पहली तनख़्वाह
विनीता बाडमेरा
आज फिर उदासी तारी है,यह उदासियां जाती नहीं।करूं तो क्या? कितना मोबाइल,कितना टीवी अब तो इन सबसे भी मन उचट गया है।” उसने मोबाइल से नजरें हटा कर खुद से कहा।
“ वे चीजें जिन पर पहले-पहल यह मन आकर्षित होता है उन्हीं से धीरे-धीरे बोरियत होने लगती है। इंसानों के साथ भी क्या कुछ ऐसा ही करते हैं हम। शुरुआत का आकर्षण बाद में विकर्षण में बदल जाता है।” मन फिर कुछ अनर्गल बातें करने लगा। उसने मन को रुकने को कहा और समझाया कि वक़्त देख कर इन बे-सिर-पैर की बातों के जाल में उलझाए,फिलहाल वह कहीं और उलझा है।
टेबल पर आज का अख़बार रखा था।एकबारगी उसके भीतर से आवाज़ आयी, समय व्यतीत करने के लिए कुछ देर वह अख़बार ही पढ़ लें पर अख़बार में भी वही घिसी-पिटी खबरें होंगी। वैसे तो उसके कमरे की वार्डरोब में एक से एक कई शानदार अंग्रेजी नॉवल हैं। फिर इन दिनों उसका यह मन कहीं भी निकल जाता है और जरा देर के लिए भी अख़बार या किताब पर उसकी नज़रें तक ठहरती नहीं, मन तो फिर हवा के वेग- सा है भला कैसे टिकेगा।
उसकी कॉलोनी में बने छोटे से पार्क में बच्चे खेलने आते हैं। उनके मध्य हो रहे शोर की आवाज़ें उसके कानों तक भी पहुंचती हैं। कुछ दिनों पहले तो वह कभी-कभार क्रिकेट खेलते इन बच्चों के साथ बच्चा बन भी जाता पर इन दिनों उसे लगता कि वे बच्चे हैं और वह बच्चा तो नहीं। एक बार फिर हाथ में फ़ोन लेकर कांटेक्ट लिस्ट में कुछ खोजने लगा लेकिन माथे पर शिकन उभर आयी।कांटेक्ट लिस्ट वाले लोगों की अपनी श्रेणियां हैं। वह इन श्रेणियों में कुछ खास लोगों के नाम को देख फिर कुछ बुदबुदाया।
“ दुःख का बोझ खुद का है फिर उठाने के लिए किसी और का कंधा ही क्यों ये निगाहें तलाशती हैं?”
थोड़ी देर बाद ही उसे लग रहा था जैसे वह बहुत थक गया, जबकि वह जानता था कि उसने काम जैसा कुछ किया नहीं है। इन दिनों बस उसके लिए काम का अभिप्राय सिर्फ़ और सिर्फ़ नौकरी से है।
वह अपने कमरे में गया और स्टडी टेबल पर रखे लैपटॉप को उठा कर उसी हॉल में रखी सेंटर टेबल पर रखा जिस पर अभी भी अख़बार और चाय के खाली कप रखे थे। उसने ध्यान से देखा चाय के खाली कप की तली में चाय सूख चुकी है।उन कपों को उठाकर उसने ट्रे में रखा और किचन में ले जाकर सिंक में पड़े दूसरे झूठे बर्तनों के साथ पानी भर कर रख दिया।एक बार सूख जाए पौधे, बर्तन या रिश्ते तो बहुत तकलीफ़ उठानी पड़ती है उन्हें हरा करने, साफ़ करने या रिश्तों में फिर नमी लाने के लिए।
मम्मी किचन में सब्जी काट रही थी। इन दिनों वह मम्मी की नज़रों से भी न जाने क्यों बचने की जुगत में लगा रहता है। इसलिए तेज कदमों से हॉल में चला आया, उसे लगा कि धीरे क़दम मम्मी के हाथों में आ सकते हैं और मम्मी के हाथों की पकड़ बहुत मज़बूत है। बचपन में मम्मी पढ़ते समय उसके आस-पास रखा वीडियो गेम एक बार जो ले लेती मज़ाल है,उसके एक्ज़ाम ख़त्म होने से पहले दे दे। वह कितना भी रो -धो लें। पढ़ाई का मतलब बस पढ़ाई होता था। इसलिए मम्मी खुद उसके पास बैठती, परीक्षा के पहले सारे पाठ सुनती और तो और उसके स्कूल के आने से पहले प्रश्न-पत्र तक बना कर तैयार रखती।उसी का हासिल था क्लास में फर्स्ट आना, सभी टीचर्स का चहेता होना, घर में भी धाक होना और दूसरे बच्चों की नज़रों में भी सबसे ऊपर होना। उसे मम्मी पर बेपनाह प्यार उमड़ आया। सुबह नाश्ते में हमेशा स्पेशल बना कर देने से लेकर उसकी किताबों के कवर लगाने, यूनिफार्म प्रेस करने का काम तो मम्मी के जिम्मे था ही साथ ही स्कूल से आते ही उसकी बक-बक भी तो मम्मी ही सुनती। फैंसी ड्रेस हो या कविता प्रतियोगिता, मम्मी ही तैयारी करवाती। जीत जाने पर माथा चूम लेती और जो कभी हार भी गया तो कंधा थपथपा, गले लगा यह कहती ,” प्रतियोगिता ही तो है हार-जीत तो चलती रहेगी।” और उसका मायूस मन खिलखिला उठता।
जब वह कॉलेज पढ़ने वैल्लोर गया तो मम्मी कितना रोयी और जब भी छुट्टियों में घर आता तो लौटते में कितना कुछ पैक कर देती जो कि उसके सहपाठी कुछ घंटों में ही चट कर जाते। पर इन दिनों मम्मी कुछ बदली-बदली है। हमेशा उखड़ी रहती है,बात-बेबात उस पर रोक-टोक।यह सब देख वह उकता जाता है। उसका मन होता कि मम्मी के पास बैठ कर कुछ कहे लेकिन उसका कहना मम्मी सुनेगी या नहीं उसे पता नहीं इसलिए वह कुछ अधिक कहने- सुनने की इस स्थिति से बाहर ही हो जाता।
खैर, किचन से आते ही वह सोफे पर बैठ गया और लैपटॉप खोल लिया।कितनी ही जगह नौकरी के लिए अप्लाई किया शायद कहीं से कुछ अच्छी खबर हो, इस उम्मीद से। पर उम्मीद का बड़ा पहाड़ रोज़ की तरह ढह गया। अच्छी खबर कहीं भी नहीं और बुरी खबर फ़िलहाल एक ही है जिसे वह जानता था। लैपटॉप शट डाउन किया और टेबल पर रख मोबाइल लेकर घर से बाहर निकलने के लिए पैरों में स्लीपर पहन ही रहा था तभी –
“ कहां जा रहा है? कुछ कह कर भी जाएगा या नहीं? यहां किसी को कोई मतलब नहीं है।मरती रहूं अकेली।खाने का कोई टाइम नहीं साहब का।” मम्मी ने रसोई से ही बड़बड़ाते हुए कहा।
उसके कान जोर -जोर से शोर मचाने लगे। वह चाहता था कुछ कहे लेकिन इस वक़्त उसकी ज़ुबा ने चुप्पी धारण कर ली। बस आंखें मम्मी के चेहरे से टकरा कर फर्श को देखने लगती जैसे चेहरे पर लिखा फर्श पर ही नज़र आएगा।
“ तुझसे पूछ रही हूं, किसी ओर से नहीं। न सोने का और न खाने का, कोई टाइम टेबल नहीं है। रात को बाथरूम जाने के लिए उठी तो तेरे कमरे की लाइट जल रही थी। पता नहीं रात भर क्या करता है!फिर जगेगा तो देर से ही।” मम्मी ने बिल्कुल पास आकर कहा।
उसे वाकई याद नहीं कि नींद ने कब उसे दबोचा अन्यथा बचपन से लाईट की बचत करना उसने मम्मी से सीखा है। मन हुआ भाग जाए। पर पैर वहीं जम गए। वह चाहकर भी बाहर नहीं निकल सका।लगा आख़िर मम्मी के हाथों की पकड़ इतने वर्षों बाद भी बहुत मज़बूत है।
पर इन दिनों उसका यह मज़बूत मन कमज़ोर होता जा रहा है जरा- सी बात पर बिसरने लगता है पर उसे तो यह भी सिखाया समझाया गया कि,”लड़कियों की तरह रोना नहीं।”अब जो पानी आंखों में आ जाए तो वह कहां उड़ेलें। मम्मी की आंखें भी चौकस हैं इसलिए उसने मम्मी की ओर नहीं देख कर नीले रंग से पेंट दीवार की तरफ़ देखा । दीवारों का नीला रंग जैसे उससे शांत रहने की गुज़ारिश कर रहा हो।
“कहीं नहीं जा रहा हूं, खुश! और किसने कहा मेरे लिए टाइम सेट करने की।”
“ अरे तो तुझे क्या पता है टाइम कितना भागता है। पूरे दिन घर पर है इसलिए तेरे पास टाइम ही टाइम है और नौकरी करने वाले ही जानते हैं भागते-भागते काम करना क्या होता है।” मम्मी अब किचन में सब्जी की कढ़ाई में कलछी चलाते हुए जोर से बोली।
आख़िर कब तक पीड़ा पहुंचाते शब्द कान सुनते। उन्होंने बगावत शुरू कर दी। धीमी आवाज़ तेज़ होने लगी।
“कितने समय से नौकरी के लिए कोशिश कर रहा हूं।कितनी ही जगह रोज़ ही एक नया इंटरव्यू दे-देकर थक चुका हूं।नहीं लग रही है तो इसमें मेरा क्या कुसूर?” और वह फिर पैर पटकता हुआ अपने कमरे में चला गया।
उन दोनों की इस तरह की आवाज़ों से गर्मी के मौसम में और अधिक गर्मा गया माहौल।खिड़कियों से आती हवा कहीं रास्ते में ही ठहर गयी।पेड़ की टहनियां जैसे हिलने से डरने लगी। छत के पंखे को मानों किसी ने दोनों हाथों से पकड़ लिया। सब कुछ चिपचिपा,थका देने वाला, डरावना और बोझिल।
मम्मी बोलते-बोलते जैसे थक गयी। उमस में वैसे भी काम करना मुश्किल फिर उसकी यह बात सुन न जाने कैसे और घबराहट होने लगी। सुबह के अख़बार में बेरोज़गार युवक का रेल की पटरी पर शव की खबर ने शरीर पसीने-पसीने कर दिया। फ्रिज से बोतल निकाल ली और गटागट पानी पीया।
कोरोना के बाद से वैसे भी हर थोड़े दिन में ही उनकी सांस फूलने लग जाती है। बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला और किसी तरह रोटियों की गिनती करने लगी।
“ अभी तो कम रोटी ही हुई पांच और बना लूं ।फिर महाशय कुत्तों को भी तो दूध रोटी देकर आते हैं।पांच मोटी रोटी कुत्तों की बनाने पर पूरी हो जाएगी।” माथे पर आयी पसीने की बूंदों को साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए रोटियां बेलने लगी।
अब उसकी नज़रें बार-बार दीवार पर लगी घड़ी पर जाती। दस बजने वाले हैं। मम्मी,पापा का टिफिन पैक कर रही होंगी। पापा रोज़ दस बजे घर से ऑफ़िस के लिए निकल जाते हैं। उसे पता है पापा शुरु से कम बोलते हैं, बस मम्मी और उसकी नोंक-झोंक देखते रहते हैं। उसने देखा, आज भी पापा सुना- अनसुना कर बाथरूम में नहाने चले गए। वहां से आकर पूजा करने पूजा घर में चले गए। वे अब तैयार हो रहे होंगे और अपने चश्मे को साफ़ कर रहे होंगे। उसे लगा कि पापा के पास जाएं कुछ बात करें या फिर मम्मी से हुई अभी की इस नोंक-झोंक के बारे में कुछ उनकी सुने। पर पापा का स्वभाव वह जानता है वह बोलते कम लेकिन सुनते सब हैं, प्रतिक्रिया कम देते लेकिन अपना रुतबा बनाए रखना जानते है। ऐसा नहीं है कि पापा उसके प्रति बेफ़िक्र हैं लेकिन फ़िक्र जताना उन्हें आता नहीं या वे जताना नहीं चाहते।पर बिना कुछ पूछे, वह जितने पैसे मांगता है दे देते हैं उन्होंने बहुत महंगे कॉलेज से उसे बी-टेक करवाया इसलिए बहुत बड़ी जमा राशि उसकी पढ़ाई में खर्च हो गयी। इन दिनों उसे पापा से पैसे मांगने में हिचक होने लगी है, इसलिए भी शायद वह उनके पास जाने में कतराता है। अंततःउसने इस समय अपने कमरे में रहना ही मुनासिब समझा।
पलंग पर बैठा सामने रखी अलमारी में लगे मिरर में बहुत देर तक देखता रहा जैसे उसे भी खुद से अनगिनत शिकायत है। वह शिकायतों को अंगुली पर गिनता उससे पहले उसकी नज़र छत पंखे पर गयी , एक ही झटके में सब की शिकायतें छू मंतर हो जाएगी। पंखे को देख उसके मन में कितने ही विचार गुत्थम-गुत्थाई करने लगे। यह क्या उसकी आंखें किसी रस्सी की तलाश करने लगी। बेसुध -सा वह कमरे में ही गोल-गोल चक्कर लगाने लगा।
“इतना कमज़ोर तो वह कभी नहीं रहा फिर बाकी सब…।”
यह बाकी सब के बाद छूटी जगह ने उसको शायद कहीं जकड़ लिया और विचारों की गुत्थम-गुत्थाई को पटखनी दे दी।
तभी फ़ोन बज उठा।वह कमज़ोर क्षण निकल गया।उसने राहत की जैसे सांस ली।
“ क्या कर रहा है?” दूसरी तरफ़ से मानस की आवाज़ आयी।
“कुछ नहीं फ़ालतू हूं।” उसने बिखरता-सा ज़वाब दिया ।
‘ पागल! कभी भी फ़ोन करो तो ज़वाब ढंग से नहीं देता।”
“ तो तो…..। क्या करुं नहीं है दिमाग मुझ में।फिर क्यों कर रहा है फ़ोन?”वह बोला।
“तू फ़ोन रख, मैं अभी घर आता हूं।”
दूसरी तरफ वाले ने बिना किसी ज़वाब का इंतज़ार किए यह कह कॉल कट कर दी।
उसका मन हुआ फ़ोन को ज़ोर से पटक दे। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। उसने हाथ में फ़ोन लिया और फर्श को घूर कर देखा ही था कि याद आया, अभी कुछ दिन पहले ही तो उसने गुस्से में फ़ोन फर्श पर पटक दिया। स्क्रीन चली गयी थी। डूप्लीकेट स्क्रीन लगवायी थी, तीन हज़ार लग गए। फ़ोन वाला भी हंस रहा था, “भैया नया फ़ोन ले लो। वैसे भी पुराना हो चुका है।” और हंसते हुए न जाने कितनी तरह के चमचमाते हुए फ़ोन उसके आगे रख दिए। एक पल के लिए उसकी नज़रें उन दिखाए जा रहे, चमकते, एक से एक फीचर वाले फ़ोन पर ठहर गयी। बमुश्किल खुद को संयत करते वह इतना ही कह पाया –
“ अरे भैया, नहीं लेना नया फ़ोन। फिलहाल इसको ही ठीक कर दो।”
“तीन हज़ार लगेंगे।”
तीन हज़ार सुन उसका माथा उस दिन भारी हो गया, हल्के होने का कोई आसार नहीं था क्योंकि घर में किसी को कहना वह चाहता नहीं था, उसे पता था कि वे उसके गुस्से को जिम्मेदार ठहराते और वह इससे इन्कार भी नहीं कर पाता। फिर…..।
उसने फ़ोन वाले को किसी तरह ठीक करने को कहा और सीधा इसी मानस के घर गया जो फिलहाल उसके कंधे पर तसल्ली का हाथ रखना चाहता है लेकिन वह इस हाथ को न चाहते हुए भी झटक देता है और वह कभी उफ़ तक नहीं करता। मानस और वह बचपन के दोस्त हैं, दोनों ने एक ही कॉलेज से बी-टेक किया था। मानस की चार महीने पहले मुंबई में नौकरी लग गयी, बढ़िया पैकेज है। इन दिनों वह छुट्टी लेकर घर आया हुआ था।
फ़ोन की स्क्रीन जाने पर सीधा, वह उसके घर पहुंचा। गेट मानस ने ही खोला।
“साले,मैं तुझसे ही मिलने आ रहा था। कितने फ़ोन लगाएं। स्वीच ऑफ बता रहा है। कहां है तेरा मोबाइल?” एक साथ न जाने कितने प्रश्न पूछता मानस उसे ड्रांइग रुम में ले गया।
वह सोफे पर बैठा कुछ सोचता तब तक ही मानस ने उसको कोल्डड्रिंक की गिलास थमा दी। जैसे उसके गुस्से से उफनते मन को कोल्डड्रिंक से ठंडा कर रहा हो।
“ किसी होटल में वेटर बन जाऊं?” वह सिर नीचा कर जैसे उसके साथ ही खुद से भी पूछ रहा था।
“ कमीने! दिमाग खराब है तेरा। वक़्त को वक़्त नहीं दे सकता? यही करना था तो बड़े कॉलेज से बी-टेक मरने के लिए की। मां-बाप के पैसे का चूना लगा ऐसी बात करते तेरी शर्म किस रास्ते से होकर गयी? बोल, बोल ना।”
उस रोज़ मानस कुछ धीरे कुछ तेज हो उसके कंधे पकड़ तिलमिलाया।
कुछ देर वे चुप्पी थामे, दूरी बनाए बैठे रहे सोफे पर।कोल्डड्रिंक ने अपना असर दिखाना शायद शुरू कर दिया, दोनों के तेवर ढीले पड़ने लगे।
“यार मोबाइल की स्क्रीन गई। तीन हज़ार चाहिए। देगा मुझे? नौकरी लगते ही लौटा दूंगा।” वह रुंआसा होता हुआ बोला।
उससे बिना कोई प्रश्न पूछे मानस आस-पास देखने लगा। न जाने क्यों पर वह जैसे इस बात की तस्दीक करना चाहता था कि तीन हज़ार वाली बात सुनने वाला उसके अलावा और कोई तो नहीं ।
“ऑनलाइन कर दूं?”
“नहीं यार केश चाहिए। मोबाइल के लिए ही तो।”
मानस कमरे में गया, अपनी अलमारी से सीधा पांच-पांच सौ के आठ नोट लाकर उसकी शर्ट की जेब में रख दिए। नजरें समझ गई थी।
“नहीं यार, बस तीन हज़ार।”
“चुप रह। ठीक करवा लें स्क्रीन। वैसे चाहे तो नया मोबाइल….।”
“नहीं, फिलहाल काम चल जाएगा।” वह कुछ सोचते हुए बोला।
मानस ने उसके कंधे पर फिर हाथ रखा।उसे लगा वह रो पड़ेगा। किसी तरह खुद को संभाला।
“नौकरी लगते ही,पहली तनख़्वाह में लौटा दूंगा।” इतना बोल वह चला आया।
मानस के तीन हज़ार से ही तो उसका फ़ोन ठीक हुआ है और आज के ज़माने में कुछ पास हो ना हो, फ़ोन का पास होना सबसे ज़रूरी है वह यह बात भली-भांति जानता था।
वह फिर पलंग पर लेट गया। उसे पता है कि लेटना बस लेटना होता है।नींद यूं ही नहीं आती और इन दिनों तो नींद से उसकी लुका-छिपी ही चलती रहती है। वह अधिक कोशिश भी नहीं करता इस मरी नींद के लिए क्योंकि रात में सपने डराते और दिन में हकीकत। दोनों से पीछा छुड़ाना नामुमकिन -सा हो गया।
फ़ोन एक बार फिर बजा। इस बार गौरी का नाम स्क्रीन पर चमक रहा था। गौरी कॉलेज में उसकी क्लासमेट थी। लड़कियों से बात करने से वह झेंपता था इसलिए उसे पता था सबने उसका नाम झेंपू रख रखा है लेकिन आश्चर्य था कि गौरी से बात करने में उसे हिचक कभी नहीं हुई।
महीने भर पहले सब ठीक था, जब वह भी उसके ही दौर से गुज़र रही थी लेकिन अभी दस दिन पहले उसकी भी नौकरी लग चुकी है। अब लगता जिस जगह पर वह खड़ा है वहां बस वह नितांत अकेला है और उसके सामने गहन अंधेरा है इतना अंधेरा कि हाथ को हाथ तक नहीं सूझता। उसने फ़ोन को साइलेंट मोड पर कर दिया।
एक बार गौरी ने कहा था, बस नौकरी लग जाए तो….।
वह उस रोज़ अधूरी बात को पूरा जानता था लेकिन गौरी के मुंह से ही पूरा सुनने के लिए उसे अधूरी रह जाने दिया। पर अभी उसे गौरी की भी किसी बात में दिलचस्पी नहीं रह गई।साइलेंट पर पड़ा फ़ोन घुर्र -घुर्र बज कर आख़िर चुप हो गया।
कुछ देर बाद फ़ोन उठा कर देखा लाल रंग से गौरी का नाम चमक रहा था। उसने फिर तकिए के नीचे रख दिया जैसे बजता फ़ोन उसके लिए कोई आफ़त है और आफ़तें अभी हाथ धो उसके पीछे पड़ी हैं।
अब उसे लगा अधिक सोच-विचार ने उसकी सारी एनर्जी खींच ली। तेज नाक को किचन से भरवां टिंडे की सब्जी की ख़ुशबू आ रही थी। और साथ में रायते के छोंक की। इस समय भूख के मारे उसके पेट में मरोड़ उठने लगे।लगा कि मम्मी यदि एक बार आवाज़ लगा लें तो वह बाहर आ जाएगा।
“ कमरा बंद कर कब तक पड़ा रहेगा। भूख लगी है तो बाहर आ जा।” मम्मी ने बाहर से कहा।
वह जानता है मम्मी का गुस्सा बहुत छोटा-सा गुस्सा है। मम्मी है ना इसलिए।
“पर तो क्या हुआ।बार-बार नौकरी नहीं, नौकरी नहीं, कहती-कहती दिल कितना दुखाती है।” वह फिर खुद से उलझ गया।
तभी एक बार और दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आयी। मम्मी ही होगी यह सोच मन खुश हो गया।
“ शरद, मैं हूं यार। गेट खोल।” मानस की आवाज़ थी।
वह समझ गया। मम्मी ने ही मानस को फ़ोन किया होगा। मम्मी जानती है उसके जीवन में मानस की अहमियत।
उसने इधर-उधर देख दरवाज़ा खोला। मानस ने कमरे में आते ही बिना कुछ पूछे,उसका हाथ पकड़ा और बाहर खींच कर ले आया।
मम्मी ने डाइनिंग टेबल पर खाना लगा दिया था।
“ मानस, तू और शरद दोनों हाथ धोकर आ जाओ।खाना तैयार है।”
भरवां टिंडे की सब्जी मानस को भी पसंद थी और उसे भी। दोनों वॉशबेसिन से हाथ धोकर टॉवल से हाथ पोछं कुर्सी पर बैठ गए। मम्मी ने दोनों की प्लेट लगाई, खाना परोसा और वहीं बैठ मानस से उसकी नौकरी और ऑफिस के बारे में बात करने लगी।
पर न जाने क्यों उसने मम्मी और मानस की बातों में कोई रुचि नहीं दिखाई बल्कि उसका मन चाह रहा था कि मम्मी कुछ देर मौन व्रत धारण कर लें ।
“आंटी,आप भी हमारे साथ ही खाना खा लीजिए।”मानस बोला।
“मेरा व्रत है, एकादशी का।”
उसे थोड़े दिन पहले मौसी ने बताया था कि उसकी नौकरी के लिए मम्मी ग्यारह एकादशी का व्रत रख रही है।
उस रोज़ भी वह चिल्लाया था,
“ मौसी ने बता दिया मुझे। उपवास करने से कुछ नहीं होने वाला। मेरे लिए भूखे रहने की कोई ज़रूरत नहीं है। व्रत उपवास से नौकरी मिल जाती तो देश में इतनी बेरोज़गारी नहीं होती।”
“ ज्यादा दिमाग ख़राब करने की ज़रूरत नहीं है। तू नहीं मानता मत मान लेकिन मुझे जो करना है वह करके ही रहूंगी समझा।” मम्मी भी गुस्से मे बोली थी उस दिन।
वह जानता था मम्मी ज़िद्दी है, दो घंटे शाम को पूजा कर फलाहार ही करेगी।
उसे ले कर मम्मी को इन दिनों पता नहीं क्या हो गया है। एक दिन तो हद ही हो गयी,टीवी के न जाने कौनसे चैनल में “दो मिनट में है आपकी सारी समस्यां का समाधान” कार्यक्रम को देखते हुए पंडित जी से उसकी नौकरी के बारे में जानने के लिए फ़ोन ही लगा दिया। मम्मी ने सोचा था कि बस दो मिनट में ही समाधान बता देंगे लेकिन उन महाराज जी ने उस समय कोई ज़वाब नहीं दिया। और फिर आधे घंटे बाद मम्मी से बात करके किसी पूजा के लिए ग्यारह हजार रुपए मांगे। मम्मी ने घबरा कर फ़ोन रख दिया। उस रोज़ के बाद वे महाराज जी उसके भविष्य के लिए मम्मी को जिम्मेदार बता कितने दिन तक नए-नए नंबर से फ़ोन करते रहे।आख़िर पापा को सारी बात पता चली तो हमेशा शांत रहने वाले पापा ने उस रोज़ मम्मी को आड़े हाथों लिया।
“पढ़ी-लिखी बेवकूफ़ हो तुम।तुम्हारी बुद्धि घास चरने गई है। ढोंगी बाबा के ढ़कोसले में पड़ी क्या कर रही हो,पता भी है?”
मम्मी खूब देर तक रोती रही कमरे में जाकर।उसने मम्मी को समझाना चाहा लेकिन नहीं समझा पाया। हालांकि उस महाराज जी के फ़ोन तो अब नहीं आते पर हां मम्मी को एकादशी के व्रत करने से पापा और वह दोनों ही नहीं रोक पाए।
बदलना आख़िर किसको और क्यों। फिर वह तो आजकल अपनी तुनकमिज़ाज़ी को कहां रोक पा रहा है जो मम्मी को रोक लेगा।
मानस ने माहौल की गर्माहट को भांपते हुए उससे पूछा-
“ तूने मेरी कंपनी में भी तो भेजा था सीवी, क्या हुआ?”
“यार अभी तक कम से कम बीसों जगह भेज चुका हूं पर कोई अच्छी ख़बर कहीं से भी नहीं।”
यह कह उसका ध्यान फ़ोन में सेव अपनी ही मार्कशीट पर चला गया। प्रसेटेंज भी कम तो नहीं है फिर भी…।
मम्मी किचन में बचा काम निबटाने चली गयी। वह भी डाइनिंग टेबल से सामान हटाता आहिस्ता से किचन में आया और प्लेट मे रखी उन मोटी रोटियों के टूकड़े कर किसी बड़े प्याले में डाल फ्रिज से दूध निकाल ही रहा था कि मम्मी फिर बोली-
“ आजकल डेढ़ सौ रुपए का तो रोज़ दूध ही आ जाता है।”
उसके हाथ ठहर गए। मन ही मन कल से चाय न पीने का सोच भगोनी वापस फ्रिज में रख दी और चुपचाप सोफे पर बैठ गया।
तभी मम्मी बर्तन साफ़ कर साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती हुई आयी और रोटी वाले बर्तन में दूध डाल फिर किचन में चली गयी।
वह देखता रह गया। मम्मी को वह समझता है या नहीं उसे पता नहीं। उसने मानस को इशारा किया और दोनों घर से बाहर निकल आए। अभी दिन के चार बज रहे थे। पर सितम्बर महीने की यह धूप चुभ नहीं रही थी।वह रोटी और दूध का प्याला लेकर घर के बाहर आया ही था कि पांचों पिल्ले और भूरी कुत्तिया ने उसे घेर लिया। वह जानता है कि भूरी और उसके पिल्ले रोज़ उसका इंतज़ार करते हैं।
“कब से करने लगा है तू ऐसा?”
“ कैसा?” उसने मानस की तरफ देखते हुए प्रश्न पर प्रश्न किया।
“यह दूध, रोटी और गली के कुत्ते!”
“दादी हमेशा अल सुबह ही गली के कुत्तों को दूध -रोटी देती थी। मैं देखता था कि कुत्ते गली के नुक्कड़ पर दादी का इंतज़ार करते।दादी के मरने के बाद कॉलेज से लौटने के बाद मैं अब दूध रोटी इनके लिए लेकर आता हूं तो यह मेरा इंतज़ार करते मिलते।” उसने पिल्लों की तरफ प्यार से देखते हुए बोला।
देखते ही देखते सारा प्याला चंद मिनटों में खाली हो गया। पिल्ले फिर उसकी तरफ उम्मीद भरी नज़रों से देख खाली प्याले की तरफ देखते रहें। मानस जल्दी से पास की बेकरी से ब्रेड के दो पैकेट ले आया। उसका मन कृतज्ञता से निहारने लगा। मानस ने शीघ्रता से पिल्लों की तरफ ब्रेड के टूकड़े डाले । कुत्तिया उसको एकटक देखने लगी। उसका मन फिर इस मां को देख रहा था। और कुत्तिया जैसे आंखों से दोनों का धन्यवाद करने लगी। वे दोनों मुस्कुराए।तभी पड़ोस के शर्मा जी सामने से आते दिखे। उनके हाथों में दूध की थैली थी। उन दोनों को देख सहसा वे रुक गए । शिष्टाचारवश उसने नमस्ते कहा, वे शायद इस नमस्ते का ही इंतज़ार कर रहे थे।
“ आया बेटा, कहीं से ज़वाब नौकरी का?”
“ हां अंकल दो-तीन जगह से इंटरव्यू के लिए ज़वाब आया है।” उत्तर मानस ने दिया।
शर्मा जी ने मानस को देख मन ही मन बड़बड़ाते हुए धीरे से कहा-
“ तुमसे तो नहीं पूछा।”
‘नौकरियां कहां पड़ी है! पहले का ज़माना और था।थोड़ा भी पढ़ा-लिखा है तो पकड़-पकड़ कर नौकरी पर रख लिया जाता वो भी सरकारी में और अब..। सरकारी की तो उम्मीद ही छोड़ दो और प्राइवेट में तो हालत बहुत बुरी है।फिर लगे तो सही।” उन्होंने उसकी तरफ देखते हुए मानस की बात का उत्तर दिया।
इन दिनों उसका शब्दकोश लगभग खाली-सा लगता है उसे। वह भूरी कुत्तिया और उसके पिल्लों को देखता रहा। उसे लगा सारी कॉलोनी में, रिश्तेदारों में, जान-पहचान वालों में फिलहाल तो बात करने का विषय ही उसकी नौकरी है। वह चाहता था कि कानों में खूब गहरे तक रुई ठूंसी रहे। उसे खुद से बेहतर बहरे लोगों की दुनिया लगने लगी।और वह गूंगा बना रहा।
“लगेगी बेटा नौकरी। बस पढ़े-लिखे को यूं खाली घूमते देखता हूं तो कलेजा मुंह को आता है। इसलिए पूछ लिया।” शर्मा जी जैसे सहानुभूति जता रहे हो।
वह कहना चाहता था, “मेरी प्रॉब्लम , लेकिन आपको तो बीच में कूदना ही है।” परन्तु शब्द गले में फांस बन गए।
बड़ों का लिहाज़ कर, नमस्ते कह वह दूसरी तरफ देखने लगा।
मानस उसका दूसरी तरफ़ देखना समझ गया। बाइक उसके सामने लाकर खड़ी कर दी।वह बिना उससे यह पूछे कि कहां जाना है,पीछे बैठ गया।
बाइक सड़क पर दौड़ रही थी।वह सड़क के किनारे की दुकानों के साइनबोर्ड पढ़ने में खुद को व्यस्त करने लगा। उसे लगता बस सारी दुनिया में एक वही फ्री है। वह कभी दायीं तरफ़ की दुकानों को गौर से देखता तो कभी बायीं तरफ़ की। कुछ देर में ही उसे यह भी बच्चों के खेल-सा लगने लगा। अब खेल ख़त्म हो गया तो फिर उसे बेचैनी घेरने लगी।
“ कहां चलना है?’’मानस उसकी मन स्थिति भांप पूछ बैठा।
“ कहीं भी पर बस यार जहां भी चले,वहां कोई मेरे फटे में टांग न अड़ाएं।”
तभी जेब में पड़ा मोबाइल फिर घुर्र- घुर्र करने लगा।उसने इशारे से रास्ते में बाइक रोकने के लिए कहा। मानस ने जगह देखते हुए साइड में बाइक खड़ी कर दी। वह कुछ पूछता ,उससे पहले दस मिनट तक ‘यस सर ,यस सर’ की आवाज़ आती रही और उदास चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान अपनी जगह बनाती रही।
उसने फ़ोन जेब में रखा था कि मानस उसके चेहरे के भाव पढ़ने लगा।
“ लगता है,आंटीजी की एकादशी तो फलीभूत हो गयी।” यह कहते हुए वह जोर से ठहाका मार हंस पड़ा।
“ तू भी ना मां के साथ…। यह कहते हुए वह पिछले सप्ताह मुंबई की कंपनी जिसने उसे इंटरव्यू में पास कर के भी नौकरी नहीं दी के बारे में सोचने लगा। कोई डर उसे अपनी गिरफ़्त में लेने लगा और वह डर से आज़ाद होने की भरसक कोशिश कर रहा था।
वह याद रखना चाहता था तो केवल अभी आए फ़ोन की एक बात,“आप जल्द से जल्द ज्वाइन कर लें।”
“मज़ाक कर रहा हूं । पर अब माथे पर अधिक सलवटें तो मत डाल बस मेरे चार हजार!पहली तनख़्वाह में।” मानस जैसे उसको डर की कैद से आज़ाद कराते हुए हंसाने की ग़रज़ से बोला।
सड़कों पर अंधेरा पसरा रहा था।किन्तु दायें -बायें की दुकानों में हो रही रोशनी उस अंधेरे को हटाने की कोशिश में लगी थी। और उसे इन दुकानों की यह अंधेरा चीरती रोशनी भली लग रही थी।
“बिल्कुल पहली तनख़्वाह में ही।”
पहली तनख़्वाह के बारे में सोचते ही उसकी आंखों में अनगिनत स्वप्न तैरने लगे, जिसका ज़िक्र उसने कभी किसी से नहीं किया लेकिन उन स्वप्नों में एक तस्वीर सबसे बड़ी उभरती थी वह थी मम्मी की।
मानस सड़क पर खड़े फल के ठेले से शरद की मम्मी के लिए फल खरीदने में व्यस्त था।
और वह फ़ोन में गौरी के मिस्ड कॉल को देख रहा था अब उसने साइलेंट मोड हटा दिया था।
________________________
लेखक परिचय-
नाम : विनीता बाडमेरा
जन्म : 20 अगस्त 1977
शिक्षा : हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर , बी.एड।
मार्च 2023में राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रथम कहानी संग्रह “एक बार आख़िरी बार” प्रकाशित।
चार साझा कहानी एवं कविता संग्रह में रचनाएँ संकलित।
दोआबा, आजकल, मधुमती, परिंदें पत्रिका तथा राजस्थान पत्रिका व भास्कर जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में कहानी, कविता प्रकाशित।
19वर्षों तक अध्यापन के बाद सम्प्रति व्यवसाय में संलग्न।
संपर्क : मोबाइल -9680571640
पता-विनीता बाडमेरा
बाडमेरा स्टोर कमल मेडिकल के सामने , नगरा।
अजमेर, राजस्थान- 305001