
चुप्पी प्रेम की भाषा है रंजीता सिंह फलक जी का नवीनतम कविता संग्रह है जो वाणी प्रकाशन से छपकर आया है और फरवरी के विश्व पुस्तक मेले में विमोचित हुआ है। इस संग्रह से गुजरते हुए जो बातें रंजीता जी की कविताओं को पढ़ते हुए उल्लेखनीय और मानीजखेज लगीं उसमें पहली बात तो यह है कि रंजीता जी की कविताओं में प्रेम के विभिन्न शेड्स हैं और वे हर शेड में प्रेम को नए सिरे से परिभाषित व स्थापित करती हैं। इस कविता को देखिए –
कितना मुश्किल है
पीठ फेर कर रहना
और
मन को साधना,
बहुत मुश्किल है बच पाना
स्थिर रह पाना
जब प्रेम किसी आपदा-सा
अवतरित हो
मुझे कुछ आगे बढ़कर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि प्रेम और करूणा रंजीता की कविताओं के स्थायी भाव हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वहाँ संसार नहीं है, है और पूरी गरिमा और गुरूत्वबल के साथ है – यदि यह न होता तो ये कविताएँ महज प्रेम कविताएँ होकर रह जातीं। रंजीता जी की कविता की ताकत यह है कि प्रेम के साथ चलती हुई जो दुनिया है वह कविता में इस तरह अनुस्युत है जैसे जीवन में जीवन। एक उदाहरण देखिए –
चुप्पी प्रेम की भाषा है
शायद इसीलिए संसार की
सबसे सुंदर प्रेम कथाएँ कहीं दर्ज न हो सकीं
इतिहास की जितनी भी
प्रेम कथाएँ हमने पढ़ी हैं
उससे कहीं ज्यादा कहानियाँ
चुप्पियों की अबूझ लिपि
में दर्ज हैं
जो आज तक न पढ़ी गई
न सुनी गई
बहरहाल आज रंजीता जी का जन्मदिन है और अनहद कोलकाता उनके जन्मदिन पर उनके सद्यप्रकाशित संग्रह चुप्पी प्रेम की भाषा है से कुछ चुनी हुई कविताएँ आपके साथ साझा करते हुए उन्हें ढेरों बधाइयाँ दे रहा है – आपकी राय की प्रतीक्षा तो हमेशा की तरह रहेगी ही।
पावस ऋतु प्रेम की कराह है
कितना मुश्किल है
पीठ फेर कर रहना
और
मन को साधना,
बहुत मुश्किल है बच पाना
स्थिर रह पाना
जब प्रेम किसी आपदा-सा
अवतरित हो
कितना मुश्किल है
सुने को अनसुना करना
जब हृदय की हर साँस तक
पहुँच रही हो प्रेम की आतुर पुकार
कितना मुश्किल है
उन आँखों को अनदेखा करना
जो विदा के वक्त निर्निमेष निहार रही हों
कैसे न डूब जाए कोई आकंठ
उन उदास,आप्लावित आँखों में
सच तो ये है कि
ज़िंदगी से मुँह मोड़ने से भी कठिन है
प्रेम से मुँह मोड़ना
नैतिकताओं और कामनाओं के मध्य हुए
हर आदिम युद्ध में
पराजित हुआ है सिर्फ और सिर्फ
प्रेमाकुल हृदय
प्रेम की त्वरा को नैतिकता के
घोर हठ से परास्त तो किया जा सकता है
पर निषेध की गई समस्त कामनाएँ
धँसी रह जाती हैं देह में शूल-सी
आजन्म टीसता है हृदय
पावस ऋतु
प्रेम की चुप-सी कराह ही तो है
सब भंगुर है, नश्वर है सब
फिर भी कैसे विस्मृत हो
तुम्हारी दैवीय मुस्कान
तुम्हें आँख भर भी तो देखा नहीं था
पर तुम्हारी निश्छल मुस्कान के बीच दिखती
त्रियक धवल दंतपंक्ति
मेरी निद्रा का अब भी मखौल उड़ाती है
स्मृतियों की गाढ़ी गेह से कैसे मुक्त ये मन प्राण
तुम्हें एकटुक देखने भर से
लगता है
देह पर अशुद्धि का दोष
तुम्हारी सुधि भर से
आ लगती हैं लांक्षनाएँ
कल रात ही तो स्वप्न में
तुम्हें देखा था
वहीं उसी तकिए पर जहाँ
घोषित रूप से किसी और का सर था
लोकाचारों और मर्यादा के
असमंजस में डूबा हृदय
कहाँ विसर्जित करे
अपनी निश्चल चाहनाएँ
किसे प्रेषित करे
सारी उलाहनायें
मृत्यु निश्चित छीन लेगी
मेरी आँखों के सारे स्वप्न
पर शेष तो रहेंगी
हृदय की अतृप्त कामनाएँ
क्या ब्रह्मांड में नहीं गूँजेगी
मेरी आर्त पुकार
एक निष्कलुष हृदय की
निर्दोष कामना से
क्या खंडित नहीं होगा
नियति का दर्प।
युद्ध और वसंत
किसी वसंत
उसने हथेलियों पर
लिखा मेरा नाम
और
उस बरस
मन के आँगन में
खिल उठे ढेर सारे फूल
ख़्वाहिशें
पार कर आईं
प्रतिबंधों के सारे छोर
और
किसी ढलती रात जब
उसने लिया
मेरा नाम
एक उनींदी-सी
थरथराती आवाज़ में
तब
काँप कर पलटे
सारे लम्हे
ख़लाओं में गूँजा
एक अस्फुट स्वर
जैसे
ताबीज बाँधते हुए
पढ़ी जाती है
कोई आयत
या फिर
कलाई पर
पूजा के बाद
बाँधा जाता है
कोई शुभ धागा
और
धीमे से उचारा जाता है
कोई मंत्र
जैसे कोई जाप
कोई प्रार्थना
कोई आरती
कोई अरदास
कोई नमाज़
कोई अजान
किसी जाड़े में
पहाड़ की सुफेद चादरों पर
उसने जब उकेरा मेरा नाम
तो
इश्क की तपिश में
पिघल- सी गई
सारी वादियाँ
और
आसमान से मन्नतों की तरह बरसी
कपास-सी हल्की बर्फ
किसी साल
जब सब कुछ हो रहा था
तहस-नहस
युद्ध, आतंक और
विस्फोटों के शोर में
जब डूबी थी दुनिया
उस लम्हे
ज़िन्दगी के नाशाद पलों में
मुझसे मीलों दूर
मेरे भीतर की उम्मीद को
बचाये रखने के लिए
उसने जोर-जोर से लिया
बेसाख्ता मेरा नाम ..
तभी
बज उठी
गिरिजाघर की घंटियाँ
और
हवाओं में गूँजा मेरा नाम
मद्धम धुन में गाये गए
किसी प्रेमगीत की तरह
और जब
इस वसंत
मैंने पुकारा है उसे तो
मेरे पास आई हैं –
बुलबुल की चहचहाहटें
फूलों की भीनी खुशबू
वादियों की ठंडी हवाएँ
इन्द्रधनुष के सपनीले रंग
ओस में धुली सुनहरी सुबह
और
मेरे हाथों में
काँप रहा है
अंतिम विदा का
आखिरी ख़त
अब, जबकि
मैं जानती हूँ
किसी भी वसंत
वो नहीं पुकार सकेगा
मेरा नाम
फिर भी
हर वसंत मैं करती हूँ उसे याद
और पुकारती हूँ उसका नाम
किसी कब्र के पत्थर पर खुदे
आख़िरी हर्फ़ की तरह
मेरे दिल पर चस्पां है
उसका नाम ।
आजन्म बिछोह
होना तो ये चाहिए था कि
पिछली हजार यात्राओं की तरह
इस यात्रा के बाद भी
मैं उसी उल्लास से
डायरी लिखती
तस्वीरें निहारती
और
लिखती यात्रा वृत्तांत
की सुंदर शृंखलाएँ
पर इस दफा
लौटने के बाद
न तो तस्वीरें देखीं
न डायरी के पन्ने खोले
लौटा हुआ मन
जाने क्यों इतना उचाट
विकल और थका-थका सा है
मेरे जूड़े के बाएँ कोने पे
जहाँ मौसमी फूलों के गुच्छे
मैंने खोंस लिए थे
ठीक वहीं एक जोड़ी उदास आँखें टँगी हुई
महसूस हो रही हैं
आषाढ़ के मध्य की
और भी तो यात्राएँ की हैं मैंने
पर विगत किसी भी आषाढ़ में
स्मृतियों के जल जमाव ने
मुझे यूँ आतंकित नहीं किया
मेरे पास तो किसी प्रतीक्षा की नाव भी नहीं
न ही किसी के दिए वचनों की
कोई छतरी है
क्या करूँ
मुझे तो ठीक तैरना भी नहीं आता !
इस साल की यात्रा में उमड़े इस सैलाब से
कैसे निजात पाऊँ?
मुझे याद है बचपन में
माँ पानी वाली जगहों से
मुझे दूर ही रखती थी
पता नहीं ज्योतिषी ने
क्या अशुभ उचारा था !
अगर मुझे ठीक -ठीक
पता होता कि
मेरे प्रारब्ध में किस यात्रा के बाद
डूब कर मरना लिखा है तो
यकीनन मैंने
स्थगित कर दी होती
अपनी सारी यात्राएँ
पर प्रेम के घात से कौन बचा है
वह तो हमेशा
ऐसे हीं दबे पाँव आता है
और
हमें संभलने का मौका दिए बिना
हमारा ग्रास कर जाता है
आषाढ़ की मृत्यु का शोक क्या करना
शोक तो बस उन उदास आँखों का है
जिनके प्रारब्ध में कोई मिलन नहीं
शायद
अगली मुलाकात भी नहीं
बस
आजन्म बिछोह लिखा है ।
विरह
विरह मुझे बहुत व्यथित करता है
फिर भी
तम ऐसे प्रेमपत्र न लिखा करो
जिसे पढ़ते ही बमुश्किल
छुपाया गया प्रेम
किसी संक्रमण की तरह
एकाएक प्रकट हो जाए
तुम मेरी याद में
इतनी सुंदर कविताएँ भी
न लिखा करो
क्योंकि
तुम्हारा लिखा हुआ पढ़ते ही
धक्क् से हो जाता है दिल
जाने कितनी लंबी
हो जाती है साँस
आम के बौर-सी नाजुक
हो जाती हैं भंगिमाएँ
और
इच्छाएँ
हरसिंगार-सी झरने को आतुर…
डरती हूँ
कि कामनाओं के ज्वार से
कैसे बचूँगी शेष
डर से ज्यादा लाज का बोझ है
और ये जो लज्जा है न
रक्तिम कर देती है
मेरा सर्वस्व
जेठ की दुपहरी में जो सूरज
तुम्हें स्पर्श कर रहा है न
वो मेरी ही कामनाओं की
ऊष्मा से
धधक रहा है
उसने मेरी ही लज्जा की लालिमा
और देह की दाह चुराई है
पिछले माघ
जब हाड़ हिलाने वाली ठंड में
मैं तुम्हारी स्मृतियों की जुराबें डाले
कल्पनाओं की सलाई पर
सपनों का स्वेटर
बार बार बुन-उधेड़ रही थी
तब आधी रात अजीब सी तपिश से
खौल उठता था एकांत
तुम्हारे नाप की स्वेटर बुनते हुए
जब भी सीने के ऊपर
कांधे के फंदे घटाते हुए
याद करती थी
तुम्हारा सीना
तो घने रोयों से भरे उस जंगल में
गुम हो जाते थे सारे फंदे
तुम्हारे सीने के जंगल में खिले
अपने ही होठों के फूल मुझे
चकित किए देते थे
मेरे नथुनों में भर उठती थी
तुम्हारी मादक देहगंध
उस जंगल से लौटते हुए
मेरे साथ बची रहती थी
प्रणय की सुंदर स्मृतियाँ
माघ की घनघोर शीतरात्रि में भी
मेरे पोर-पोर में चढ़ आता था
एक अजीब सा खुमार
किसी गुमज्वर की शक्ल में
उन ठंडी रातों में भी
पसीने से भींग जाती थी
मेरी पेशानी
उनींदी रातों की
अर्ध चेतना में
तुम्हारी पीठ पर सर टिकाए
लंबी रात काटना भी
एक स्वप्न ही था
फागुन से चैत
और चैत से वैशाख
आते-आते
न देह का ज्वर गया
न मन का ताप
तुमसे मिल पाने के
हर अधूरे यत्न के बाद ..
जेठ की दुपहरी और रातें
इस उम्मीद में बीत रहीं कि
भस्म होने का इससे अच्छा महीना
और कौन सा होगा।
आकुल हृदय
सोचती हूँ
कि क्या तुम्हें न देखने भर से
मिट जाएँगी तुम्हारी स्मृतियाँ
हृदय के कपाट बंद कर देने भर से
क्या कभी नहीं आयेगी
तुम्हारी सुधि की सुवास
मर्यादा के किसी भी अभेद्य किले में
कैद कर लूँ खुद को
पर क्या कभी
इतनी बहरी हो सकूँगी
की न सुन सकूँ
प्रेम की पदचाप
मेरे चित्त में असंख्य उठते प्रश्नों का
कोई उत्तर नहीं है मेरे पास
मेरे पास है बस एक आकुल हृदय
और उसकी असीम अधीरता
जो संसार के तमाम लोकाचारों को
विस्मृत किए देती है
तुम्हारे प्रथम दृष्टिपात से
मेरी काया में जो एक क्षीण-सा
सुराख हुआ है
उसे विस्मृति की किसी भी मिट्टी से
भरा नहीं जा सकता ।
चुप्पी और प्रेम
तुम्हारी चुप्पी
टेराकोटा की उस नर्म मिट्टी की तरह है
जिस पर मैं प्रेम के
कई सारे अर्थ उकेरती हूँ
और गढ़ती रहती हूँ
प्रेम के नए-नए प्रतिमान
तुम चुप ही रहो
क्योंकि
तुम्हारे अबोले से मैं
चुपचाप
चुन सकती हूँ
प्रेम के वो ढेर सारे बोल
जो ज़ाहिर तौर पर तुम मुझसे
कभी नहीं कहोगे
चुप रहना अच्छा है
क्योंकि
चुप्पियों के कई मायने
अपने हिसाब से
निकाले जा सकते हैं
पर कही गई बात का
बस एक ही मतलब होता है
चुप्पी प्रेम की भाषा है
शायद इसीलिए संसार की
सबसे सुंदर प्रेम कथाएँ कहीं दर्ज न हो सकीं
इतिहास की जितनी भी
प्रेम कथाएँ हमने पढ़ी हैं
उससे कहीं ज्यादा कहानियाँ
चुप्पियों की अबूझ लिपि
में दर्ज हैं
जो आज तक न पढ़ी गई
न सुनी गई
तुम्हें सोचते हुए
कुछ भी कहने-सुनने से ज्यादा
मैंने पढ़ा तुम्हारा मौन
और आश्वस्त हुई कि
सबसे सुंदर और कालजयी है
अघोषित प्रेम ।
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रंजीता सिंह “फ़लक” युवा कवि संपादक एवं एक्टिव्स्ट हैं। फिलहाल दिल्ली और देहरादून में उनकी रहनवारी है।
संपर्कः kavikumbh@gmail.com