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Home कविता

ललन चतुर्वेदी की शीर्षकहीन व अन्य कविताएं

by Anhadkolkata
February 4, 2023
in कविता
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ललन चतुर्वेदी

कविता के बारे में एक आग्रह मेरा शुरू से ही रहा है कि रचनाकार का मन कुम्हार  के आंवे की तरह होता है – हर समय और हर एक वर्तन एक तरह के नहीं निकलते। आप कविता का पूरा इतिहास खंगाल लिजिए, आपको एक भी कवि ऐसा नहीं मिलेगा जो मुकम्मिल हो या इसका दावा करे। यदि वह सचुमच कला को प्रेम करता है और लगभग साधना की हद तक उसमें तल्लीन है।

इसलिए रचना करना कभी आसान नहीं रहा। गाना और रोना तो लगभग सबको आता है लेकिन क्या बस इसी कारण से सबको गायक या रूदाली माल लिया जाय। कविता अपने अंतस की खूब गहराइयों में जाकर सत्य की खोज की एक निरंतर प्रक्रिया है, बाहर के दृश्यों में धंसकर उन्हें अपने मंथन गृह में रख लेने और उसे पचा लेने का एक लंबा धुन है – इसलिए वह उस तरह आसान नहीं है जिस तरह समझ लिया जाता है बरंच समझ लिया गया है।

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लेकिन कुछ लोगों की आवाज ही इतनी मीठी होती है कि वे थोड़े-से भी सुर में गाने लगें तो बस सुनते जाने का मन करता है।  इसका मतलब यह नहीं कि वे उस्ताद हो गए हैं। उस्ताद बनते-बनते पूरी उम्र लग जाती है। तब भी कितने कम लोग उस्ताद हो पाते हैं, कितने कम लोग कलाकार-रचनाकार हो पाते हैं।  इन विन्दुओं का जिक्र इसलिए कि ललन चतुर्वेदी किसी उस्ताद कवि की तरह नहीं आते, उन लोगों की तरह तो नहीं ही जो जन्मते ही उस्ताद हो जाते हैं। ललन जी आद्यन्त सुर में रहते हैं, कहीं भी इनका सुर लड़खड़ाता नहीं। यह एक बड़ी विशेषता बहुत कम कवियों में देखने को मिलती है।

दूसरी बात यह कि ललन अपने अनुभव की मिट्टी से विस्मित करने वाली कविताएँ गढ़ने में सक्षम दिखाई देते हैं। यह संभावना उन्हें कवियों की कतार में एक मजबूत जगह देगी – इसी यकीन के साथ आइए पढ़ते हैं, मित्र और बड़े भाई ललन चतुर्वेदी की कविताएँ।

आप भी कुछ कहिए न।

 

शीर्षकहीन

(एक)
हाथों में हथकड़ियां
पांवों में बेड़ियां
मुंह पर ताला जड़ा हु‌आ है
जरा नजदीक से देखिए
यह आदमी है तो क्यों
इस तरह खड़ा हुआ है?

(दो)
धरती थोड़ी सी दब जाती है
आकाश थोड़ा सा झुक जाता है
जब भी कोई नक्षत्र टूटता है
मगर यह रोजमर्रा की बात हो गई है
मत पूछना ऐसा क्यों हो रहा है-
अच्छे बच्चे सवाल नहीं करते।

(तीन)
झूठ पहले भी लोग बोलते थे
मगर शायद इस तरह नहीं
इतने सलीके से परोसा जा सकता है चमकदार झूठ
कि सच का चेहरा भी झुक जाता है

 

मुश्किल लगता है झूठ से सच को छांटना

मेरे बच्चे!
इस भयानक समय में
तुम्हारी आंखों की सलामती की दुआ करता हूं
कि तुम तजबीज कर सको सच और झूठ का

और यह भी कि तुम्हारी आंखों में
इतनी हया तो बची रहे कि
कभी झूठ को न परोसो सच की तरह।
भूख का बाजार

भूखा आदमी भूख की चर्चा नहीं करता
सार्वजनिक नहीं करता इस निजी दुःख को
अपनी भूख मिटाने के लिए
कभी अनशन पर नहीं बैठता
भूख की तरह बचाता है
आखिरी सांस तक आत्म सम्मान को।

उसे बड़ा दुःख होता है
जब सभ्य लोग भूख पर सेमिनार करते हैं
खाए पिए अघाए लोग भूख को
स्वादिष्ट व्यंजन की तरह परोसते हैं

वह जानता है
भूख का भी एक बड़ा बाजार है
भूख सियासी युद्ध का एक हथियार है

भले ही किसी की जान निकल जाए भूख से
पर भूख किसी शातिर के लिए रोजगार है

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि
भूख पर उसकी बात कभी नहीं सुनी जाती
जिसे बात कहने का सर्वाधिकार है।

 

प्रतिरोध

तुम्हें नहीं सुनना है, नहीं सुनो
आकाश तो सुन रहा है मेरी बातें
(ध्वनि आकाश का गुण है)

मैं पाताल में भी चला जाऊं
तो क्या फर्क पड़ता है
एक दिन बाहर निकल ही जाऊंगा
किसी न किसी रूप में

मुझे पागल घोषित करने की भूल मत करना
मैं गीता या कुरान पर हाथ रखे बगैर
जब भी बोलता हूं सच बोलता हूं

तुम हरगिज बुद्धिजीवी नहीं हो
बुद्धिजीवी मिट्टी के खिलाफ कभी नहीं बोल सकता
बुद्धिजीवी कभी चुप भी नहीं बैठ सकता
यह दीगर बात है कि
उसकी आवाजें अनसुनी रह जाती हैं

मगर प्रतिरोध दर्ज हो जाता है इतिहास में
क्रूरताओं को माफी तो नहीं दी जा सकती

प्रतिरोध पराजित होकर भी
मुस्कुराता रहता है इतिहास में।

 

आदमी बाजार में खोया हुआ एक अबोध बच्चा है

आप ! आप कहां रह ग‌ए हैं
पूछा है कभी अपने आप से
धीरे-धीरे आप क्या से क्या बन ग‌ए

अब आप स्वयं अपनी पसंद भी नहीं रह ग‌ए
क्या खायेंगे, क्या पहनेंगे, क्या सुनेंगे
क्या देखेंगे, कहां जायेंगे
कुछ भी कहां तय करते हैं आप
और क्या भला है, क्या बुरा है
इतना भी कहां तय कर पाते हैं आप

आपको पता भी नहीं चलता
कि किस तरह आपका कोई निर्माण कर रहा है
इस तरह आप बदल दिए ग‌ए हैं कि
खुद को पहचानना ही हो रहा है मुश्किल

भ्रम में हैं कि आप महानता के जश्न में शरीक हैं
भ्रम में हैं कि आपके समक्ष सारे शुभचिंतक चेहरे हैं
यहां सब दांव लगाए बैठे हैं
आपका भोलापन ही आपके विपक्ष में बैठा है
यहां अज्ञानता भुनाने का कारोबार चरम पर है

आपको पता भी नहीं चल पा रहा है
आपको धकेल दिया गया है विस्मृति के भंवर में

आपकी हालत बाजार में खोए हुए
अबोध बालक सी हो ‌ग‌ई है

बुरा मत मानिए
जो आपका हाथ थाम कर दे रहा है दिलासा
वह आपको घर तक कभी नहीं पहुंचाएगा।

 

यह उदास होने का समय नहीं है

एक नायिका की तस्वीर को
हजारों लोग ‘लाइक ‘कर चुके हैं
तरह- तरह के इमोजी चस्पा हो चुके हैं।

एक निहायत भद्दा पोस्ट पर
कमेंट का रुक नहीं रहा है सिलसिला
शेयर किया जा रहा है लगातार।

एक बौद्धिक शख्स
शरीफों को रोज गालियां बककर
सुर्खियां बटोर रहा है
और कुछ लोग
बौद्धिक जुगाली में व्यस्त हैं
अति उत्साह में हैं कि
अपने विचारों से बदल देंगे दुनिया।

कुछ लोग आज भी
इस आभासी दुनिया से बाहर
सौन्दर्य की तलाश कर रहे हैं
उनका मानना है कि
धीरे-धीरे लोग लौट जायेंगे
सही रास्ते पर

आमने-सामने एक-दूसरे को देखकर
मुस्करायेंगे और गले मिलेंगे।
किताब की दुकानों में रौनक लौटेगी
खरीदेंगे लोग किताबों के साथ जिल्द
पढ़ेंगे और रखेंगे सुरक्षित बच्चों के लिए भी

फिर से लोग सुनेंगे महेन्द्र मिश्र के गीत
फिर से प्रकट होंगे भिखारी ठाकुर
इतिहास स्वयं को दोहराता है

क्यों निराश हुआ जाए
कविते!अभी उदास होने का समय नहीं है।

 

सौन्दर्य

अब भी रंग के मामले में लोगों के दिल तंग है
पृथ्वी के एक ही हिस्से के बारे में लोगों के अलग-अलग मत हैं
चमकीली धूप किसी की तिलमिलाहट के लिए काफी है
किसी को दिन तो किसी को अंधेरी रात बहुत प्रिय है
नींद से बोझिल उनकी आंखें उषा की किरणों को कोसती हैं

कुछ लोग सुबह को स्थगित कर देना चाहते हैं
संध्या किसी के लिए उदासी लाती है
वहीं कवि की आंखों में उतरती है संध्या-सुंदरी धीरे-धीरे

किसी के लिए पहाड़ तो किसी के लिए मैदान सुंदर है
हम अब भी चीजों को समग्रता से कहां देख पाते हैं
सचमुच हम कितने नौसिखुए हैं
जब तक हम ठीक से सीख नहीं लेते प्रेम करना
हमें कुरूपता ही नजर आयेगी

सारी इबारतें सुंदर हैं
प्रेम से हस्ताक्षर तो कीजिए।

 

झुकना

क्या हो यदि सूर्य की किरणें हो जाएं ऊर्ध्वगामी
क्या हो यदि पहाड़ों पर चढ़ने लगे नदी का पानी
क्या हो यदि सारे वृक्षों की शाखाएं हो जाएं उदग्र

क्यों सारी प्रकृति धरती की ओर लौटती है
क्यों नहीं बनाती गगन को अपना बसेरा

नजरें झुका लेने से बढ़ जाता है सौन्दर्य
कौन पसन्द करता है तनी हुई आंखें
नीचे की ओर जाना नीचता नहीं है
अंततः सब नीचे जाने के लिए बने हैं

नीचे आती हुई शाखाएं हमें देतीं हैं छांव
नीचे बहती हुई नदियां बुझातीं हैं प्यास
नीचे आती हुईं सूरज की किरणें
धरा पर फैलाती हैं उजास

बिना झुके हुए कहां होती है प्रार्थना स्वीकार
झुकना हमेशा पराजय नहीं है

देखना ही है तो देख लो
झुके हुए वृक्षों का सौन्दर्य
और पूछ लो गीत गाती हुई नदियों से
बलखाती घाटियों में रुकती हुई, झुकती हुई
नीचे और नीचे बहने का आनन्द।

                                                        ***

 

ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।

 

 

 

 

Tags: Lalan Chaturvedi Vimlesh Tripathi कविता अनहद कोलकाताललन चतुर्वेदीललन चतुर्वेदी की कविताएँ
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