
औरत का दिल
ममता शर्मा
वह औरत का दिल तलाश रही थी। दरअसल एक दिन सुबह सवेरे उसने अख़बार में एक ख़बर पढ़ ली थी जिसके मुताबिक एक जानी-मानी पाक कला मर्मज्ञ ने अपनी पाक कला की एक पुस्तक के लोकार्पण के मौक़े पर यह कहा कि उन्हीं के शब्दों में ‘पुरूषों के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है।’ और तभी से वह औरत के दिल की तलाश में थी। इस बयानबाज़ी में वह जाना नहीं चाहती थी कि यह बात इस क़िस्म के पुरूषों पर खरी बैठती है और उस किस्म के पुरूषों पर नहीं बैठती है। यह बात उसने पहली बार नहीं सुनी थी और उसे यह भी मालूम था कि यह बात वह आख़िरी बार नहीं सुन रही है। उसने कईं औरतों के मुँह से यह कहावत सुन रखी थी, वे औरतें हर उम्र हर क्लास की थीं, वे औरतें उसके घर की थीं और बाहिर की थी; वे औरतें पढ़ी लिखी थी और बेपढ़ी लिखी थी; वे औरतें घरेलू थीं लेकिन ख़ास बात ये थी कि उन सब औरतों के स्वर एक जैसे थे। अक्सर उसे आश्चर्य होता कि औरतें अलग-अलग, फिर स्वर एक से कैसे ! वैसे उसकी तलाश अपनी उम्र के शुरूआती दौर में भी जारी थी। फ़र्क फ़क़त इतना था कि उन दिनों उसके पास शब्दों की ऐसी बाज़ीगरी नहीं थी कि इसे वह कोई नाम दे सके। उन दिनों वह बस कुछ कंफ्यूज़-सी रहने लग गई थी। उन दिनों उसने आलमारियों, रसोइयों, बर्तन, भांडों, चादरों, चूड़ियों और न जाने किस-किस जगह औरत का दिल तलाश किया था। उसने अम्मां की ऊँची आवाज़ सुनी तो उसे लगा यूरेका यूरेका। उन दिनों जब अम्मां सुबह-सवेरे नहाकर साड़ी लपेटते हुए गीता के अठारहवें अध्याय का महात्म्य पढ़ती तो उसे लगता शायद यहीं है औरत का दिल। अम्मां फिर आदमक़द शीशे के सामने खड़ी होकर बिंदी लगाती तो उसे फिर लगता औरत का दिल तो यहीं है। अम्मां मुंडेर पर बैठे कागे से ऐसे बातें करती जैसे वह घर का कोई , सदस्य हो, वह उसे उलाहने देती और कभी-कभी तो उसे उसकी शक्ल के बारे में कुछ ऐसा कहती जो शायद उसे भी महसूस हो जाता और तभी वह और ज़ोर से कांव-कांव करने लग जाता। इन सबके दौरान वह एक बार फिर सोच लिया करती कि यही तो है औरत का दिल। अम्मां आदमक़द शीशे के सामने खड़ी होकर बिंदी लगाते हुए और बाल संवारते हुए और चेहरे को कभी दायें और बाएं करते हुए अपने जूड़े को देखने की कोशिश करती। उन दिनों अम्मां के बाल काले थे और उसके काले जूड़े पर सफेद घुंघरुओं के पिन उसे अम्मां की पहचान लगते और उसे लगता यही सब ही तो है औरत का दिल और वह भी कुछ देर के लिए औरत बन जाती। वह मां की तरह बालों को कंघी से समेटने की विकल कोशिश करती और इन सबके दौरान उसे कईं बार बल्कि बार-बार लगता कि यहीं है औरत का दिल…।
वह तब छोटी ही थी और एक ऐसे स्कूल में पढ़ती थी जहाँ लड़के-लड़कियाँ एक साथ पढ़ते थे। लेकिन थोड़ी बड़ी होने पर उसका दाख़िला लड़कियों के स्कूल में हुआ। दोनों स्कूलों में एक क़िस्म का अंतर था, जिसे वह बयान नहीं कर सकती थी पर जिसे वह बड़े ही साफ़ तौर पर महसूस ज़रूर कर सकती थी। जहाँ सिर्फ़ लड़कियां पढ़ती थी वहाँ खुलकर हंसने की आवाज़ें आती और उसे लगता कि औरत का दिल यहीं है। जहाँ सिर्फ़ लड़कियां पढ़ती वहाँ कभी- कभी ऐसा भी होता कि लड़कियां हौले- हौले बातें करती जो दूर तक सुनाई तो नहीं पड़ती मगर जिनकी तफ़्सील में जाने के लिए कोई बहुत ज़्यादा दिमाग़ लगाने की ज़रूरत नहीं होती और जिनका लब्बोलुआब आसानी से समझा और महसूस किया जा सकता था। कमज़ोर आवाज़ में की जाने वाली बातों के
टॉपिक अक्सर वैसे होते जिन्हें खुलकर करना लड़कियां मुनासिब नहीं समझती थी और
बात यह थी कि वैसे तो वक़्त बदल रहा था और जिसे हम सोसाइटी कहते हैं उसमें
बहुत से लोग लड़कियों के खुलकर बात करने के पक्ष में थे, मगर लड़कियां थी कि कन्विंस ही नहीं होती थी और कमज़ोर आवाज़ में बातें करने से बाज़ नहीं आती थी और इसीलिए उसे लगने लगता था कि शायद लड़कियों का, यानि कि औरत का दिल… यहीं है।
कभी-कभी लड़कियां स्कूल की उस खिड़की के पास खड़ी होकर गुफ़्तगू करतीं जो बाहर सड़क की तरफ खुलती थी। उस गुफ़्तगू के कईं विषय थे जिनमें से एक था कि पांचाली का बाॅयफ्रेंड तय समय पर उस सड़क से गुज़रा करता। अक्सर लड़कियां ये सब करते हुए पकड़ ली जाती और सिस्टर प्रिंसिपल के पास 21वीं या 22वीं बार शिक़ायत पहुंचती कि स्कूल की चहारदीवारी को इस समर वैकेशन या उस बड़े दिन की छुट्टियों में ऊँचा करना बेहद ज़रूरी है। हालांकि खिड़कियों पर महीन जालियाँ थी और उन जालियों पर मज़बूत ग्रिल भी, जिसके आर-पार देखने वाले को चेहरे छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटे हुए ही नज़र आते थे; चेहरों को आपस में जोड़ना और फिर एक मुक़म्मल तस्वीर बनाना काफ़ी मुश्किल हुआ करता और वह सोच लिया करती कि औरत का दिल शायद …
लड़कियां हमेशा उलझन में रहती कि सिस्टर रोज़लीन संत क्यों हो गई। लड़कियां अलग-अलग और रंगीन कपड़ों में सिस्टर रोजलीन की कल्पना करती। सिस्टर रोजलीन को कान्वेंट में सब सिस्टर रोज़ कहकर पुकारते और दरअसल उनकी ख़ूबसूरती किसी गुलाब की तरह ही थी। वैसे ही कोमल और उतनी ही ख़ूबसूरत और उतनी ही गुलाबी। फिर एक दिन ख़बर आई कि सिस्टर रोज़ ने फाइनल वाउ से पहले अपना फैसला बदल लिया और वे नन नहीं बनी। लड़कियां उस दिन बहुत ख़ुश थीं । क्योंकि लड़कियां उन्हें संत नहीं होने देना चाहती थी क्या यहीं बसता है औरत का दिल… वह उस दिन सोचने लग गई थी।
हर साल स्कूल में एक एनवल फंक्शन हुआ करता जिसमें लड़कियां रंग-बिरंगी चुनरियां पहनती जिनपर सुनहरे बुँदे लगे होते; लड़कियां चुनरियां पहनती और पैरों में घुंघरू बांध कर इधर- उधर तेज़ी से आती जाती तो उनके घुंघरुओं की आवाज़ में एक लय और ताल होता जो दिल में उतर जाता; लड़कियां उस दिन बड़ी ख़ुश दिखाई देतीं तो वह सोच में पड़ जाती कि औरत का दिल…
एक दिन लड़कियां फिर कमज़ोर आवाज़ में बातें करने लग गयीं कि नौवीं क्लास में पढ़नेवाली पूर्णिमा का व्याह हो गया। लड़कियां उस दिन बहुत व्यस्त नज़र आई। लंच ब्रेक में सारी लड़कियां अपने-अपने तरीके से व्यस्त नज़र आई, कुछ उसे, यानी पूर्णिमा को ख़ास दूरी से और ख़ास कोणों से देखता चाहती थी; कुछ उससे ख़ास बातें करना चाहती थीं; कुछ चाहती तो बहुत कुछ थी लेकिन अपनी चाहना को वर्जित समझ कर दूर-दूर रहने को मजबूर थीं; कुछ व्यथित थी क्योंकि वे बचपन में ही जीना और रहना चाहती थीं । सिस्टर मारिया ग्रेस की पैनी नज़र, लड़कियों के बीच जो नहीं होता उसे भी सुनने और महसूस करने में माहिर थी। उनकी नज़र कान्वेंट के अंदर होने वाली हर हरक़त पर रहती थी। उस दिन वह थोड़ी कन्फ्यूज़ हो गई थी और उसे लगा कि लड़कियों के हर मूव में तो औरत का दिल तलाश किया ही जा सकता है और साथ ही सिस्टर मारिया ग्रेस के व्यवहार में भी तो एक औरत का ही दिल है…
कुछ ऐसी भी लड़कियां थी इर्द-गिर्द, जो फिजिक्स, गणित, इतिहास और भूगोल पढ़ती और झांसी की रानी या फिर पुष्प की अभिलाषा और कदम्ब का पेड़ जैसी कविताएं कंठस्थ करतीं । ऐसा करते हुए वे लड़कियां हेड सिस्टर की नज़रों में थोड़ी ऊपर उठ जाती। लड़कियों को हेड सिस्टर ने ‘ये लड़कियां’ और ‘वे लड़कियां’ जैसे खांचों में डाल दिया था और एक क़िस्म की लड़कियों को दूसरे क़िस्म की लड़कियों के सामने उदाहरण बनाकर पेश करना शुरु कर दिया था। उसे समझ नहीं आता था कि हेड सिस्टर ने लड़कियों को अलग-अलग खांचों में विभक्त क्यों कर दिया था। उसे हमेशा यह लगता था कि औरत का दिल तो कहीं भी हो सकता है, पहले क़िस्म की लड़कियों में या फिर दूसरे क़िस्म की लड़कियों में और इसमें ऐसी या वैसी बात कहां है ?
स्कूल के दिन जब ख़त्म हो गए तो सामने काॅलेज के दिन आ गए जहां हेड सिस्टर की बंदिशें नहीं थी। लड़कियां यहां लाइब्रेरी के बाहर बने सीमेंट के चबूतरे पर, फील्ड के किनारे लगे बेंचों पर, कैंटीन में, ऑडिटोरियम की सीढ़ियों पर या फिर ख़ाली क्लास रूम की लास्ट बेंच पर नज़र आती थीं। लड़कियां वहां रंग-बिरंगे कपड़े पहनती थीं; तरह-तरह के हेयर स्टाइल अपनाती थीं, कक्षा में आज़ादी की ख़ुश्बू -सी तारी थी और तब उसे लगने लग गया था कि बस तलाश अब खत्म समझो औरत का दिल…
उसने महसूस किया था कि काॅलेज में आकर अब लड़कियों की बदमाशियों में कुछ इज़ाफ़ा हो गया था; वे अब चुहलबाज़ियाँ करती थीं और उन्होंने सीटियां बजाना भी सीख लिया था। उनकी वोकैबलरी अब थोड़ी बोल्ड हो गई थी, मसलन अब वे कहा करती ‘बड़ी सेक्सी लग रही हो…’ लेकिन कुछ लड़कियां यहां भी सहमी हुई रहा करती; वे कम बोलती और उनकी नज़रें हमेशा सामने की तरफ रहा करती मानो इधर- उधर देखना उनकी आचार संहिता के ख़िलाफ़ हो; उनके कपड़े चुस्त नहीं होते और उनके बालों में ख़ुश्की भी नहीं होती। यहां लड़कियों को अलग-अलग खांचों में डालने वाला कोई नहीं था। लेकिन एक दिन अंग्रेज़ी की क्लास में ऐसा कुछ हुआ कि… दरअसल उस दिन गुणवंती अरोड़ा ने कुछ लड़कियों को इसलिए क्लास से निकाल दिया क्योंकि बकौल गुणवंती अरोड़ा ‘लड़कियां उनका लेक्चर ध्यान से नहीं सुन रही थीं, उनका ध्यान न जाने कहाँ था! और वे हौले-हौले मुस्कुरा भी रही थी।’ गुणवंती अरोड़ा ने यह भी कहा कि ‘इन कुछ लड़कियों के ऐसा करने से बाक़ी लड़कियों का भी ध्यान भंग होगा।’ इसलिए ‘उन लड़कियों’ को बचाने के लिए उसने ‘इन लड़कियों’ को बाहर निकाल दिया था। उसे लगता था कि लड़कियों को इस क़दर ‘इन लड़कियों’ और ‘उन लड़कियों’ में बांटना वाजिब नहीं था और फिर वही बात कि औरत का दिल तो कहीं भी हो सकता है…
फिर एक दिन कुछ अलग सा कुछ हुआ। सेकेंड ईयर की गीता इस्सर के लिए लड़कियां आहें भरने लग गईं। गीता इस्सर के घरवालों को उसके लिए लड़का मिल गया था और उन्हें डर था जब वह डिग्री लेकर निकलेगी तो इतनी बडी और क़ाबिल हो जाएगी कि लड़का मिलने में दिक़्क़तें पेश आएंगी। यह सब वैसे तो लड़कियों की समझ से बाहर था लेकिन लड़कियां इतनी नासमझ भी नहीं थी। वे ज़ोर-ज़ोर से आहें भर रही थीं। उनकी ये आहें काॅलेज के गलियारों में सुनाई दे रही थी; उनकी आहें गलियारों की ऊँची-ऊँची छतों से टकरा-टकरा कर बिखर रही थी और उनकी आहें लाइब्रेरी के बुकशेल्फों के बीच की ख़ाली जगहों में भर जाया करती थीं। गीता इस्सर के चेहरे पर कुछ ही दिनों काली लकीरें भी जमा हो गई और लोग कहते थे कि उसे खून की कमी हो गई है। इस सबके दौरान वह बार-बार औरत का दिल तलाश करती रही थी।
इतने दिनों में एक और बात जो उसे खास लगती थी वह ये थी कि औरत का दिल ढूंढ़ने के लिए हमेशा ऊपर की तरफ देखने की जरूरत नहीं थी जैसे कि हमेशा किसी इंदिरा नूई या फिर इन जैसी ही ऊँचाई पर पहुँची हुई औरतों को देखने की ज़रुरत नहीं थी। उसे लगता था कि औरत का दिल कहीं भी किसी क ख ग और घ में क्यों नहीं तलाश किया जा सकता है।
मसलन क का केस देखें …
क छह बेटियों को जन्म देने के बाद घर से बेदख़ल होने की लड़ाई में जीत हासिल कर चुकी थी। क की तुलना किसी सफल उद्यमी से की जा सकती है, क्योंकि यह लडाई किसी जोखिम भरे उद्यम से कम न थी। एक समय तो ऐसा भी आया जब जान जाने का पूरा ख़तरा था। असल में छह बेटियां होने की वजह से क के घरवाले पति की दूसरी शादी की तैयारी कर चुके थे। फिर एक दिन उसने अपना घुंघट हटा कर आसपास की दुनिया को देखा और अपनी आवाज़ में ज़रा दम भरा। क की घटना को सुनकर उसे थोड़ी राहत मिली थी। उसने मजाज़ का शेर एक कागज़ पर लिखा कि ‘तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था’ उसने उस काग़ज़ को अपनी मेज़ के कांच के नीचे डाल दिया था । क ने अपनी बेटियों को अपनी ताक़त बना लिया था। अम्मां हमेशा कहा करती थी कि गुंथे हुए सर पर हर कोई हाथ फेरना चाहता है। क ने जब से बेटियों को अपनी ताक़त बना लिया था उसके हालात अच्छे होने लग गए थे। उसके घरवालों की शिकायतें अब तारीफ़ में बदल गई थी। लेकिन हर केस क की तरह सफल नहीं हो सकता।
ख का केस कुछ अलग ऐसे था कि उसके घर के हालात अच्छे थे; वह खुद पुलिस की नौकरी में थी और उसकी दो बड़ी प्यारी बेटियां थीं, लेकिन घर के बड़े बुज़ुर्गों ने एक दिन ख के पति का रिश्ता तय कर दिया क्योंकि उन्हें एक वारिस की ज़रूरत थी और इन सब बातों में उनकी क़तई दिलचस्पी नहीं थी कि दो प्यारी बेटियां भी तो वारिस ही हैं। बहरहाल कुछ लोगों ने उसे साइड से यह सलाह भी दी थी कि ऐसे बेशर्म लोगों के लिए ही तो दरअसल क़ानून के दरवाज़े खोलकर रखे गए हैं लेकिन ख के दिल में कोई भी ज़रुरत भर हिम्मत नहीं जगा पाया था। ख ने भांडे-बर्तन पटके और बंद दरवाज़ों पर अपना सर पटका; ख खुले बालों में घर से बाहर सडकों पर बदहवास सी दौडी; ख अपने दफ़्तर के अफ़सरों से मिली, लेकिन ख के ससुर ने उसे साफ़-साफ़ हिदायत दे दी कि यह शादी तो होकर रहेगी और अगर ख को यह पसंद नहीं है तो वह जा सकती है। यह एक अजीब- सी कहानी थी। ख के पास वह सब कुछ था जो एक औरत को ताक़तवर बनाता है लेकिन उसके पास बहुत कुछ नहीं था… और वह अपनी लड़ाई हार गई। उसे लगता है कि औरत का दिल यहां क्यूं उलझा हुआ है; उसे लगता है कि ख जिसे लड़ाई समझ कर ख़ुद को हारा हुआ महसूस कर रही है क्या वाक़ई वह कोई लड़ाई है… लेकिन ख को समझाना इतना आसान नहीं है। अब वह वहीं एक तरफ़ दो कमरों के घर में रहती है; अपनी लड़कियों के बालों को कसकर बांधती है; उन्हें सवेरे स्कूल भेजती है और ख़ुद ड्यूटी पर जाती है। मगर ख ख़ुश नहीं रहती है। वह ख के बारे में सोचती है और उसे लगता है कि औरत का दिल किसी सूखे हुए पेड़ की ऊँची टहनी पर अटका हुआ है जिसे देखा तो जा सकता है लेकिन उतारा नहीं जा सकता।
ग की कहानी इन दोनों से अलग है उसके पास स्टेटस है, कार है, बंगला है, एक सफेद पामेरेनियन कुत्ता है और रहने का ढेर सलीका है। मोटे तौर पर कह सकते हैं ग के पास भी वह सब कुछ है जो किसी औरत को ताक़तवर बना सकता है पैसा, शोहरत एक मज़बूत परिवार और अक़्ल भी।
ग को देखकर वह वाक़ई बहुत ख़ुश हुई थी। उसे लगा था थोड़ा-सा ही सही मगर कहीं तो मिला… औरत का दिल… उसे खुश हुए थोड़ा ही अरसा हुआ था जब उसने एक दिन देखा ग कुछ छुपाने की कोशिश में लगी है। उसके कान खड़े हो गए। उसने ग को बहुत कुरेदा बहुत फुसलाया बहुत बहलाया लेकिन ग ख़ुशी का ही इज़हार करती रही। दरअसल उसने ग़ौर किया एक दिन कि अपने बाएं कंधे से थोड़ा ऊपर गर्दन जहां शुरू होती है वहां ग अपने दुपट्टे को कसकर लपेट लेती है और ग का पूरा ध्यान जैसे दुपट्टे को कसकर लपेटने में लगा हुआ है। ग की दुपट्टा लपेटने की इस जद्दोजहद में कोई राज़ है क्या? वह ग से इशारे- इशारे में ही पूछती है… ‘वहां क्या’… जवाब में ग दो तीन बार पलक झपकाती है मानो कुछ साफ़ दिखाई न दे रहा हो… उसे लगता है ग की इस भावना का सम्मान किया जाना भी तो ज़रूरी है। कुछ पल के लिए उसे यह भी लगता है कि शायद औरत का दिल…
उसे फिर भी शक नहीं होता अगर ग के उस निशान का रंग नीला नहीं होता। ग के पास सब कुछ ऐसा था जिसे देखकर ईर्ष्या हो सकती है मतलब कि कुछ ऐसा लग सकता है कि ज़िंदगी हो तो ऐसी ही… इस बार उसे लगा था कि कितना अच्छा होता अगर औरत का दिल इस बार उसे मिल पाता और यह भी कि कितना सुक़ून है ग की ज़िंदगी में …!
‘आजकल इसे डोमेस्टिक वायलेंस का नाम दिया गया है।’ एक दिन ग ने ख़ुद ही बात की शुरूआत की थी।
“हाँ तो क्या आपको इसके ख़िलाफ़ कुछ कहना नहीं चाहिए ?” उसने कहा था।
शायद कुछ बातें क़िताबों में ज़्यादा आसान लगती हैं… ग ने उत्तर दिया था । कुछ दिनों बाद उसने दुपट्टे को कसकर लपेटना छोड़ दिया था। उसने देखा अब वहाँ कोई निशान नहीं था।
‘घ’ का क़िस्सा तो बिल्कुल ही अलग था। पहली बार उसे लगा था कि ऐसी ही किसी जगह औरत के दिल को होना चाहिए। ‘घ’ की ज़िन्दग़ी बड़े कामों के लिए थी। वह बड़ी-बड़ी बहसों में भागीदार बनने की कोशिश करती थी; वह सरोकार वाली फिल्में देखती और उनसे असहज भी हो जाया करती थी। वह ख़ाली जगहों को पेड़ों से भरना चाहती थी और सर्दियों में ग़रीबों में कम्बल बांटना चाहती थी। वह कुछ दूसरी औरतों के लिए दिल में जगह रखती थी। वह जैसे चाहे वैसे चलने और रुकने की ताक़त रखती थी; वह जैसे चाहे बोलने और चुप हो जाने की ताक़त भी रखती थी…
तो यहाँ है औरत का दिल… पूरी तरह दिखाई देने वाला मज़बूती से धड़कता हुआ… उसे लगा था बिल्कुल साफ़ दिख रहा है कि यहाँ औरत का दिल है और अपनी पूरी ताक़त के साथ अपना वजूद लिए हुए दिखाई दे रहा है। फिर उसने माॅरल ऑफ़ द स्टोरी निकालने की कोशिश की थी और इस नतीजे पर पहुँची थी कि औरत का दिल तो इन सभी के पास था। मतलब क, ख, ग, घ, सिस्टर रोज़, मारिया ग्रेस और खिड़कियों के क़रीब कमज़ोर आवाज़ में बातें करती लड़कियों के पास, कैंपस में यहां-वहां घूमती और बैठती लड़कियों के पास, गीता इस्सर के व्याह की सुन आहें भरती लड़कियों के पास… मगर दिखाई नहीं देता था। शायद इसकी वजह यही थी कि उन सबके दिल की धड़कन थोड़ी फ्रेजाइल हो गई थी या फिर वे चाहती ही नहीं थी कि दिल जैसी किसी चीज़ का पता लोगों को लगे या फिर उन्हें पता ही नहीं था कि देह के अंदर दिल जैसी कोई चीज़ भी होती है…!
‘कई दिनों से आपसे एक बात पूछना चाह रही थी अम्माँ…’ उसे मन हुआ था एक दिन अम्मां से सवाल करने का और उसने पूछा था अम्मां से।
‘मां मुझे एक चीज़ की तलाश है बड़े दिनों से और वह मिल नहीं रही।’
‘कौन सी चीज़।’
‘औरत का दिल’
उसने अम्मां कोे हमेशा पल्लू में ही देखा था। जब कभी अम्मां के सर से पल्लू गिरता तो उनके हाथ बड़े ही स्वाभाविक तरीके से पल्लू की तरफ़ चले जाते और वह पल्लू को वापस सर पर खींच लेती। उनके सर पर पल्लू होना उतनी ही स्वाभाविक-सी बात थी जितनी गिरे हुए पल्लू को तुरंत वापस अपनी जगह पर कर देना… पल्लू कभी उनके लिए परेशानी का सबब रहा हो— ऐसा उन्हें देखकर कभी नहीं लगा।
जिस समय उसने सवाल किया उस वक़्त अम्मां दहलीज़ से बाहर निकल कर चारदीवारी के पास लगे तुलसी के पेड़ में पानी देने जा रही थी और उसके हाथ में एक लोटा था। उसका सवाल सुनकर अम्मां ने इस तेज़ी से पीछे मुड़कर देखा कि उनका पल्लू बेतरतीब होकर सर से हट गया और अपने होशोहवास में पहली दफ़ा उसने देखा कि अम्मां ने हटे हुए पल्लू को वापिस अपनी जगह पर लाने की कोई कोशिश नहीं की। वह अपने सवाल से कम और अम्मां की इस बात से ज़्यादा भयभीत हो गई थी।
“औरत का दिल … हूँह … अब तो मुझे लगता है वह है भी या नहीं उसके अंदर…. मुझे तो एनाटाॅमि ही बदल गई लगती है…”
उस दिन अम्मां बिना पल्लू ही बाहर निकल गयी थी!
… तो क्या वह सब झूठ था? अम्मां का नहाकर साड़ी लपेटते हुए गीता के अठारहवे अध्याय का महात्मय बांचना और आईने के सामने खड़े होकर मत्थे पर बिंदी लगाना… और फिर तुलसी को भर लोटा पानी डालना और जोत जलाना जो देर तक जलती रहे… और भी वह सब कुछ करना जो वह पिछले 25-30, 31 या 35 बरसों से करती आ रही थी….
‘तू एक्जीबिशन में जाती रहती है न … कहीं तुलसी के लिए सुंदर-सा पाॅट दिखे तो मेरे वास्ते एक लेती आना… आजकल सुना है बड़े सुंदर-सुंदर निकले हैं वो सृष्टि की मां है न वह बता रही थी…’
अम्मां बिल्कुल नार्मल थी… बिल्कुल ही नार्मल !
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ममता शर्मा
जन्म स्थान: नासिक महाराष्ट्र
रचनाकर्म:
हंस, कथादेश, वागर्थ, कथाक्रम, परिकथा, साहित्यअमृत, शब्दयोग, ककसाड़, जनपथ, स्त्रीकाल ,मलयजब्लॉगस्पॉट, अक्षरपर्व, हिंदी समयडॉटकॉम, अभिनव मीमांसा , हिंदी प्रतिलिपि, अंतरंग पत्रिका, किरण वार्ता, कलमकार वार्षिक पत्रिका ,कथा समवेत , नया साहित्य पत्रिका, विभोम स्वर पत्रिका, लिटरेचरपॉइंट डॉट कॉम, काव्यांजलि ई पत्रिका, हस्ताक्षर वेब पत्रिका, पुरवाईडॉटकॉम, परिंदे पत्रिका, कृति बहुमत, आजकल,अन्विति में कहानियां प्रकाशित
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