आबल-ताबल – ललन चतुर्वेदी
परसाई जी की बात चलती है तो व्यंग्य विधा की बहुत याद आती है। वे व्यंग्य के शिखर हैं – उन्होंने इस विधा को स्थापित किया, लेकिन यह विधा इधर के दिनों में उस तरह चिन्हित नहीं हुई – उसके बहुत सारे कारण हैं। बहरहाल कहना यह है कि अनहद कोलकाता पर हम आबल-ताबल नाम से व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ शुरू कर रहे हैं जिसे सुकवि एवं युवा व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी ने लिखने की सहमति दी है। यह स्तंभ महीने के पहले और आखिरी शनिवार को प्रकाशित होगा। आशा है कि यह स्तंभ न केवल आपकी साहित्यिक पसंदगी में शामिल होगा वरंच जीवन और जगत को समझने की एक नई दृष्टि और ऊर्जा भी देगा।
प्रस्तुत है स्तंभ की तीसरी कड़ी। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
कुत्ते कभी दुखी नहीं होते
ललन चतुर्वेदी
कुत्ते बड़े पहुँच वाले प्राणी होते हैं। उनके संपर्क–सरोकार हर जगह हैं। वे गलियों के राजा हैं तो महलों के शेर भी।इतना विडम्बनापूर्ण जीवन शायद किसी प्राणी का नहीं है।बड़ी बात यह है कि वे धर्मनिरपेक्ष होते हैं और कर्मनिरपेक्ष भी। उनका एक ही धर्म है कुत्तागिरी।वे स्वधर्म को कभी नहीं त्यागते।शेष धर्मों के मामले में वे समदर्शी हैं।वे किसी भी धर्म के अनुयायी के साथ आसानी से एडजस्ट हो जाते हैं।वे मंदिर,मस्जिद और गिरिजाघरों की देहरी के आसपास बेफिक्र घूमते-टहलते दृष्टिगोचर हो जाएंगे। कर्मनिरपेक्षता तो ऐसी की उसकी कोई मिसाल नहीं। यह मत कहिए कि वे काम नहीं करते। बिना काम किए उन्हें खाने-पीने की सामग्री उपलब्ध हो जाती है। अगर एकाध शाम नहीं भी मिला तो संतुष्ट भाव से जी लेते हैं।पर ऐसा कम ही होता है। इस देश के लोग दयालु हैं और कुत्ते का इंसान से कहीं अधिक खयाल रखते हैं। कुत्ते को देखते हुए मुझे मलूकदास की पंक्ति पर पूरा भरोसा हो चला है- सबके दाता राम।कुत्ते को निकम्मा कहना सरासर नाइंसाफ़ी है। वे हरदम दौरे पर होते हैं।उन्हें आप हरदम व्यस्त पाएंगे। लगता है कि आज की शाम उन्हीं के दरवाजे पर बारात आने वाली है और सारी व्यवस्था उन्हीं के माथे पर है।मुझे मालूम नहीं किस सिरफिरे ने उनके साथ बड़ी नाइंसाफी करते हुए यह लोकोक्ति गढ़ दी- “कुत्ता को काम नहीं और दौड़ने से फुरसत नहीं।” निश्चित रूप से उसे कभी कुत्तों ने दौड़ाया होगा। अब कहते हैं न अमीन का बिगाड़ा हुआ गाँव और बाप का बिगाड़ा हुआ नाव(नाम) कभी नहीं सुधरता है।
हम इन्सानों की फितरत ही ऐसी है कि हमने इतने भलेमानस प्राणी का भी बंटवारा कर दिया है।जैसे मुझे ही ले लीजिए, महलों के कुत्ते की चर्चा करनी है तो गलियों के कुत्ते की भी घसीट कर लाना पड़ रहा है। मजबूरी है। दोनों को आमने-सामने रख कर बात करने से विवेचन करने में सुविधा होती है। यह चीजों को देखने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। तो आइये,महलों के कुत्तों से आपको मिलवाते हैं। इनसे मेरी मुलाक़ात यदा-कदा होती रहती है।अधिकांशतः हम गली वाले का सामना करते हैं।यह भी संयोग है कि कभी महल और गली वाले दोनों आपस में टकरा जाते हैं। कभी दोनों एक-दूसरे को सूंघ कर हाल-चाल का आदान-प्रदान करते हैं। एक दूसरे को “हग’ करने की जैसे ही कोशिश करते हैं कि उनका मालिक बेल्ट तान देता है। महलों के कुत्ते का अरमान आंसुओं में बह जाता है। वह जम्हाई लेने जैसे स्टाइल में अपना दर्द इजहार कर आगे बढ़ने के लिए विवश हो जाता है।पर सब दिन एक सामान नहीं होते। हुआ ये कि एक दिन मालिक के हाथ से रस्सी छूट गई। उस दिन महल के कुत्ते ने आजादी का भरपूर लाभ उठाया। उसे मुक्त देखकर सबसे पहले गली के कुत्तों ने ज़ोर-ज़ोर से भौंक-भौंक कर उसका अभिवादन किया। महल वाले ने पूंछ हिला-हिलाकर उनका अभिवादन स्वीकार किया। अपने बड़प्पन का परिचय देते हुए महल वाले ने गंभीरता से संक्षिप्त वक्तव्य दिया। उसकी भाषा भी नस्ल के मुताबिक थोड़ी उन्नत थी। कुछ बातें गली वाले के सिर से ऊपर से गुजर जाती थी तो आपस में ही वे कुकरघौञ्ज करने लगते थे। तब बूढ़ा कुत्ता उन्हें आलाकमान की तरह डांट कर चुप करा देता था। तय यह होता कि शाम की आम सभा के बाद कुकुर-संघ के प्रवक्ता सब को संबोधित करेंगे। अनधिकृत रूप से किसी को अनर्गल बयानबाजी करने का कोई अधिकार नहीं है। महल में रहने वाले कुत्ते से मिलकर गली वाले कुत्ते अपने को सौभाग्यशाली समझने लगते थे। होता है,ऐसा होता है। बड़े लोगों से मिलने के बाद छोटा आदमी भी थोड़ी देर के लिए बड़प्पन का चादर ओढ़ लेता है। लेकिन उसका बिवाई वाला पाँव उसकी कलई खोल ही देता है। प्यारेलाल जी कहा करते हैं-बड़े आदमी के साथ उठना-बैठना तक तो ठीक है लेकिन वे जो करते हैं,वैसा करना ठीक नहीं। इस सारगर्भित बात की व्याख्या कभी बाद में। फिलहाल गली के कुत्ते की ओर लौट रहा हूँ। गली के कुत्तों में इस बात पर घमासान मचा हुआ था कि हमारा भी कोई जीवन है।दूसरे के जूठे टुकड़े पर पूरी जिंदगी गुजार देते हैं और किसी पहिये की नीचे दब कर प्राण गंवा देते हैं।माहौल गमगीन देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।कुत्ते इस तरह शांत होकर बैठे हुए थे मानों अपने प्रियजन की मौत पर मातम माना हो रहे हों। उसी समय महल का कुत्ता गरदन में नई रस्सी पहनकर सामने से आता दिखा। वह आज बहुत खुश दिख रहा था। सारे कुत्ते उसकी आगवानी में इकट्ठे हो गएं। रईस कुत्ते ने अगला पैर उठाकर गली के बूढ़े कुत्ते की पावलागी की। रईसी अपनी जगह लेकिन सीनियरिटी का मान रखना वक्त का तकाजा है। बूढ़े कुत्ते ने ‘जियो राजकुमार’ कह कर उसे आशीषा। अब महल के कुत्ते की बारी थी।आज जी भर कर उसने मन का गुब्बार निकाला- तुम लोग समझते हो कि मैं राजा की ज़िंदगी जी रहा हूँ। यह तुम्हारा भ्रम है। असली ज़िंदगी तो तुमलोग एंजॉय कर रहे हो। आजादी का अपना सुख है।मैं महल में रहकर,राजसी भोजन खा कर भी गुलाम की ज़िंदगी जी रहा हूँ।मुझसे बेहतर तो तुमलोग हो। गली के कुत्तों को अपने आप पर बहुत गर्व महसूस हुआ। सबने मिल कर ज़ोर-ज़ोर से नारा लगाना शुरू किया- ‘आजादी जिंदाबाद।’आजादी अमर रहे।’ बूढ़े कुत्ते के संकेत पर सब थोड़ी देर बाद मौन हो गए। तब बूढ़े कुत्ते ने कहा- तुमलोगों को मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। यहाँ राजा भी दुखी है,प्रजा भी दुखी है,योगी भी दुखी और रोगी भी दुखी है। यह सोग मनाने का समय नहीं है। यकीन मानो हम सुखी हैं।जानते हो हमारी जाति क्या है- कुत्ता और कुत्ते कभी दुखी नहीं होते।
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लेखक परिचय
ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।