आबल-ताबल – ललन चतुर्वेदी
परसाई जी की बात चलती है तो व्यंग्य विधा की बहुत याद आती है। वे व्यंग्य के शिखर हैं – उन्होंने इस विधा को स्थापित किया, लेकिन यह विधा इधर के दिनों में उस तरह चिन्हित नहीं हुई – उसके बहुत सारे कारण हैं। बहरहाल कहना यह है कि अनहद कोलकाता पर हम आबल-ताबल नाम से व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ शुरू कर रहे हैं जिसे सुकवि एवं युवा व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी ने लिखने की सहमति दी है। यह स्तंभ महीने के पहले और आखिरी शनिवार को प्रकाशित होगा। आशा है कि यह स्तंभ न केवल आपकी साहित्यिक पसंदगी में शामिल होगा वरंच जीवन और जगत को समझने की एक नई दृष्टि और ऊर्जा भी देगा।
प्रस्तुत है स्तंभ की पहली कड़ी। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
रइसों की पहचान उनके कुत्तों से होती है
प्यारेलाल जी अपने ड्रेस डेकोरम के प्रति बहुत संजीदा हैं। अलग-अलग समय के अलग-अलग कपड़े।हम आम आदमी इस तरह के शौक या लफड़े में नहीं पड़ते खैर,पसंद अपनी अपनी ख्याल अपना-अपना। आदतन एक सुबह जब सैर पर निकला,प्यारेलाल जी टकरा गए , मेरी नजर चेहरे से पहले उनके जूते पर चली गई और जाती भी क्यों नहीं? उनकी खासियत यह है कि वह बड़े चमकदार जूते पहनते हैं।मैं थोड़ी देर ठिठक कर उनके जूते का मुआइना करता रहा, उनसे जब रहा नहीं गया तो भड़क उठे –”सुबह-सुबह इस तरह क्या देख रहे हो ? हाल-चाल दुआ-सलाम का न्यूनतम शिष्टाचार भी भूल गए ! जरा सिर उठाकर नजरें तो मिलाओ।” मैंने खेद व्यक्त करते हुए कहा–“प्यारे भाई! दरअसल आपके जूते इतने चमकदार होते हैं कि आदमी की नजरें ही नहीं हटतीं। आदमी चाहे तो अपना मुंह भी उसी में देख ले।” प्यारेलाल जी ने अपने जूत्ते की इतनी तारीफ से फूले नहीं समा रहे थे। उन्होंने अपना जूता आख्यान शुरू किया -“किसी चीज की इज्जत करना सीखो। कुल और कपड़ा जोगाने(सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखने से) से बचते हैं। तुम विश्वास नहीं करोगे मेरे जूते सतरह साल पुराने हैं।”उनकी यह बात सुनकर तो मेरा मुंह खुला का खुला रह गया।मैंने कहा-“प्यारे भाई! सतरह साल की उम्र में आपके जूते कोमल किशोर की तरह दिख रहे हैं।आखिर इसका राज क्या है?”
“सुबह उठकर प्रतिदिन पॉलिश करता हूं। इसे विटामिन डी की आपूर्ति करने के लिए कायदे से सूर्य-स्नान भी कराता हूं।”
“जूते की इतनी हिफाजत!”- इस वाक्य को सुनने के बाद प्यारेलाल जी ने बड़े गर्व से कहा- “जानते हो रईसों की पहचान उनके जूतों से होती है।”
मैंने विनम्रता पूर्वक कहा -“प्यारे भाई!वह पुराना फिल्मी संवाद अब मत दोहराइए।जमाना बहुत एडवांस हो गया है।अब रईसों की पहचान उनके कुत्तों से होती है।” प्यारेलाल जी मेरी नई स्थापना से चौंक उठे। मैंने उन्हें सचेत किया-“अभी आप कुत्ते की कीमत नहीं जानते ! देखिए,सामने से जो मैडम गोल्डी को लेकर टहला रही हैं वह विदेशी नस्ल का है और उसकी कीमत हजारो रुपए नहीं हजारो डालर है।यह आयातित है, मैडम जब उसके साथ चलती हैं तो कुत्ते के कारण उनका भी रुतबा थोड़ा बढ़ जाता है।लगता है कि रैंप पर चल रही हैं खैर,उनकी बात छोड़िए। उनका अपना नसीब है साधारण आदमी अब भी देसी नस्ल पर ही संतोष किए बैठा है। मगर जो बड़ा रईस है वह देसी को कब का बाहर रास्ता दिखा चुका है। जो जितना बड़ा रईस है उसका कुत्ता भी उतना ही रईस और कीमती है और आयातित कुत्तों की आमद से उनकी रईसी में जो इजाफा हुआ है उसके बारे में बताना शुरू करूंगा तो आपकी आंखे खुली रह जाएगी। शेयर बाजार में जैसे उछाल आता है,कुत्ते के आने के कारण उनके जीवन में ऐसा ही कुछ उत्साह और उछाल आया है, दुआ है कि सबके दिन वैसे ही फिरे। यकीन मानिए जो सचमुच रईस माने जाते हैं और जिनको ध्यान में रखकर कहा जाता है कि समय कीमती है, वे इनसानों से कहीं अधिक अपना समय अपने कुत्तों को देते हैं आखिर कुछ तो कारण है।” प्यारेलाल जी को मेरी बातों से थोड़ा झटका लगा। थोड़ी देर के बाद संयत हुए और अफ़सोस व्यक्त करते हुए कहा- “सब समय की बात है। आज के जमाने में आश्चर्यजनक रूप से कुत्तों की कीमत और इज्जत बढ़ गई है ऐसा कभी सोचा नहीं था।आदमी अब कुत्तों के बलबूते अपनी रईसी झाड़ने लगा है जिसके पास जितने कुत्ते ,वह उतना ही बड़ा रईस।”
मैंने मुस्कुराते हुए कहा-“अब भी मेरी बातों पर विश्वास नहीं है तो इसके सत्यापन के लिए गूगल पर ऑनलाइन रिव्यू पढ़ने के लिए नहीं कहूँगा। आंखोदेखी सबूत चाहिए तो कभी डॉक्टर शर्मा के पास जाइए। घंटों मरीज लाइन में धूप तापते रहते हैं और वह कुत्ते को गार्डेन में टहलाते रहते हैं।पूरे प्रांत के लोग उनका बाट जोहते रहते हैं और वह कुत्ते से खेलते रहते हैं। शायद कुत्ते से अपनी टेंसन–थेरेपी करते हैं। रात में दो बजे तक मरीज़ देखते है अब बोलिए कुत्ते इंसान से अधिक महतवपूर्ण हैं कि नही?सो अपने दक़ियानूसी विचारों से छुटकारा पाइए और जूते में अपनी शक्ल देखकर खुश होने के बजाय घर में कोई विदेशी मेहमान लाइए। घर की रौनक बढ़ाइए। अपनी रईसी के ओल्ड मॉडल अर्थात इस सतरहवर्षीय जूते को अलविदा कह ब्रांडेड स्पोर्ट शू पहन कर अपने प्यारे विदेशी मेहमान के साथ सुबह की सैर को खुशगवार बनाइये।प्यारेलाल जी की आंखे चमक उठी- “तुमने गज़ब का आइडिया दिया मैं जल्द ही चंचला के बर्थ डे पर सरप्राइज़ गिफ्ट दूंगा- सबसे कीमती तोहफा!मेरे पास क्या नहीं है एक आयातित कुत्ते के सिवा। अब देखेंगे हमारे मोहल्ले के लोग!” मैं कहना चाह रहा था-” ये हुई न बात।” मगर प्यारेलाल जी के पैरों में पंख लग गए थे। एक अदद कुत्ते की कमी को वह गंभीरता पूर्वक महसूस कर रहे थे। (….जारी)
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लेखक परिचय
ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।
कुत्ते के कारण उनका भी रुतबा थोड़ा बढ़ जाता है
घंटो मरीज लाइन में धूप तपते रहते हैं और वह गार्डन में टहलते रहते हैं।
बढ़िया व्यंग्य है।यह श्वान पुराण अपना असर छोड़ने में कामयाब हुआ है। सत्रह शब्द की वर्तनी में सुधार अपेक्षित लग रहा है।
धन्यवाद सर !