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Home कविता

अभिज्ञात की कविताएँ

by Anhadkolkata
January 27, 2024
in कविता
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हिन्दी भाषा के महत्वपूर्ण कवि ‘अभिज्ञात’ कथा एवं कविता लेखन के क्षेत्र में लगभग चार दशकों से सक्रिय हैं तथा महत्वपूर्ण योगदान दे  रहें  है । वे कला की अन्य विधाएं जैसे चित्रकारी, स्क्रिप्ट लेखन,अभिनय ,फिल्म निर्देशन की दिशा में भी कार्य कर रहें है। अनहद कोलकाता उनकी कुछ कविताओं को आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है । आप सभी पढ़ें और राय अवश्य दें ।

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अभिज्ञात

 

थोड़ी सी और
***
मुझे बचाये रखनी है
थोड़ी सी जुम्बिश
तुम्हारे अंतिम चुम्बन के लिए

थोड़ी सी साँस
मृत्यु से पहले

एक गीत की कुछ पंक्तियाँ
गुनगुनाने के लिए

थोड़ी सी पीड़ा
असंख्य अनचाही व अनजान पीड़ाओं का सामना करने से पहले
उनसे ताममेल बिठाने के लिए
थोड़ा-थोड़ा ही
सिलता उम्र की लम्बी थान
थोड़ा-थोड़ा ही सुखी होता रहा
दुःख के संभावित हमलों के भय से

थोड़ा-थोड़ा ही सोया
ताकि फिर आ सके नींद
ताकि कर सकूँ ढेर सारा काम

थोड़ी सी प्यास
थोड़ा सा संकोच
थोड़ा सा प्यार
थोड़ी तकरार
थोड़ा सा काम, थोड़ा आराम
थोड़ा पुण्य, थोड़ा पाप

थोड़ी सी उम्र और मांगी
फिर थोड़ी सी और
थोड़ी और थोड़ी और थोड़ी और…
अधिक मांगने से हमेशा डरता रहा!

तुम मेरी नाभि में बसो
***
सांस की तरह ज़रूरी
कंधों की तरह मज़बूत
पांवों की तरह यायावर
ज़िल्दों की तरह बदलने वाले
ओ मेरे
चूकते-खोते-अपरिचित होते जाते-धूमिल विश्वास
तुम लौटो।

तुम लौटो
कि बहुत से काम अधूरे हैं
जनमने हैं बहुत से
करनी है बहुत सी बातें
झिझकते अवरुद्ध होते गले से

किन्हीं हथेलियों पर मेहंदी की तरह सजना है
एक इलाइची अदरख की चाय पीनी है

किसी से लिए आँधी की तरह उड़ना है
कटना है किसी की छत से एक पतंग की तरह

एक फ़ब्ती की तरह उछलना है सहसा
किन्हीं पहचाने ओठों से

इस उम्र की बेहिसाब रुई को
किसी तकली में कतना है

अन्त में एक विदा के हाथ की तरह
हिलना है बड़ी देर तक
आंसू की तरह सूख जाना है
गिरकर आँख से

तुम मेरी नाभि में बसो कस्तूरी की तरह
ओ मेरे विश्वास

तितली की तरह रंगीन विश्वास
धूप की तरह उजले
मेरे विश्वास

खंडित होते विश्वास
निर्वासित होते जाते
दंडित विश्वास, तुम लौटो।

खुशी ठहरती है कितनी देर
***
मैं दरअसल ख़ुश होना चाहता हूँ

मैं तमाम रात और दिन
सुबह और शाम
इसी कोशिश में लगा रहा ता-उम्र
कि मैं हो जाऊं खुश
जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता

नहीं जानता कि ठीक किस
..किस बिन्दु पर पहुंचना होता है आदमी का ख़ुश होना
कितना फ़र्क होता है दुःख और खुशी में
कि खुशी आदमी को किस अक्षांश और शर्तों
और कितनी जुगत के बाद मिलती है

वह ठहरती है कितनी देर
क्या उतनी जितनी ठहरती है ओस की बूँद हरी
घासों पर
या उतनी जितनी फूटे हुए अंडों के बीच चूज़े
हालांकि वह समय निकल चुका है विचार करने का
कि क्या नहीं रहा जा सकता ख़ुशी के बग़ैर
तो फिर आख़िर में इतने दिन कैसे रहा बग़ैर ख़ुशी के

शायद ख़ुशी की तलाश में जी जाता है आदमी
पूरी-पूरी उम्र

और यह सोचकर भी ख़ुश नहीं होता
जबकि उसे होना चाहिए
कि वह तमाम उम्र
ख़ुशी के बारे में सोचता
और जीता रहा
उसकी कभी न ख़त्म होने वाली तलाश में।

सफलता के मंत्र
***
किसी ने रख दिया पीठ पर हाथ
क्या से क्या हो गया

किसी ने ठोंक दी
जीवन धन्य हुआ या लगा

किसी ने थपथपाई
मनोबल दूना हुआ

किसी ने सहलायी
मन आत्मीयता से भींग -भींग गया

दोस्तों को वार के लिए
मिली सुरक्षित ज़गह
चुगलखोरों को मिली
आड़

पीठ न होती
तो पता नहीं कहां लदा होता
ज़िन्दगी का पहाड़

पीठ के निचले हिस्से की नाड़ियों में
छुपा होता है स्वप्नों का खज़ाना
तमाम कुण्ठाएं और अभिलाषाएँ
वहीं ठीक वहीं पड़ी रहती है
हमारी रीढ़
जो तनी रहती है
तो रहता है हमारा सिर लगातार जोख़िम में
और होकर भी नहीं होती तो
कुछ लोग पता नहीं कितनी बुलंदियों पर होते
रीढ़ के लचीलेपन में
छिपे हैं सफलता के तमाम मंत्र
दरअसल पीठ वह म्यान है
जिसमें रहती है
रीढ़ जैसी धारदार तलवार।।

लॉकर में धान
***
मैं दुनिया का सबसे अच्छा अन्न खाता हूँ-भात।
यह भात
उस धान से बना है
जो उसी मिट्टी से उपजा है
जिससे मैं…
इसलिए हो जाता है
उसका स्वाद
मेरी स्वाद तंत्रिकाओं से एकाकार

आज़मगढ़ के सुदूर गांव कम्हरियां में
जब धान पकने लगते हैं
उसके दाने मुझे पुकारने हैं
यहां कोलकाता तक सुनाई पड़ती है उनकी आवाज़
यहां तक कि उनकी फुसफुसाहट
धान की बालियों की इठलाती खनखनाहट

धान कटने से दो-चार दिन पहले
मैं पहुँच जाता हूँ गांव
भरी दोपहर में बिछाकर सो जाता हूँ खेत के किनारे
झुरझुर चलती हवा में
बालियों का एक दूसरे से लड़कर करना अठखेलियाँ
करना एक दूजे से लिपटकर नृत्य
मुझे भाता है
खेत से होकर आती धानगंधी हवा
कर देती है मदहोश
मैं लेता हूं भरपूर नींद धान के सान्निध्य में
और वह नींद भी पूरी करता हूँ
जो महानगर की आपाधापी वाली ज़िन्दगी में
रोज़ थोड़ी बहुत बची रहती है किसी कोने-अंतरे में
और जब कट जाते हैं धान
और अधिया पर उठ जाते हैं
आधे-तिहाई बोझे
मैं दिल को समझता हूँ
वे करने निकले हैं मेरा प्रतिनिधित्व
वे जहां रहेंगे
अपनी ख़ुशबू और
अपने भात के अनूठे स्वाद से करेंगे
खाने और बनाने वाले को तृप्त
उनका संतोष मुझे मिलेगा पुरस्कार में

थाली में पहुँचने से पहले ही
मेरे घर-आंगन, पास-पड़ोस व गांव-जवार को
महकाता है भात

यह भात मेरी मिट्टी का जयगान है
और ईश्वर का आशीर्वाद
इसके लिए मैं वर्षा का ऋणी और सूर्य की किरणों का आभारी हूँ

मैं हर कौर के साथ
ऐसे तृप्त होता हूँ
जैसे सदियों का भूखा हूँ
मुझे प्रिय लगती है
अपनी भूख
मैं अपने गांव को अपने धान के लिए करता हूं बार-बार याद
यदि मैं फ़क़ीर होता तो
अनिद्रा के मारे तमाम लोगों को
देता अपने धान के दाने
कि वे बाँध लें ताबीज में
आयेगी अच्छी नींद
जिन्हें नहीं लगती भूख
वे भी रखें

मैं नहीं जानता मेरे धान के खेत कब तक बचेंगे?

मैंने सांस के बैंक के लॉकर में
रख दी है थोड़ी सी धान की ख़ुशबू
जैसा कि तय है मैं नहीं रहूँगा किसी रोज़
तो टूट जायेगा अपने आप वह लॉकर
और हवा में फैल जायेगी धान की गमक
धान की ख़ुशबू में इस पृथ्वी पर ज़िन्दा रहूँगा मैं
उसी के आसपास…
काश
ख़ुशबू से भी रोपा जा सकता धान!
ख़ुशबू भी
एक बीज ही तो है।

ख़्वाब देखे कोई और
***
मेरे साथ ही ख़त्म नहीं हो जायेगा
सबका संसार
मेरी यात्राओं से ख़त्म नहीं हो जाना है
सबका सफ़र

अगर अधूरी है मेरी कामनाएँ
तो हो सकता है तुममें हो जायें पूरी

मेरी अधबनी इमारतों पर
कम से कम परिन्दे लगा लेंगे घोंसले

मैं
अपने आधे -अधूरेपन से आश्वस्त हूँ

कितना सुखद अजूबा हो
कि
मैं अपनी नींद सोऊं
उसमें ख़्वाब देखे कोई और
कोई तीसरा उठे नींद की ख़ुमारी तोड़ता
ख़्वाबों को याद करने की कोशिश करता।

एक अदहन हमारे अन्दर
***
हम
जो कि एक साथ
पूँछ और मूँछ
दोनों की चिंता में एक साथ व्यग्र हैं
बचाते हैं अपना घर
जिस पर हम
सारी उम्र
पतीले की तरह चढ़ते हैं

एक अदहन हमारे अन्दर
खौलता रहता है निरंतर।

अगली सदी तक हम
***
स्पन्दन बचा है अभी
कहीं, किन्हीं, लुके छिपे संबंधों में

अन्न बचा है
अनायास भी मिल जाती हैं दावतें

ॠण है कि
बादलों को देखा नहीं तैरते जी भर
बरस चुके कई-कई बार

क्षमा है कि बेटियां
चुरा लेती हैं बाप की जवानी
उनकी राजी-ख़ुशी

जोश है बचा
कि रीढ़ सूर्य के सात-सात घोड़ों की ऊर्जा से
खींच रही है गृहस्थी
कहीं एक कोने में बचे हैं दु:ख
जो तकियों से पहले लग जाते हैं सिरहाने
और नींद की अंधेरी घाटियों में
हांकते रहते हैं स्वप्नों की रेवड़
पृथ्वी पर इन सबके चलते
बची है होने को दुर्घटना
प्रलय को न्योतते हुए
नहीं लजायेंगे अगली सदी तक हम।

दी हुई नींद
***
मैं खरीफ की फसल के बाद
सोऊंगा
सोऊंगा ज़रूर रबी की फसल के बाद
हहकारते खाली खलिहानों को
भर देने के बाद अन्न धन से

अन्न को अलगिया देने के बाद
पुआलो से
मैं होरहे की गंध के साथ सोऊँगा

बादल को न्योत लूँ पहले
सूर्य को दे लूँ अर्घ
घूर पर बार लूँ दिये
ता लूँ तमाम मूसों के बिल

फिर
फिर मैं सोऊँगा

मैं सोने के लिए ही तो करूँगा यह सब

कभी-कभी सोचता हूँ
कि यदि न आने वाली होती नींद
तो
तो मैं क्या जवाब देता
अपनी हड़बड़ी का

यदि न आने वाली होती नींद
तो क्या सचमुच कर रहा होता यह सब
तब मैं क्या सोच रहा होता
यह सब करते हुए

कितना बड़ा आशीर्वाद है भगवन्
तेरी यह दी हुई नींद!

हावड़ा ब्रिज
***
बंगाल में आये दिन बंद के दौरान
किसी डायनोसोर के अस्थिपंजर की तरह
हावड़ा और कोलकाता के बीचोबीच हुगली नदी पर पड़ा रहता है हावड़ा ब्रिज
जैसे सदियों पहले उसके अस्थिपंजर प्रवाहित किये गये हों हुगली में
और अटक गया हो वह दोनों के बीच

लेकिन यह क्या
अचानक पता चला
डायनासोर के पैर गायब थे
जो शायद आये दिन बंद से ऊब कर चले गये हैं कहीं और किसी शहर में तफरीह करने
या फिर अंतरिक्ष में होंगे कहीं
जैसे बंद के कारण चला जाता है बहुत कुछ
बहुत कुछ दबे पांव

फिलहाल तो डायनासोर का अस्थिपंजर
एक उपमा थी
जो मेरे दुःख से उपजी थी
जिसका व्याकरण बंद के कारण हावड़ा ब्रिज की कराह की भाषा से बना था
जिसे मैंने सुना
उसी तरह जैसे पूरी आंतरिकता से सुनती हैं हुगली की लहरें

क्या आपने गौर किया है बंद के दिन अधिक बेचैन हो जाती हैं हुगली की लहरें
वे शामिल हो जाती हैं ब्रिज के दुःख में

बंद के दौरान हावड़ा ब्रिज से गुज़रना
किसी बियाबान से गुज़रना है महानगर के बीचोबीच

बंद के दौरान तेज़-तेज़ चलने लगती हैं हवाएँ
जैसे चल रही हों किसी की सांसें तेज़-तेज़
और उसके बचे रहने को लेकर उपजे मन में रह-रह कर सशंय

बंद के दौरान बढ़ जाती है ब्रिज की लम्बाई
जैसे डूबने से पहले होती जाती हैं छायाएं लम्बी और लम्बी
बंद में कभी गौर से सुनो तो सुनायी देती है एक लम्बी कराह
जो रुकने की व्यवस्था के विरुद्ध उठती है ब्रिज से
और पता नहीं कहाँ-कहाँ से, किस-किस सीने से
प्रतिदिन पल-पल हजारों लोगों और वाहनों को
इस पार से उस पार ले जाने वाले ब्रिज के कंधे
नहीं उठा पा रहे थे अपने अकेलेपन का बोझ

देखो, कहीं अकेलेपन के बोझ से टूटकर किसी दिन गिर न जाये हावड़ा ब्रिज

सोचता हूँ तो कांप उठता हूँ
हावड़ा ब्रिज के बिना कितना सूना-सूना लगेगा बंगाल का परिदृश्य

ब्रिज का चित्र देखकर लोग पहचान लेते हैं
वह रहा-वह रहा कोलकाता
अपनी ही सांस्कृतिक गरिमा में जीता और उसी को चूर-चूर करता
तिल-तिल मरता

सामान्य दिनों में हावड़ा ब्रिज पर चलते हुए
कोई सुन सकता है उसकी धड़कन साफ़-साफ़

एक सिहरन सी दौड़ती रहती है उसकी रगों में
जो हर वाहन ब्रिज से गुज़रने के बाद छोड़ जाता है अपने पीछे
देता हुआ-धन्यवाद, कहता हुआ-‘टाटा, फिर मिलेंगे!!’

वाहनों की पीछे छूटी गर्म थरथराहट
ब्रिज के रास्ते पहुंच जाती है आदमी के तलवों से होती हुई उसकी धमनियों में
और आदमी एकाएक तब्दील हो जाता है
स्वयं हावड़ा ब्रिज की पीठ में, उसके किसी पुर्ज़े में
जिस पर से हो रहा है होता है पूरे इतमीनान के साथ आवागमन

और यह मत सोचें कि यह संभव नहीं
पुल दूसरों को पुल बनाने का हुनर जानता है
हर बार
एक आदमी
एक वाहन
एक मवेशी का पुल पार करना
पुल को नये सिरे से बनाता है पुल

हर बार वह दूसरे के पैरों और चक्कों से करता है अपनी ही यात्रा
पुल दूसरों के पैरों से चलता है अपने को पार करने के लिए

अपने से पार हुए बिना कोई कभी नहीं बन सकता पुल
जो यह राज़ जानते हैं वे सब हैं पुल के सगोतिये

अंग्रेज़ी राज़ में गांधी जी ने भी बंद को बनाया था पुल
-‘लेकिन अब बंद पुल नहीं है
पुल नहीं रह गया है बंद!!’
सुबह से शाम तक
हर आने जाने वाले से कहता है हावड़ा ब्रिज

यह पुल और आदमी
दोनों के पक्ष में की गयी ज़रूरी कार्रवाई है

यह पुल के अर्थ को बचाने की पुरज़ोर कोशिश है
और आख़िरकार हर कोशिश
एक पुल ही तो है!

कई बार मुझे लगा है कि बंगाल के ललाट पर रखा हुआ एक विराट मुकुट है-हावड़ा ब्रिज
यदि वह नहीं रहा तो..
तो उसके बाद बनने वाले ब्रिज होंगे उसके स्मारक
लेकिन मुकुट नहीं रहेगा तो फिर नहीं रहेगा।

 

कवि परिचय

 

डॉ.अभिज्ञात

मूल नामः हृदय नारायण सिंह। हरिवंश राय बच्चन द्वारा दिये गये अभिज्ञात उपनाम से लेखन।

जन्मः 01 अक्टूबर 1962। ग्राम-कम्हरियाँ-खुशनामपुर, ज़िला-आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश।

शिक्षा- हिन्दी में एमए, पीएच.डी.।

प्रकाशित पुस्तकें- कविता संग्रहः एक अदहन हमारे अन्दर, भग्न नीड़ के आर-पार, सरापता हूँ, आवारा हवाओं के ख़िलाफ़ चुपचाप, वह हथेली, दी हुई नींद, ख़ुशी ठहरती है कितनी देर, बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई, कुछ दुःख कुछ चुप्पियाँ, ज़रा सा नास्टेल्जिया। उपन्यास- अनचाहे दरवाज़े पर, कला बाज़ार। कहानी संग्रहः तीसरी बीवी, मनुष्य और मत्स्यकन्या, मुझे विपुला नहीं बनना। कुछ कविताओं व कहानियों का अंग्रे़ज़ी व भारतीय भाषाओं में अनुवाद।

पुरस्कार/सम्मानः आकांक्षा संस्कृति सम्मान, कादम्बिनी लघुकथा पुरस्कार, क़ौमी एकता अवार्ड, अम्बेडकर उत्कृष्ट पत्रकारिता सम्मान, कबीर सम्मान, राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक साहित्य सम्मान, पंथी सम्मान, अग्रसर पत्रकारिता सम्मान आदि।

विशेष शौक़ः कुछेक हिन्दी-बांग्ला फ़ीचर और शार्ट फ़िल्मों में अभिनय व निर्देशन। पेंटिंग का भी शौक़। कुछ सामूहिक कला प्रदर्शनियों में हिस्सेदारी। पेशे से पत्रकार। अमर उजाला, वेबदुनिया डॉट काम, दैनिक जागरण के बाद सम्प्रति सन्मार्ग में कार्यरत।  पताः सन्मार्ग, 160 सी, चित्तरंजन एवेन्यू, कोलकाता-700007

फ़ोन-9830277656 ईमेल abhigyat@gmail.com

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