आबल-ताबल – ललन चतुर्वेदी
परसाई जी की बात चलती है तो व्यंग्य विधा की बहुत याद आती है। वे व्यंग्य के शिखर हैं – उन्होंने इस विधा को स्थापित किया, लेकिन यह विधा इधर के दिनों में उस तरह चिन्हित नहीं हुई – उसके बहुत सारे कारण हैं। बहरहाल कहना यह है कि अनहद कोलकाता पर हम आबल-ताबल नाम से व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ शुरू कर रहे हैं जिसे सुकवि एवं युवा व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी ने लिखने की सहमति दी है। यह स्तंभ महीने के पहले और आखिरी शनिवार को प्रकाशित होगा। आशा है कि यह स्तंभ न केवल आपकी साहित्यिक पसंदगी में शामिल होगा वरंच जीवन और जगत को समझने की एक नई दृष्टि और ऊर्जा भी देगा।
प्रस्तुत है स्तंभ की आठवीं कड़ी। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
बिना मुँह का आदमी ललन चतुर्वेदी
मैंने उन्हें गौर से देखा। कई बार देखा। कई कोणों से देखा। कई अवसरों पर देखा। एक तरह से मुझमें उन्हें देखने की आदत ही विकसित हो गई है। उन्हें इस प्रकार से देखते हुए मुझे कोई फोटोग्राफर समझने की भूल भी कर सकता है। पर ऐसा बिलकुल नहीं है। फोटो खींचने की कला मुझे मालूम नहीं है और नहीं मेरे पास आज पर्यंत मामूली कैमरा भी है। सच्चाई यह है कि अपनी आदतों और अदाओं से वह मेरे लिए दर्शनीय बन गए हैं। और उनका इतना उपकार तो मुझे अवश्य मानना चाहिए की उन्होंने मेरा दार्शनिक बनने का रास्ता साफ कर दिया है । अगर इसी तरह मैं दुनिया-जहान की हर एक चीज को देखता रहा तो इस सदी का महान दार्शनिक बनने का मुझे गौरव प्राप्त हो सकता है। आप जरूर जानना चाहेंगे कि आखिर उनमें है क्या कि मैं उन्हें इस तरह देखता हूँ। सच पूछिए तो सिर्फ मैं ही उन्हें देखना नहीं चाहता हूँ अपितु आपको भी उनके दर्शन कराना चाहता हूँ। वह देखने में मनुष्य जैसे ही लगते हैं बिल्कुल आम आदमी की तरह। उन्हें दो आँखें हैं, दो कान हैं और मुँह भी है। आँख,कान का उपयोग वे पर्याप्त रूप से करते हैं लेकिन मुँह का उपयोग बड़ी सावधानी और सतर्कता से करते हैं। मानो शरीर के अंगों में सबसे उपयोगी और बेशकीमती उनका मुँह ही हो। उनसे आप मिल सकते हैं। उनका सानिध्य प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए वे आपको मना नहीं कर सकते पर उनकी आवाज सुनने का सुनहरा अवसर शायद ही आपको प्राप्त हो सके। मुझे उनसे मिलते हुए बहुधा एहसास होता है कि वह बड़ी मितव्ययिता से मुँह का उपयोग करते हैं। कभी-कभी तो ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है कि मुझे संदेह होने लगता है कि हजरत को मुँह है भी या नहीं? इसी अंदेशे में मैं उन्हें बार-बार देखता हूँ। मैं उनका मुँह देखता हूँ और वह मेरा मुँह ताकते हैं। अगर किसी अपरिचित को कोई इस तरह देखे तो वह मारपीट पर भी उतर आए। शुक्र है कि लंबे अरसे से मेरा उनका परिचय है। वह मुझे भली-भाँति जानते हैं गो कि आज भी मैं उन्हें ठीक से जान नहीं पाया हूँ। मुझे मालूम नहीं इस दुनिया से हम दोनों में पहले कौन विदा होगा। अगर मैं पहले विदा हो गया तो यह अफसोस अपने साथ लिए जाऊँगा कि मैं उन्हें जान नहीं पाया। अगर वह पहले विदा हो गए तो उन्हें दिली तसल्ली होगी कि एक घनघोर पढ़ाकू लेखक भी उन्हें पहचान नहीं पाया, उनका फेस रीडिंग नहीं कर पाया। मेरे भौतिक जीवन में वह एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर कर आए हैं। मैंने उन्हें कई बार पढ़ना चाहा है जानना- पहचानना चाहा है लेकिन वे अपना रहस्य खोलते नहीं है,भयंकर तूफान भी आ जाए लेकिन वह बोलते नहीं हैं।
कभी-कभी उन्हें मैं कष्ट में देखता हूँ। दुनियावी तकलीफ़ें उन्हें भी होती है, मुझे भी और उनके, मेरे साथ अन्य साथियों को भी। गजब की सहनशीलता है उनमें। चेहरे पर दुखजन्य कोई भाव दृष्टि गोचर नहीं होता। किस ग्रह गोचर में उनका इस धरा- धाम अवतरण हुआ है। प्रकाण्ड ज्योतिषी भी नहीं बतला सकते। कभी-कभी जब हम सब कष्ट में होते हैं उनसे निवेदन करते हैं कि हम सब मिलकर इसका निदान ढूँढें। फिर भी वह मुँह नहीं खोलते हैं। हम समझते हैं कि वह इतने गुरु गंभीर आदमी हैं कि अगर एक बार मुँह खोल दें तो बड़ा से बड़ा आदमी भी उनकी बात नहीं काट सकता लेकिन ऐसे अवसरों पर वे नदारद हो जाते हैं या बड़ी चतुराई से भीड़ में गुम हो जाते हैं। सामूहिक समस्या के समाधान के लिए दबाव बनाने पर साथ जरूर चलेंगे लेकिन ऐन वक्त पर वह स्पीकर को स्विच ऑफ कर देते हैं। हम अपना धैर्य खो देते हैं। गरमा-गरम बहस में कूद पड़ते हैं।हमारे होंठ फड़कने लगते हैं और उनके होठों पर मंद मंद मुस्कान तिरने लगती है जिसे वह बड़ी चतुराई से छिपाने की कोशिश करते हैं। हाकिम फरियाद नहीं सुनता है तो गुस्सा आता है लेकिन फरियादियों का ही एक साथी जब अपने साथियों को जूझते देख मुस्कुराए तो क्या कहेंगे आप?क्या करेंगे आप ? पानी पर लाठी पीटकर जब हम लौटने लगते हैं तो कतार में वे सबसे पीछे होते हैं भावशून्य चेहरा लिए उनकी वापसी ऐसे होती है जैसे कोई श्मशान यात्रा से लौट रहा हो। उनकी चुप्पी का यह मतलब नहीं कि वह अस्वस्थ हैं, वह पूरी तरह स्वस्थ हैं अर्थात स्व में स्थित। ऐसे स्वस्थ लोगों की दुनिया अस्वस्थ लोग चलाते हैं। मेरा लेखक-मन उनके मौन का रहस्य जानना चाहता है। आप भी जानने के लिए बेताब होंगे। सूचनार्थ बतला दूँ कि उनका भरा-पूरा परिवार है। कहते हैं कि इसी भावशून्यता में वह परिणय-सूत्र में बंध गए और इसी भावशून्यता में उन्होंने हिंदुस्तान की जनसंख्या में यथाशक्ति इजाफा भी किया। मित्रों ने जब कभी बधाई दी कि आप पिता बन गए तो उन्होंने मंद मुस्कान के साथ स्वीकृति में सर हिलाया जैसे पड़ोसी मुल्क में कोई बच्चा पैदा हो गया हो। ऐसा वीतरागी मनुष्य शायद ही देखने को मिले। उनकी चिर शांत मुद्रा एवं चेहरे पर परम शून्य भाव देखकर विधाता अपनी इस सार्थक सृष्टि पर गर्व महसूस करते होंगे।
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ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।