युवा कवि और पत्रकार ‘प्रणव प्रियदर्शी’ लगभग कई वर्षों से लगातार कविता के क्षेत्र में उचित हस्तक्षेप कर रहें हैं । प्रस्तुत कविताएँ उनके सद्य प्रकाशित संग्रह ‘अछूत नहीं हूँ मैं ‘ से चुनी गईं हैं जो कवि की प्रतिबद्धता और ईमानदार कहन की ओर इशारा करतीं हैं –
“अब मनुष्य का अंतःकरण खो चुका है
आत्मसंघर्ष बीते जमाने की बात हो चुकी है
उसे चाहिए किसी भी शर्त पर
पहचानहीनता की इस भीड़ में
बाजारू स्वप्न और संभावना।”
आप सभी पढ़ें और अपनी राय अवश्य दें ।
इंतजार करो कि…
आँगन की दीवारों पर बैठ
बचे हुए कौए
काँव-काँव कर रहे थे
वहीं एक कोने में
अर्द्धनिद्रा में सोया हुआ कुत्ता
उदासी के भीतर
और उदासी घोल रहा था
उन्हें क्या पता कि
अब मनुष्य का अंतःकरण खो चुका है
आत्मसंघर्ष बीते जमाने की बात हो चुकी है
उसे चाहिए किसी भी शर्त पर
पहचानहीनता की इस भीड़ में
बाजारू स्वप्न और संभावना।
कौए ज्यादा मत चिल्लाओ
तुम्हें खाने को एक टुकड़ा भी नहीं मिलेगा
तुम उसके लाभ के केंद्र में नहीं हो
और तुमसे जुड़ा मिथक भी
उसे बरदाश्त नहीं
उसके पास अपने हर भले
और बुरे के लिए अपना तर्क है
जो तुम्हारी जद से बाहर है।
कुत्ते से भी कह दो
कि अब उदारवाद महज एक नकाब है
वह जिसका विरोध करता है
उससे आत्मीयता भी रखता है
ताकि जरूरत पड़ने पर बेपरवाह हो
गलबाहियाँ करते हुए सरपट दौड़ा जा सके
तुमलोग उसकी इस परिधि में भी शामिल नहीं हो
इसलिए इंतजार करो कि
घर से दबे पाँव निकला हुआ कोई बच्चा
खेल-खेल में
तुम्हारे आगे डाल दे
बिस्किट का कोई टुकड़ा।
किस्त-दर-किस्त
वक्त बढ़ रहा है
अपनी रफ्तार में
आदमी भी बह रहा है
इसकी बहती धार में।
अँगुलीमाल चलता आ रहा था
बुद्ध के सामने
आदमी भी चल रहा है
लेकिन इसे मालूम नहीं रुकने के मायने।
मैंने भी अनुभव किया है
‘रुक जाना ही मर जाना है’
लेकिन प्रश्न यह है कि
हम चलकर आखिर कहाँ पहुँचना चाहते हैं?
बच्चे समय को पीठ पर लादकर
जा रहे हैं हर रोज की तरह स्कूल
बहन समय को कंधे पर टाँगे कॉलेज
पिता जी समय के साथ दफ्तर
रसोई घर में खड़ी माँ
फूला रही है समय की रोटी।
जीवन के तराजू पर
समस्या और समाधान के पलरे
ऊपर-नीचे हो रहे हैं
समय किस्त-दर-किस्त गुजरता जा रहा।
रोज एक ही फार्मूले में
बीतता है दिन, ढलती हैं रातें
सब कुछ स्तब्ध
साँसें आ रही हैं – साँसें जा रही हैं
मै रात में दीवारों से लगकर
सोचता रहता हूँ –
तमाम सुविधाओं के बावजूद
जिंदगी क्यों होती जा रही है हताश?
मेरी बनती-मिटती दुनिया
अपने मन के
नितांत एकांत में
विचारों की सीढ़ी पार कर
भावों के निस्सिम आकाश में
परवाज करते हुए
नक्षत्रों के अंतिम पायदान पर
पैर रखने ही वाला होता हूँ कि
मेरे कमरे में पहुँचकर
मुझे टोक देती है माँ।
सहसा मैं रुक कर
वहाँ से लौट आता हूँ
और आहिस्ता-आहिस्ता
आँखों का दरवाजा खोल
माँ को विश्वास दिलाता हूँ
मैं यहीं हूँ, केवल यहीं
तुम्हारी दुनिया के करीब।
फिर शुरू होती है हलचल
नहाने की जिद
खाने की तैयारी
काम पर जाने की जल्दी…
माँ कहती है
यही जीवन की नियति है
यही दुनिया में बने रहने की
अकथ कहानी है।
मैं मन-ही-मन
सोचने लगता हूँ
मेरी उस दुनिया का क्या
जिसे मैं हर रोज बनाने की
कोशिश करता हूँ
और वह हर रोज लुट जाती है
क्या लुट जाना ही
उसकी नियति है?
रोशनी का चुप रह जाना
रोशनदान से आती हुई
एक रेशमी किरण के सहारे
सुबह उठा मैं
और थाम कर रखना चाहा
इसे पूरा दिन।
अभी दूध लाने पहुँचा ही था
कि पानी के साथ दूध मिलाकर
हाथ में केन पकड़ा दिया गया
उसी क्षण
मेरी हथेली से अचानक
किरण फिसल गई।
जिस पगडंडी पर
अभी चल रहा हूँ
उस पर से ही गुजर रहे लोग
जब मेरे पैर खींचने लगे
एकबारगी धूप सहम गई।
राशन खरीदते वक्त
व्यापारी के झूठ को जब उकेरने लगा
तो उसने बड़े ही अदब से कहा-
‘अब कौन दूध का धुला है?’
यह सुनकर अनायास
दिन ढलने लगा।
अभी-अभी कोई
कानों में कह गया है-
‘‘अब कहीं
रोशनी का एक कतरा भी मत ले जाना
क्योंकि रोशनी चुप रहेगी
और अंधेरा बोलता रहेगा।’’
कविता का आकाश
नीले आकाश का छोर पकड़ने की
कोशिश कर रहा था मैं
और वह समाता जा रहा था
एक अव्यक्त अहसास में
न उसका कहीं आदि था और न अंत
कविता में वह आकाश था
या वह कविता का आकाश था मुझे पता नहीं
कहाँ है मेरा आकाश
जिसके नीचे बैठ कर निहार सकूँ
खुद को अनवरत
पास ही एक पेड़ भी हो
जिसे पकड़ जब चाहूँ
उस आकाश में लीन हो जाऊँ
और जब चाहूँ
धरती को अपने आलिंगन में ले लूँ
कविता में वह पेड़ हो
या उस पेड़ पर कविता फले
यह कविता ही तय करे तो बेहतर
हर किसी को तलाशना चाहिए
अपना-अपना आकाश
जबकि पूरी जिंदगी ही एक तलाश है
क्या कविता बन सकती है
वह आकाश, वह पेड़
अथवा मजार पर रखा हुआ वह फूल
जो स्वयं को अर्पित कर देता है
ताकि मौत के बाद भी
जिंदगी की पूजा की जा सके?
अगर कविता यह काम कर सकती है
तो क्या चूक जा रही है हमारी कलम
अथवा कविता पहचानने की संवेदना खो चुके हैं हम?
पैरों से आगे का निशाँ
कैसे तुम सोच सकते हो
कि वह पुकारे तुम्हें
और आवाज भी न हो
कैसे तुम कह सकते हो
कि उसका विरोध और समझौता
दोनों साथ-साथ चले
कैसे तुम अपेक्षा कर सकते हो
तुम्हारी हँसी पर हल छोड़
वह खुशी मनाने चल पड़े
कैसे रोक सकते हो तुम उसे
जिसके लिए जीवन का मतलब
सिर्फ पेट भरना है
वह सीधी बात जानता है
और सामने से हमला करता है
कैसे तुम पीठ घुमा सकते हो
वह इशारों की भाषा नहीं समझता
कैसे तुम उसे डरा सकते हो
कष्ट और कारावास
उसके भाई-बहनों की तरह हैं
अब नहीं चलेगा ये सब
तुम्हारे मौसमी अनुराग का फल
हर बार उसके लिए
विष साबित हुआ है
इसलिए इससे आगे की कुछ सोचो
उसके खेतों में भी पहुँचे उतना पानी
जितना तुम्हारी गाड़ी धोने में
खर्च हो जाता है
उसके जीवन में भी
पहुँचे उतनी रोशनी और हवा
जितना तुम्हारे लिए बदा है
ताकि वह भी पेट को पैर से छिपाने के बदले
पैरों से आगे का निशाँ खोज सके।
सुबह से रात तक
आज सुबह
मेरी हथेली पर
रखी मिली उतनी ही रोशनी
जितनी रख छोड़ी थी मैंने कभी
अनजान राहों पर
मंजिल मिलने
न मिलने की
परवाह किए बगैर।
आज दोपहर
हवाओं का उतना ही
हिस्सा मिला मुझे
जितनी किसी के नाम
उड़ायी थी मैंने
अहसास की अधखुली चिट्ठी।
आज शाम
मेरी आँखों में
उतनी ही तन्हाई उतर पायी
जितनी छिपाकर रखी थी मैंने
दूसरों से ताउम्र
छिपकर घोंसला बनाते पक्षी की तरह।
आज की रात
मैं उतना ही सो पाया
जितनी वफा निभायी है मैंने
दूसरों से
वफा की कोई उम्मीद किए हुए।
साजिश में पूरी दुनिया
सुबह-सुबह लौटते हैं हम
इस देह में
नींद से नहीं
किसी और जगह से
जहाँ हम सदा से रहे हैं
आदि-अंत से परे
उस जगह की छाया में
सहज ही यह महसूस होता है
कि हम एक-दूसरे से अलग नहीं
बल्कि एक ही हैं
पेड़ और पात की तरह
लेकिन नींद से जगते ही
इतनी तेजी से
हमें जकड़ लेती हैं
मानवता के विरुद्ध रची साजिशें
कि हम कभी परवाह ही नहीं करते
उस जगह की
फिर फँसते चले जाते हैं
विषमता और विद्वेष के दलदल में
अपने ही विध्वंस को
अनजाने में आमंत्रण देते हुए
अगर यह सच नहीं है
तो खुद को जीतकर भी
दुनिया से क्यों हार जाते हैं कृष्ण
सीमाओं से परे जाकर भी
अलग-अलग सीमाओं में
क्यों फँस जाता है
बुद्ध का संदेश
आखिर क्यों
जीसस की सूली
समेटकर ले जाने में
सक्षम नहीं हो पाती
इनसान का विकृत वजूद
शायद साजिशें हमें
सच से ज्यादा अच्छी लगती हैं
इसलिए सपनों की साजिश में
फँस गई है नींद
आँखों की साजिश में आराम
विचारों की साजिश में वजूद
यादों की साजिश में देह
और हवा की तरह उपस्थित
लेकिन अदृश्य साजिश में पूरी दुनिया।
साजिश के विरुद्ध
हमारे मन में
सुराख करके रखते हैं वो
ताकि निचोड़ा जा सके सारा रस
जैसे खान से निकाला जाता है खनिज
जैसे जानवर के थन से दूध
यह एक साजिश है
जो सदियों से चली आ रही है
अलग-अलग वेश में
मनुष्यता के खिलाफ
मैं अपने मन की जमीं पर
शिकारी नजरों से दूर
हर साजिश के विरुद्ध
उगाना चाहता हूँ दूब
क्योंकि संतुलन का नाम है जीवन
और इसे खिलना चाहिए
अपने ही अर्थ में
अपने ही आनंद में
जैसे खिलते हैं फूल।
सिसकता कोना
जरा-सी तेज हवा चली
बिजली गुल…
पहली बारिश से ही
सड़क पर गड्ढे
टेलिफोन डेड…
गर्मी आयी तो नल सूखे
पानी आया भी तो जहरीला
अपहृत व्यवस्था की
असंतुलित बयार में
बिक चुका है अब
जीवन का कोना-कोना
फिर भी मेरे मन की सहज भावनाएँ
उठती हैं पहले की तरह ही
ढूँढ़ती हैं एक कोना
पर कदम बढ़ाते ही
फिसल जाता हूँ मैं
चतुुर्दिक फैले दलदल में
और उठाने के लिए
आसपास कोई पेड़ नहीं होता
होता है एक चट्टान
उठाकर फिर से गिराने के लिए
गिरने-उठने और चलने के फरेब में
कहाँ क्या जुड़ रहा होता है
या टूट रहा होता है
इसकी फ्रिक कौन करे?
मुझसे कहा जाता है बार-बार
अब फिक्रमंद होने का जमाना नहीं रहा
बंद करो रोना-धोना
उधर देखो ही मत
जिधर सिसक रहा होता है कोई कोना।
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कवि परिचय
प्रणव प्रियदर्शी
जन्म तिथि: 12-01-1984
शैक्षणिक योग्यता
स्रातकोत्तर (पत्रकारिता एवं जनसंचार)
पता – मकान नंबर: 51, न्यू एजी कोऑपरेटिव कॉलोनी, कडरू,
राँची-834002 (झारखण्ड)
संप्रति
‘हिन्दुस्तान’ राँची के संपादकीय विभाग में कार्यरत।
प्रकाशित किताब: सब तुम्हारा (कविता-संग्रह ) वर्ष 2015 में विकल्प प्रकाशन से प्रकाशित। दूसरा संस्करण नोशन प्रेस से वर्ष 2022 में प्रकाशित। वर्ष 2022 में रुद्रादित्य प्रकाशन से दूसरा कविता संग्रह-अछूत नहीं हूँ मैं, प्रकाशित।
लेखकीय उपलब्धियाँ : वागर्थ, कथादेश, कथाक्रम, वर्तमान साहित्य, दोआबा, ककसाड़, सनद, देशज, परिकथा, साहित्य अमृत, साहित्य परिक्रमा, विभोम स्वर, सृजन सरोकार, हिन्दी चेतना, कादंबिनी, समकाल हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण और प्रभात खबर सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। इसके साथ ही दूरदर्शन में कई कार्यक्रमों का संचालन और आकाशवाणी के कई कार्यक्रमों में सहभागिता।
सम्मान : लोकपूज्य रामछबीला त्रिपाठी वाग्देवी सम्मान 2023
मोबाइल: 09905576828, 07903009545
ईमेल : pranav.priyadarshi.pp@gmail.com
अशेष आभार सर। 🙏
धन्यवाद प्रणव जी ।