाद काम पर आई मालती ने संस्था के सदस्यों के साथ मिलकर नौकरी बचाई और उसे निकालकर यहां भेजा गया। पर कोई फायदा नहीं हुआ।
इन दिनों भास्कर बहुत चिड़चिड़ा हो गया था। उसे लगता अब रमा शहर छोड़कर आना नहीं चाहती है। हर शनिवार की तरह इस शनिवार रमा गांव पहुंची तो पहले की तरह ही भास्कर उसका इंतजार नहीं कर रहा था। दरवाजा बंद था। दो-तीन बार आवाज लगाने पर भास्कर ने दरवाजा खोला।
“बड़ी देर हुई तुम्हें आने में मुझे लगा इस शनिवार तुम नहीं आओगी।”
रमा चुपचाप रसोई में गई।
“अब धीरे-धीरे तेरा मन शहर में रम जायेगा। “
रमा से सहन नहीं हुआ “शहर में सैर-सपाटा करने नहीं जाती हूँ । “
इतना कहकर उसने रसोई की साफ-सफाई शुरू कर दी। बीच-बीच में वो बड़बड़ा रही थी।
विद्यालय में झाड़ू लगाते-लगाते कमर का कांटा टूटने को होता है। बाद में बस में तीन घटें खपना। जान हलक में आ जाती है।
“हाँ, हाँ पता है। अब शहर से गांव आना पंसद नहीं है तुम्हें। इस अपाहिज पति से अड़ंगा हो रहा है।”
रमा के पैर दर्द से टूट रहे थे। आज बस खचाखच भरी होने के कारण आधा सफर उसे खड़े रहकर ही तय करना पड़ा था और आते ही भास्कर अपनी भड़ास निकाल रहा था। काम निपटाकर वो दहलीज पर आकर बैठ गई। आज भास्कर की बातों से वो बहुत निराश हो गई थी। पर क्या कर सकती है। दहलीज के इस पार आग जलाने के लिये दहलीज के उस पार तो जाना पड़ेगा।
पता नहीं भास्कर को आज क्या हो गया है। चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा है।
” तुम्हें शहर में अच्छा खाना नया-नया ओढ़ने पहनने के लिए मिलता है ना। यहाँ इस बंजर गांव में रखा ही क्या है? अब तुम वहीं रहना। जब चीटियाँ चलेंगी मुझपर तब आकर लकड़ियों का इन्तजाम कर जाना। दरवाजा है इसलिये ताला संभालना पड़ रहा है ना।”
“मैं शहर में अपने शौक से नहीं गई। नहीं जाती तो ना चूल्हे में आग नाचती, ना पतीले में भात सिजता तेरे।”
इस बात पर क्रोध से भास्कर के नथुने फूल गये। चारपाई पर बैठे- बैठे वहीं से हाथ में पकड़ा डंडा उसने रमा पर चला दिया। वो तटस्थ बैठी आंखों, हथेलियों को भिगो रही थी। पुरुष अपने परिवार को छोड़कर कमाने जाता है तो उसे जिम्मेदारी की शाबाशी देती है दुनिया। और औरत अगर जाती है तो कुमार्गी कही जाती है।
रमा को अब लग रहा था आस-पड़ोसी भास्कर के कान भर रहे हैं। पिछले महीने उसने दो लॉरी पत्थर बगीचे में यह सोचकर डाले थे कि थोड़े और पैसे जोड़कर कम से कम मिट्टी की कच्ची दीवारें पक्की बना देगी। दुनिया की आंखों में दुख उतना नहीं चुभता जितना किसी का सुख चुभ जाता है।
जून महीने की शुरुआत में ही उसने फिर से प्रिंसिपल सर को विनती की। इस बार तो गांववाले विद्यालय में भेज दिया जाए।
“इतनी जल्दी यह मुमकिन नहीं है रमा जी। “
“पति को अकेले गांव में छोड़कर शहर में रहना मुश्किल हो रहा है सर। नहीं तो नौकरी छोड़नी पड़ेगी। “
“देखिए रमाजी नौकरियों की कमी है इस दुनिया में। नौकरी करने वालों की नहीं।”
उदास मन से रमा स्टाफ़ रूम के पास से गुजर रही थी कि तभी प्रशान्त सर ने उसे आवाज दी
“रमा। “
वो स्टाफ रुम में गई उसे देखते ही मंजुला मैम पूछ बैठी,
“क्या हुआ? चेहरा उतरा क्यूँ है?”
धीरज सर ने कहा ” प्रिंसिपल चेंबर में रमा जी चेहरा रखकर आई हैं। “
सब खिलखिला कर हंसने लगे। मंजुला मैडम ने लड्डू का डिब्बा रमा की ओर बढ़ाया। लड्डू की सोंधी सी खुशबू ने रमा के चेहरे की उदासी मिटा दी। अपनी परेशानियों को भूल वो भी उनके साथ खूब हंसी। पर भूलना स्थायी नहीं होता विशेषकर दुख। ………..
हफ्ते की शुरुआत में बाजार जाकर रमा प्लास्टिक का तिरपाल ले आयी। गांव ले जाने के लिए। जहां छत से पानी टपकता है, वहाँ डालने के काम आयेगा। यह सोचकर कि इस बरसात इसी से काम चलाएगी। समस्याओं का ठोस समाधान जब हम नहीं कर सकते तो विकल्प ढूंढकर खुद को तसल्ली देते हैं। शाम के छह बजे के आसपास बारिश शुरू हुई। अंधकार जैसे-जैसे गहराता गया कड़कती बिजली अपनी अलग-अलग देह वृष्टि के साथ आसमान की छाती पर तांडव करने लगी । उसने भास्कर को फोन लगाया। फोन बंद आ रहा था। बिजली का प्रकाश बार-बार हॉस्टल के कमरे में क्षणिक दस्तक देकर चला जाता। कोने में रखा पीले रंग का तिरपाल रमा के साथ आंख मिचौली खेलता। रमा का मन भाग रहा था। कभी घर के भीतर कभी घर के पिछवाड़े। फिर से उसने भास्कर को फोन लगाया पर……
रमा का हॉस्टल विद्यालय के पीछे ही था। विद्यालय की चाबियाँ रमा के पास ही होतीं। सफाई कर्मचारी सात बजे आते थे। रमा तब तक विद्यालय का गेट खोलकर कक्षाओं को भी खोल देती। कल की बारिश से बरामदे में पानी भर गया था। बरामदे में तरह-तरह के फूलों के गमले थे। तेज हवा से गमलों में उगे रंग-बिरंगे फूल बारिश के पानी में तैर रहे थे। रमा झुककर पानी पर तैरते फूलों को इकट्ठा करने लगी। तभी नीचे गेट के पास गाड़ी के रुकने की आवाज आई। रमा खड़ी होकर नीचे देखने लगी। सफेद रंग की कार गेट के पास रुकी। प्रिंसिपल सर इतनी जल्दी क्यों आए हैं। शायद दूसरे शहर जा रहे हैं विद्यालय के काम से। कागज लेने आए होंगे। अच्छा हुआ मैं समय पर आ गई। तब तक प्रिंसिपल सर उसके पास पहुंचे। रमा की अंजुरी अनेक रंगों के फूलों से भरी थी।
वह प्रिंसिपल की ओर अभिवादन करने के लिए बढ़ी। उनके चेहरे का गंभीर भाव देख वह बेचैन हो उठी। उसने अपनी अंजुरी मुट्ठी में तब्दील कर ली। फूलों की देह और रंग मसल गए। प्रिंसिपल के चेंबर से घंटी की आवाज आई। रमा उस ओर दौड़ी। प्रिंसिपल ने उसे जयश्री को बुलाने का संदेश थमा दिया।
जयश्री लाइब्रेरी की साफ-सफाई का काम देखती थी। जयश्री को आवाज देकर वो वापस आई और अपने काम में लग गई। फिर से प्रिंसिपल के ऑफिस से घंटी की आवाज आई। कुछ समझ नहीं आ रहा था, वहां जयश्री तो है ही। फिर किसको बुला रहे हैं। वो चेंबर में पहुंची। उन दोनों के चेहरे भय और शोक से लिप्त थे। प्रिंसिपल सर ने उसे बैठने का इशारा किया पर वो खड़ी ही रही। जयश्री ने उसके कंधे पर हाथ रखा।
प्रिंसिपल सर ने अपने मोबाइल की तरफ देखते हुए कहा ” सुबह छह बजे गांव के विद्यालय के प्रिंसिपल का फोन आया था। तुम्हारे गांव में लगातार बारिश के कारण पानी भर गया है। बहुत से घर डूब गये हैं। तुम्हारे घर में भी पानी भर गया है।”
इस समय रमा के मन-मस्तिष्क का आकलन शब्दों में करना कठिन था। उसकी स्थिति ठीक वैसी ही थी जैसे मिट्टी से उखड़कर एक वृक्ष गिर गया हो और उसकी जड़ें नंगी होकर जमीन पर पड़ी हैं।
रमा ने पूछा “और भास्कर”
प्रिंसिपल ने रमा के चेहरे पर से नजर हटायी और दीवार की तरफ देखते हुये कहा “नहीं नहीं वो ठीक हैं। राहत शिविर में हैं। तुम जयश्री के साथ गाँव चली जाओ । मैं ड्राइवर को भेज देता हूँ। वह पहुंचा देगा तुम दोनों को।”
रास्ते भर रमा के मन में सवाल उठ रहे थे। जयश्री के पास उन सवालों के जवाब न होने के कारण उसका मन बाहर उमड़ते बादलों की तरह बरसना चाहता था। पर पूरे रास्ते उसने उस आवेग को अपने भीतर दबाए रखा।
एक बजे के आसपास गांव की सीमा के भीतर कार दाखिल हुई। मंदिर का मोड़ आते ही रमा ने कहा “आगे बस आगे है मेरा घर’’ इतना कहते ही रमा के कंठ में मानो पाषाण अटक गया। आंखें कुछ ढूंढने लगीं। खेत के उस पार का घर, बस्ती, पीछे का पहाड़। दृष्टि के फैलाव में केवल जलराशी ही जलराशी नजर आ रही थी। पर इस समय यह दृश्य रमा की नजरों में बंजरता ही दर्ज कर रहा था। दरअसल, रात्रि के काल में पीछे का पहाड़ सरककर आया और बस्ती के कुछ घरों को अपने जबड़ों से चबाकर निगल गया।
गांव में घटी घटनाएं प्रशासन और सरकार के कानों में तब तक नहीं पड़ती हैं, जब तक उस गांव से उनका खास नफा नुकसान जुड़ा नहीं होता। मलवा हटाने का काम बहुत देर से शुरू हुआ। एक एक करके बीस लाशें कतार में लग गईं। शिनाख्त करना मुश्किल हो रहा था। कुछ नंगी कुछ के कपड़े साबुत थे। बारिश की बूंदें उन लाशों की गीली चमड़ी पर गिर रही थीं। परिजनों, गाँववालों की भीड़ में रमा उन बूंदों से धुलती लाशों को पहचानने के मरणासन्न पीड़ा से गुजर रही थी। निःसंतान को कौन अग्नि देगा। जीवन भर रमा और भास्कर इसी दर्द में घुटते रहे कि मरने के बाद उन्हें अग्नि देने के लिए तो एक संतान चाहिए।
रमा मलबे के पास पहुंची। बस्ती में आकर पडा़ मिट्टी का ढेर निकालकर भले ही पहाड़ को लौटा दिया था पर वापसी में पहाड़ अपने साथ दुगना लेकर गया था। बारिश मिट्टी बहाकर ले जा रही थी और जगह-जगह टूटे-फूटे सामानों के ढेर लगे थे। इन सामानों में मेरा कुछ सामान भी हो सकता है यह ख्याल तक रमा के मन में नहीं आया। जिस ओर उसकी नजर जाती आंसुओं की धार लेकर लौट आती।
करीब एक महीने के बाद रमा विद्यालय लौटी। आते समय एक संन्नाटा अपने साथ लायी थी, जिसे वो रोज बुनती और दिन काटती। स्मृतियों के चक्र पर घूमकर कितने ही शनिवार दो बजे की बस के साथ उदास लौट गए ।
एक दिन प्रिंसिपल सर ने रमा को बुलाया,
“रमा जी हम आपको आपके गाँव वाले विद्यालय में भेज रहे हैं, पिछले दो साल से आप कह रही थीं न।”
रमा ने खिड़की के बाहर नजर दौड़ाते हुए कहा
“सर अब मेरा कोई गाँव नहीं है। गांव अपनों से बनता है और अब कोई अपना बचा नहीं। अब मैं कहीं पर भी रहूँ कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।”
‘’पर आप की इच्छा थी ना रमाजी”
” इच्छाएं, उम्मीदें अपनों से जुड़ी होती हैं सर। अब गांव जाने का कोई कारण ही नहीं बचा तो क्या करूंगी जाकर।”
इतना कहकर वो लौटी। अचानक उसे कुछ याद आया और वो प्रिंसिपल सर की तरफ मुड़ गई। पर्स से कुछ पैसे निकालकर प्रिंसिपल सर की ओर बढ़ाते हुए कहा,
“सर पांचवी कक्षा में रोमा नाम की एक लड़की है। बाप मर गया है। माँ अस्थमा की रोगी है। इधर-उधर से गुजारा कर रही है। अब हर महीने मैं रोमा की स्कूल फीस जमा कर दूंगी।”
प्रिंसिपल सर देर तक सोचते रहे। धनी होकर दान करना बहुत साधारण सी बात है। पर निर्धन होकर दान करने की क्षमता विरले ही लोग रखते हैं। कभी-कभी दु:ख मनुष्य को तोड़ता नहीं है, बल्कि किसी दुखी व्यक्ति का सहारा बनकर खड़ा होना भी सिखाता है शायद….।
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परिचय- सरिता सैल जन्म : 10 जुलाई , शिक्षा : एमए (हिंदी साहित्य) सम्प्रति : कारवार कर्नाटक के एक प्रतिष्ठित कालेज में अध्यापन मेरे लिए साहित्य मानव जीवन की विवशताओं को प्रकट करने का माध्यम है। *कोकणीं, मराठी, असमी, पंजाबी एवं अंग्रेजी भाषा में कविताएँ अनुवादित हुई है। कही नामी मंचों से ऑनलाइन काव्यपाठ प्रकाशन : मधुमति, सृजन सारोकार , इरावत ,सरस्वती सुमन,मशाल, बहुमत, मृदगं , वीणा, संपर्क भाषा भारती,नया साहित्य निबंध और, दैनिक भास्कर , हिमप्रस्त आदि पत्र पत्रिकाओं में कविताएं एवं अनुवादित कहानियाँ प्रकाशित। कविता संग्रह 1 कावेरी एवं अन्य कवितायें
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दर्ज होतें जख्म़
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कोंकणी भाषा से हिन्दी में चाक नाम से उपन्यास का अनुवाद
साझा संग्रह - कारवाँ, हिमतरू, प्रभाती , शत दल में कविताएँ शामिल