आबल-ताबल – ललन चतुर्वेदी
परसाई जी की बात चलती है तो व्यंग्य विधा की बहुत याद आती है। वे व्यंग्य के शिखर हैं – उन्होंने इस विधा को स्थापित किया, लेकिन यह विधा इधर के दिनों में उस तरह चिन्हित नहीं हुई – उसके बहुत सारे कारण हैं। बहरहाल कहना यह है कि अनहद कोलकाता पर हम आबल-ताबल नाम से व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ शुरू कर रहे हैं जिसे सुकवि एवं युवा व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी ने लिखने की सहमति दी है। यह स्तंभ महीने के पहले और आखिरी शनिवार को प्रकाशित होगा। आशा है कि यह स्तंभ न केवल आपकी साहित्यिक पसंदगी में शामिल होगा वरंच जीवन और जगत को समझने की एक नई दृष्टि और ऊर्जा भी देगा।
प्रस्तुत है स्तंभ की नौवीं कड़ी। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
शरीफ कुत्ते
कुत्तों पर शोध के दौरान मैंने महसूस किया कि कुछ कुत्ते निहायत शरीफ होते हैं। उन्हे देख कर उनके कुत्ता होने पर भी संदेह होने लगता है। मैं स्वयं से प्रश्न करने लगता हूँ-क्या वाकई ये कुत्ते हैं या कुत्ते ऐसे भी हो सकते हैं! मुझे दुख है की कुत्तों के संबंध में लोगों की जानकारी बहुत कम है। आप जानते ही हैं कि कम जानकारी खतरनाक होती है,शायद पिट बुल से भी। जो भी हो सीधे-सपाट कुत्ते को देखकर मैं चिंता में पड़ जाता हूँ। कुत्ते हैं तो उनका आचरण कुत्ते की तरह ही होना चाहिए। अब ऐसे शरीफ कुत्तों को देखकर प्रतीत होने लगता है कि पूर्वजन्म में ये देवताओं की सेवा में स्वर्ग में नियुक्त रहे होंगे। सेवा में थोड़ी भूल-चूक हुई होगी और इन्हें स्वर्ग से निकाल दिया गया होगा। जैसे कुबेर ने यक्ष को निकाल दिया था। पहले के देवता और आज के बड़े लोग भूल-चूक बिलकुल बरदाश्त नहीं करते। बड़ा आदमी वह है जो दूसरों की भूल को कभी नहीं भूलता। बहरहाल,शरीफ कुत्तों को देखकर मैं सतर्क हो जाता हूँ,उनके भय से नहीं,उनकी भूल के कारण ,मिली हुई सजा के कारण। मैं निकटतम मित्रों को भी सतर्क करता हूँ कि जीवन में जब भी बड़े लोगों की सेवा का शुभ अवसर मिले,कोई भूल-चूक नहीं होनी चाहिए वरना जीवन भर शरीफ कुत्तों की ज़िंदगी जीनी पड़ेगी।
आप गौर करें तो पायेंगे कि शरीफ कुत्ते प्रायः भौंकते नहीं हैं। लगता है कि वे अवसाद में हैं। रास्ते के किनारे बैठे रहेंगे। बगल से बारात भी गुजर जाये,आँखें नहीं खोलेंगे। इनकी देह पर कुकुड़माछी भी भिनभिनाती रहे,ये पूँछ तक नहीं हिलायेँगे।आश्चर्यजनक रूप से ऐसे कुत्तों की पूँछ भी सीधी होती है। ये लोक-प्रचलित इस मुहावरे को झुठला देते हैं कि कुत्ते की पूँछ कभी सीधी नहीं होती। ऐसे कुत्ते खाने-पीने के मामले भी उदासीन होते हैं। अपना भोजन जुटाने के लिए मैंने इन्हें कभी कोई जतन करते नहीं देखा। ये बड़े संतोषी होते हैं। मुझे तो इन्हें वैरागी कहने का मन होता है। कहीं सड़क के किनारे किसी छायादार वृक्ष के तले अर्धनिद्रित अवस्था में ये अपना पूरा जीवन काल गुजार देते हैं। मालूम नहीं ये क्या सोचते हैं और किसका इंतजार करते रहते हैं। बहुत संभव है ये अच्छे दिन की प्रतीक्षा में हों। शायद इसीलिए ये न सो पाते हैं,न जग पाते हैं।समय बीत जाता है,यादें रह जाती हैं। यह दूसरी बात है कि कुत्ते सदैव मेरे पीछे पड़े रहते हैं परंतु मैं बिलकुल बुरा नहीं मानता। मैं उन्हें फॉलो करता हूँ और इसके सिवा कर भी क्या सकता हूँ? मैंने कुत्तों का अद्भुत आत्मसंयम भी देखा है- कोरोना काल में। सारे होटल बंद,भोजन की सीधे होम डिलीवरी (भविष्य में तो ड्रोन डिलीवरी होगी)। व्योम पंथ से सारी व्यवस्था! ऐसे कोरोना काल में कुत्तों ने अपनी अभूतपूर्व तपश्चर्या का परिचय दिया। मुझे यह जानकार संतोष हुआ कि कुत्ते भारी से भारी आपदा को बिना चूँ-चपर किए आसानी से निकाल सकते हैं। बाढ़ में नदी पार कर जाते हैं। आगजनी में तो उनके जलने का सवाल ही नहीं उठता। भूकंप से बचाव के उन्हें सारे उपाय मालूम हैं। पर ये सारी बात उन कुत्तों पर फिट बैठती हैं जो कुत्ते ही नहीं हों बल्कि उनमें कुत्तों के सारे गुण-धर्म हों। शरीफ आफतों से बच नहीं सकते।
यकीन मानिए,यह दुनिया शरीफों के लिए नहीं है,यहाँ तक कि शरीफ कुत्तों के लिए भी नहीं।एक अनुभव बतलाता हूँ। किसी व्यक्ति को कुत्ते पालने का शौक चढ़ा क्योंकि कुत्तों के मामले में वह अपने पड़ोसियों से अपने को हीनतर समझता था। परंतु औकात नहीं थी कि विदेशी नस्ल की कुत्ते की ख़रीदारी कर सके तो कहीं से एक अनाथ कुत्ते को उठा लाया। उसका दुर्भाग्य देखो कि वह शरीफ निकल गया। उसके सामने वह रोटियाँ डालता तो वह लंबे समय तक उस पर विचार करता रहता। इस बीच कोई दूसरा कुत्ता आता और रोटी लेकर चलते बनता। उसके लिए रोटी की समस्या नहीं थी अपितु रोटी ही समस्या थी। अब आप ही सोचिए शराफत के लिए इस वसुधा पर कहीं कोई ठौर है?अंततः मेरे पड़ोसी ने उस शरीफ कुत्ते को भगा दिया और हिम्मत जुटाकर एक विदेशी नस्ल को अपने घर का स्थायी मेहमान बना लिया। अब चेन में बंधा हुआ कुत्ता चैन की ज़िंदगी जी रहा है और शरीफ कुत्ते गलियों का खाक छान रहे हैं। शायद ये आजादी की कीमत चुका रहे हैं। ये शरीफ कुत्ते कभी –कभी आकाश की ओर मुँह उठाकर अजीबोगरीब आवाज निकालते हैं। लोग उन्हें डंडा लेकर दौड़ाने लगते हैं। मुझे बहुत दुख होता है। लोग इस बात को क्यों नहीं समझते कि वे देवताओं से प्रार्थना कर रहें हैं कि उन्होंने यह दुनिया देख ली और इस तरह उनकी सजा पूरी हो गई है। अतः उन्हें अब बुला लिया जाये। मैं उनकी प्रार्थना में अपना मौन स्वर जोड़ देता हूँ,शायद कुछ चमत्कार हो जाये।
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ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।