शहंशाह आलम महत्वपूर्ण कवि एवं समीक्षक हैं। इधर उन्होंने कहानियाँ लिखनी शुरू की हैं। प्रस्तुत है उनकी यह कहानी।
आदमी रखने वाला पिंजड़ा
■ शहंशाह आलम
मेरे लिए आज की सुबह रोज़ के जैसी वाली ही सुबह थी। फ़र्क़ बस इतना-सा मुझे महसूस हुआ कि फ़ज्र की नमाज़ के लिए दी जाने वाली अज़ान की आवाज़ मस्जिद से मेरे घर तक आज नहीं आई। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मौसम तेज़ गर्मी का हो या सख़्त जाड़े का, कभी ऐसा नहीं हुआ कि मस्जिद से अज़ान की आवाज़ नहीं आई हो। मान भी लें कि मेरे घर से नज़दीक वाली मस्जिद के लाउड स्पीकर में कोई ख़राबी आ गई हो और मोअज़्ज़िन साहब ने मस्जिद के गुंबद पर चढ़कर बाआवाज़ अज़ान दे दी हो। मगर ऐसा कैसे हो सकता था कि आसपास की किसी मस्जिद से अज़ान की आवाज़ ही सुनाई न दे?
‘छोड़िए न अज़ान के नहीं आने की झंझट। जमात का वक़्त हो गया है। जाइए न मस्जिद, बाजमात नमाज़ पढ़ आइए।
यह मेरी बीवी की शहद से भरी हुई आवाज़ थी। नमाज़गुज़ार औरत थी। सच पूछिए तो अल्लाह मियाँ के ख़ौफ़ से ज़्यादा बीवी के डर से रोज़ फ़ज्र की नमाज़ के लिए वुज़ू करके मस्जिद के लिए निकल पड़ता हूँ। वरना कौन अच्छी-भली नींद को छोड़कर भोरे-भोर बिस्तर से उट्ठे।
‘आप फिर असकता रहे हैं जी, नमाज़ जमात के साथ पढ़ेंगे, तो इसका सवाब भी आप ही को मिलेगा।’ बीवी ने प्यार से गाल पर हाथ फेरते हुए कहा।
‘जा ही तो रहे हैं बेगम!’ मैंने उसकी तरफ़ प्यार भरी नज़रों से देखते हुए कहा।
‘अपने लाडले को भी साथ लेते जाइएगा। मालूम है न, लड़का जब नौ साल का हो जाए, तो नमाज़ उस पर भी फ़र्ज़ हो जाती है?’
‘हाँ जी, हमको भी मालूम है कि …’
‘उहूँ, मुझे ख़ूब पता है, अपने दीन व मज़हब के बारे में कितनी जानकारी आपको है …,’ बीवी ने मेरी बातों को काटते हुए कहा, ‘ये टीवी वाले इसीलिए रामायण, कृष्ण और महाभारत जैसे सीरियल बार-बार दिखाते हैं ताकि बाक़ी मज़हब को मानने वाले लोग एक-दूसरे का मुँह ताकते रहें बस। इन चैनल वालों को क्या नहीं पता होता कि जितने पैसे रामायण, कृष्ण और महाभारत देखने वाले देते हैं, तो हम भी तो उतने ही पैसे देते हैं, उनके चैनल को देखने के लिए। फिर वे हमसे जुड़ी कहानियों वाले सीरियल हमको काहे नहीं दिखाते हैं?’
मैंने अपनी बेगम कोई जवाब नहीं दिया। मुझे लगा, थुक्काफ़ज़ीहत से अच्छा है, मस्जिद जाकर नमाज़ पढ़ आऊँ।
मेरी बीवी ने ठीक कहा था कि मुझे रोज़े-नमाज़ की बारीक जानकारी नहीं थी। यही वजह थी कि वह हर नमाज़ जमात के साथ यानी नमाज़ियों की पंक्ति के साथ पढ़ आने की ज़िद करती ताकि नमाज़ पढ़ने का पुण्य मिले।
मैंने अपने दस साल के बेटे शायान को सुबह की नमाज़ के लिए तैयार करके साथ लिया और मस्जिद जा पहुँचा। बाक़ी नमाज़ी भी मस्जिद आ पहुँचे थे।
‘नमाज़ के बाद थोड़ी देर के लिए आप सभी नमाज़ी ठहर जाएँगे। एक निहायत ज़रूरी मसले पर गुफ़्तगू होगी।’ मस्जिद के पेश इमाम ने जब यह कहा था, तब उनका चेहरा, काफ़ी गंभीर था।
‘अब्बा, हम नै रुकेंगे! नमाज़ पढ़कर घर चल जाएँगे!’ मेरे बेटे ने मुँह बनाकर धीरे से मेरे कान के नज़दीक अपना मुँह करके कहा।
‘ठीक है। सीधे घर चले जाइयो। दिन-जमाना ठीक नै है। अभी कुछ रोज़ से पता नहीं क्या हो रहा है कि दूसरे मुहल्ले के कई बच्चे और बड़े लोग अचानक से लापता हो जा रहे हैं।’ मैंने बेटे को मौक़े की नज़ाकत समझते हुए नमाज़ के बाद अकेले घर जाने की इजाज़त दे दी थी। वैसे भी फ़ज्र की नमाज़ पूरी होते-होते सूरज पूरब से नमूदार होने की तैयारी में लग जाता रहा है। सूरज के उजाले में अपने छोटके बेटे को अकेले घर भेजने में कोई हर्ज मुझे नहीं लगा।
नमाज़ वग़ैरह से फ़ारिग़ होकर मस्जिद आए सारे नमाज़ी पेश इमाम के आसपास घेरा लगाकर बैठ गए। उन्होंने सारे नमाज़ियों पर अपनी निगाह डालते हुए अपनी आवाज़ की गंभीरता को बनाए रखते हुए कहा, ‘आप सब जानते हैं कि नमाज़ हर मुसलमान औरत और मर्द पर फ़र्ज़ है। अल्लाह की किताब क़ुरान शरीफ़ में यह साफ़ ताक़ीद की गई है कि नमाज़ पढ़ने से हम बुरे कामों से दूर रहते हैं …’
‘अल्लाह ने आपको हमारा अगुआ बनाया है। नमाज़ के बारे में तो हम सभी जने जानते हैं। यह न बताइए कि क्या बात बताने के लिए आपने हम सबको रोका है?’ एक नमाज़ी ने पेश इमाम को बीच में टोकते हुए कहा। उसको घर पहुँचने की जल्दी थी।
बीच में टोकाटोकी से पेश इमाम नाराज़ नहीं हुए। बस उन्होंने टोकने वाले पर एक नज़र डालकर अपनी बात को बढ़ाते हुए कहा, ‘इस बात को ध्यान में रखें कि आप जहाँ बैठे हैं, वो अल्लाह का घर है। यहाँ अदबो-एहतराम का ख़ास ख़्याल रखें। कोई भी बातचीत आगे बढ़ाने से पहले हम दुरूद शरीफ़ पढ़ लें।’
फिर इमाम ने दुरूद शरीफ़ को पढ़ा और उनके साथ हम सबने उस दुरूद को दोहराया। दुरूद पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद व उनके आल पर रहमत की ख़ातिर भेजी जाती है। दुरूद के बाद इमाम ने बोलना शुरू किया, ‘क़ुरान अल्लाह की भेजी आख़िरी किताब है। इस किताब में ज़र्रा बराबर कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। इस किताब की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी ख़ुद अल्लाह ने ले रखी है। तब भी, कुछ सिरफ़िरे लोग, अल्लाह की भेजी इस किताब पर अक्सर उँगलियाँ उठाते रहते हैं। अब अपने मुल्क भारत को ही लीजिए। यहाँ हर धर्म को मानने वाले लोग रहते हैं। सबकी अपनी-अपनी धार्मिक किताबें हैं। हमारे मुल्क के संविधान ने सभी लोगों को अपने-अपने मज़हब पर रहने का इख़्तियार दे रखा है। लेकिन हमारे मुल्क के हालात दिनोंदिन बदल रहे हैं। मुल्क का एक ख़ास तबक़ा रोज़ हमारे दीन के ख़िलाफ़ साज़िशें रचने में लगा हुआ है। यह तबक़ा कभी क़ुरान शरीफ़ को सुप्रीम कोर्ट ले जाता है। कभी हमारी औरतों को परदा करने से रोका जाता है। कभी लाउड स्पीकर से दी जाने वाली अज़ान से दिक़्क़त होने की बातें करता है। मेरा सवाल आप सबसे बस इतना है कि क्या यह लाउड स्पीकर सिर्फ़ मस्जिदों में लगे हुए हैं?’
सभी ने लगभग एक स्वर में कहा, ‘नहीं, लाउड स्पीकर मंदिरों में, गुरुद्वारों में, चर्चों में भी लगे होते हैं।’
‘क्या हमने कभी दूसरे की मज़हबी किताबों पर उँगलियाँ उठाई हैं? क्या हमने मंदिरों में, गुरुद्वारों में, चर्चों में लगे लाउड स्पीकर से दिए जाने वाले धार्मिक प्रवचनों के ख़िलाफ़ शिकायतें की हैं?’
‘नहीं, हमने ऐसा कभी नहीं किया। क्योंकि इस्लाम सबके मज़हब को इज़्ज़त की निगाह से देखता है।’ यह बात भी एक साथ सबने कही थी।
‘सही कह रहे हैं आप सब, हमारे मुसलमान भाइयों ने ऐसा कभी नहीं किया। क्योंकि न तो क़ुरान शरीफ़ ने और न तो हमारे आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद साहब ने हमको यह सिखाया है कि हम दूसरों के मज़हब को नीचा दिखाएँ। बल्कि उन्होंने हमको यही सिखाया है कि हम दूसरे मज़हब को उतना ही सम्मान दें, जितना अपने मज़हब को देते हैं।’ इतना कहकर इमाम ने हम सब पर फिर से एक निगाह डाली और कहना शुरू किया, ‘मेरे दीनी भाइयों, मेरी आज की मीटिंग का मतलब यही है कि हमारे मुल्क में जो कुछ भी हमारे दीन के ख़िलाफ़ साज़िशें चलाई जा रही हैं, हमको उन साज़िशों का जवाब नफ़रत से नहीं, मुहब्बत से देना है। हमको अपने पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद साहब के बताए शांति के मार्ग पर चलना है।’
पेश इमाम ने ये सारी बातें काफ़ी सलीक़े से कही थीं। उनके संबोधन के बीच मस्जिद के पुराने पड़ चुके पंखों की खटर-खटर की डरावनी आवाज़ें माहौल में रहस्य से भरे समाँ बाँधती रहीं।
सारे नमाज़ी पेश इमाम की बातों से सहमत थे। तब भी, एक नमाज़ी ने, जिसका नाम अख़्तर अली था, पेश इमाम से सवाल किया, ‘इमाम साहब, हम अपने ही मुल्क में बुज़दिल की तरह से जीते रहें। कोई कभी हमको पाकिस्तानी कहकर बेइज़्ज़त करता है। खोई हमको तालिबानी कहकर हमारे दिलों को ज़ख़्मी करता है। कभी कोई रोहिंग्या कहकर गालियाँ देता है। कभी कोई हमारी शादियों के बहाने हमारा मज़ाक़ उड़ाता है। कभी कोई दूसरी भद्दी बातें करता है!’
पेश इमाम ने अख़्तर अली की तरफ़ एक निगाह डाली और सिर पर बँधा साफ़ा ठीक करते हुए कहा, ‘देखिए, ये सब ग़ौर करने वाली बातें हैं। क्या ऐसी बातें हमारे मुल्क का कोई आम हिंदू भाई कहता है, नहीं कहता। ऐसी बातें जो सियासी लोग हैं, वो करते रहते हैं। ये बातें हमको अच्छे से समझनी होंगी।’ इस बीच मस्जिद की सीलिंग से लगा हुआ एक दूसरा पंखा बुरी तरह यहाँ से वहाँ झूलता रहा। ऐसा लग रहा था अपने से पास वाले किसी पंखे से अब टकराकर ही मानेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह इसी तरह झूलता हुआ इस गर्म माहौल को अपनी ठंडी हवाओं से शांत करता रहा।
‘मौलाना साहब, हम ख़ाक समझें! आप बुज़दिलों वाली बातें करते हैं। कोरोना बीमारी को अपने मुल्क में लाने का इल्ज़ाम भी हम पर लगाया जा चुका है। कोरोना अमेरिका से ट्रंप लेकर आया और बदनाम हमको किया जा रहा है। हमको इसके लिए जेल तक की हवा खानी पड़ी है। अपने मुल्क में अब यह सब जुमलेबाज़ी नहीं चलने दी जाएगी।’ यह एक दूसरे नमाज़ी सलीम की जोश से भरी हुई आवाज़ थी। इस बीच मस्जिद का झूलता हुआ पंखा किसी जानवर की-सी आवाज़ें बदस्तूर निकाले जा रहा था।
मुझे लगा कि कहीं मस्जिद के अंदर ही आपस में कोई विवाद पैदा न हो जाए। बात मस्जिद में लाउड स्पीकर से अज़ान देने और न देने के बारे में होनी थी मगर मुद्दा यहाँ कुछ दूसरा ही उठ रहा था। ई पंखवो को आजे इतना हल्ला करना था। लग रहा था, इसको अलगे ग़ुस्सा आ रहा है कि मस्जिद की कमिटी उसको सर्विसिंग के लिए किसी पंखा बनाने वाले के यहाँ काहे नहीं भिजवाती है। इस पंखे को यह बात नहीं मालूम थी कि मस्जिद के पेश इमाम और मोअज़्ज़िन को तनख़्वाह ढेर दी जा रही है, ऐसे में इसको कहाँ से ठीक कराया जाएगा।
मुझसे रहा नहीं गया। मैंने कहा, ‘इमाम साहब सही कहते हैं कि हमें हमेशा अपने मुल्क के साथ खड़े रहना है।’
‘अब ई एगो अलगे बात कह रहे हैं कि मुल्क के साथ खड़े रहना है? कौन पगला होगा, जो अपने देश के साथ खड़ा नहीं रहेगा? बोलना है तो उ एक ठो पगला कौन भीसी है जी, जिसके कहने से मस्जिद में अज़ान देने से यहाँ की सरकार मनाही का फ़रमान जारी कर चुकी है, उसको बोलिए जाकर! उ भीसी ई काहे नहीं बोलता है कि लाउड स्पीकर पूरे मुल्क में बंद किया जाए। हर धार्मिक स्थल से बंद किया जाए!’
‘अब आप सब आपस में बहसबाज़ी न करने लग जाएँ। हुकूमत ने अज़ान न देने का फ़रमान जारी नहीं किया है बल्कि यहाँ की हुकूमत लाउड स्पीकर से अज़ान देने से मना कर रही है।’ इमाम ने शांत भाव से समझाया, ‘हमें हमारे मुल्क का क़ानून मानना ही चाहिए।’
‘आप भी कैसी-न-कैसी बात करते हैं पेश इमाम साहब, उ भीसी पगलेटे न है … कहता है कि सुबह की अज़ान से उसकी नींद ख़राब हो जाती है। उसको सोने में दिक़्क़त होती है। अपने भारत में ढेरों ऐसे मंदिर हैं, जो मुसलमानों के महल्ले के पास हैं और उन मंदिरों से ठीक सुबह की अज़ान के वक़्त भजन के टेप लाउड स्पीकर से बजाया जाता है, तो उ भीसिया हमको बताएगा कि हमारे मुल्क में मंदिर के लाउड स्पीकर से भजन के लिए अलग क़ानून है और मस्जिद में लाउड स्पीकर से अज़ान देने के लिए अलग क़ानून है क्या?’
‘ये सही कह रहे हैं। अज़ान किसी वक़्त का हो, उसको खतम होने में कितना वक़्त लगता है और मंदिर में जो भजन का गाना बजता है, उसको कितना-कितना समय बजाया जाता है, पहले इसका न जवाब इ ज़ालिम सरकार पूरे मुल्क के हम मुसलमानों को दे!’
मस्जिद का माहौल काफ़ी बहसा-बहसी वाला होता चला जा रहा था।
‘देखिए भाई, यहाँ पर जिस भीसी साहब ने अपनी नींद में ख़लल पड़ने की बात की शिकायत हुकूमत से की है, वो तो यहाँ पर नहीं बैठे हैं, न हुकूमत के लोग यहाँ तशरीफ़ लाए हुए हैं! हमें आपसे बस इतना कहना है कि अब मस्जिद में अज़ान लाउड स्पीकर से नहीं दी जाएगी। आप सभी नमाज़ियों से मेरी यही इल्तिजा होगी कि आप सब पाँचो वक़्त की जमात का ख़्याल रखते हुए मस्जिद में नमाज़ के लिए आते रहें।’
‘लेकिन पेश इमाम साहब, आप जो कुछ भी कहिए, यह हम मुसलमानों पर एक और जुलूम है। आज जो कुछ भी हम सबके साथ हो रहा है, ऐसा तो अंग्रेजवो लोग के समय नै होता होगा!’
पेश इमाम इन बातों का जवाब दिए बग़ैर मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे बची हुई जगह में उनके रहने के लिए बने अपने छोटे-से कमरे में चले गए। सभी नमाज़ी भी अपना-अपना मुँह लटकाए अपने-अपने घरों की तरफ़ निकल लिए। इन सबको मालूम था कि वो इस बतकही के सिवा हुकूमत के ख़िलाफ़ कुछ कर भी नहीं सकते थे। पेश इमाम को भी पता था कि मस्जिद में जिन लोगों ने जो भी बातें कही थीं, सब सच थीं। आज अपने मुल्क का मिज़ाज इतना ख़राब कर दिया गया है कि सिर्फ़ मुसलमान जानकर उसको जान से मार दिया जा रहा था। मार भी उस तरह से रहा था, जैसे मुसलमान इस मुल्क में आदमी न होकर कोई जानवर हो और उस जानवर का मार डाला जाना लाज़मी हो। उनको यह बात भी पता थी कि सिर्फ़ अल्लाह के भरोसे बैठे रहकर हुकूमत के इस ख़ूँख़ार रवैए से छुटकारा नामुमकिन है। लेकिन पेश इमाम कर भी क्या सकते थे। उनकी आँखों के कोर में जमा खारा पानी बाहर आने को बेताब था।
मस्जिद से बाहर आकर मालूम पड़ा कि आज सूरज किस क़दर गर्मी की बौछारें इस पूरे इलाक़े पर बरसा रहा था। मैं तेज़ क़दमों से अपने घर की तरफ़ चल पड़ा था। नहा-धोकर और नाश्ता-पानी करके अपने फलों का हथठेला लेकर मुहल्ले-मुहल्ले जाना भी तो था। अब फल के कारोबार में भी पहले वाली बात नहीं थी। महँगाई इस क़दर बढ़ती चली जा रही थी कि जो आदमी एक किलो सेब ख़रीदता रहा था, अब वो पाव भर भी ख़रीदने से परहेज़ करता था। बाक़ी फलों का भी यही हाल था। इस तेज़ वाली गर्मी में दिन भर हथठेले को लेकर यहाँ-वहाँ बौखते रहने के बाद भी मेरी आमदनी इतनी नहीं रह गई थी कि अपना घर तक अच्छे से चला पाएँ। लेकिन हमारे इस दर्द को समझने की बजाय हुकूमत सच्चे में हमको बस आतंकवादी या तालिबानी बताने में लगी हुई थी।
मैं इसी उधेड़बुन में घर की तरफ़ बढ़ा चला जा रहा था कि शोरगुल की आवाज़ पर चौंक-सा गया। देखा सामने से मुहल्ले के बच्चे, बूढ़े, जवान सभी ख़ौफ़ज़दा एकदम भागे चले आ रहे थे। मैं कुछ समझ पाता कि भाग रही भीड़ में मेरे दोस्त शमीम ने भागते हुए कहा, ‘रे आसिफ़, यहाँ से तू भी भाग …!’
मैं अभी कुछ समझ पाता कि उसी भाग रहे लोगों की भीड़ में से मेरा दोस्त चंद्रमोहन अचानक नमूदार हुआ और मुझे लगभग घसीट कर मुहल्ले की एक गली में ले गया, ‘आसिफ़, मेरे यार, आज फल बेचने मेरे मुहल्ले मत आइयो!’
चंद्रमोहन की साँसें तेज़ चल रही थीं। एक तो मैं मुहल्ले के लोगों में अफ़रातफ़री की असल वजह नहीं समझ पा रहा था। दूसरे, अब अपने दोस्त चंद्रमोहन के द्वारा मुझे यह समझाना कि उसके मुहल्ले फल बेचने न आऊँ और परेशान कर रहा था। हम हिंदू भाइयों के मुहल्ले जाकर फल न बेचें, तो हमारे फल बिकें भी नहीं। कितने मुसलमान हैं, जो फल खाते हैं? मुसलमान लोग के पास पैसवा रहेगा, तभे न फल-फ़्रूट खाएगा?
मैंने चंद्रमोहन से कहा, ‘यार, तुम्हारे मुहल्ले मेरा जाना, न जाना बाद की बात है। पहले यह तो समझ में आए कि हमारे मुहल्ले के लोग भागे कहाँ चले जा रहे हैं?’
‘तुम भी किस दुनिया में खोए रहते हो आसिफ़, आज भोरेभोर गुप्ता टोले के कुछ लड़कों ने तुम्हारे धर्म के एक नौजवान को मार डाला है। वो लड़का किसी और शहर से आ रहा था और उसको गुप्ता टोले से होकर तुम्हारे मुहल्ले अपने किसी संबंधी के यहाँ आना था …’
चंद्रमोहन को बीच में टोकते हुए मैंने कहा, ‘एक दूर का रिश्तेदार तो मेरे यहाँ भी आ रहा था। उसका कोई एक्ज़ाम था कल … कहीं उसे ही तो मार नहीं डाला गुप्ता टोले के लोगों ने?’
‘तुम अपने संबंधी का हुलिया बताओ, मैंने उसकी लाश देखी है …’ चंद्रमोहन ने मेरी संदेह पर कहा।
मैंने अपने संबंधी का हुलिया अपने मित्र को बताया। यह भी बताया कि वो कम सुनता था।
मेरे बताए हुए हुलिए पर चंद्रमोहन थोड़ी देर चुप रहकर आँखें बंद कर ली थीं। मैं समझ गया कि वो उस लड़के का हुलिया मेरे बताए हुए हुलिए से मन ही मन मिलान कर रहा है।
‘ऐ यार, तुम अपने जिस संबंधी लड़के का हुलिया बता रहे हो, मुझे लग रहा है कि उसी की हत्या हुई है। तुम ऐसा क्यों नहीं करते कि उसको फ़ोन लगाकर मालूम करो कि वो कहाँ पर है।’
‘तुम ठीक कह रहे हो, मैं उसको फ़ोन लगाता हूँ। वो सुनता कम है, लेकिन उसके पास उ जो अलग तरह से मोबाइल आवाज़ करके बजता है न, उसके मोबाइल में वही वाला रिंग टोन लगा हुआ ताकि वो समझ ले कि कोई उसको फ़ोन कर रहा है।’
मैंने अपने मोबाइल से उसका नंबर लगाया, तो थोड़ी देर रिंग होने के बाद उधर से ‘हैलो-हैलो’ की आवाज़ आने लगी। मैंने अल्लाह मियाँ का शुक्रिया अदा किया, क्योंकि मैं अपने रिश्तेदार लड़के की आवाज़ पहचान गया था। चंद्रमोहन ने भी सुकून की साँस ली।
‘लेकिन यार, तुमको यह कैसे मालूम हुआ कि गुप्ता टोले में जिस लड़के की हत्या हुई है, वो कोई मुस्लिम लड़का है? और अगर किसी की हत्या हो रही थी, तो तुमने उसको बचाने की कोशिश क्यों नहीं की?’
मेरे इस सवाल से चंद्रमोहन थोड़ा अचकचाया हुआ कहने लगा, ‘उस लड़के की मौत का अफ़सोस मुझे भी है आसिफ़, लेकिन मैं कर ही क्या सकता था, उस लड़के की हत्या करने वाले झुंड में थे। सभी भगवा गमछा रखे हुए थे। इस भगवा रंग का अब मतलब ही यही है कि वो किसी की हत्या कर दें या कुछ और करें, उन लोगों को यहाँ का प्रशासन भी कुछ नहीं कह सकता है। फिर उसकी हत्या करने से पहले हत्या करने वाले से उस लड़के से जयश्री राम और भारत माता की जय बोलने को भी कह रहे थे। मैं तो बस वहाँ तमाशाई भर था। मैं ही क्या, पूरा गुप्ता टोला तमाशाई था। जब पूरे गुप्ता टोला की हिम्मत उन हत्यारों को रोकने की नहीं हुई, तो एक अदना आदमी क्या कर सकता था?’
चंद्रमोहन के आँसू उसी के चेहरे को भिगो रहे थे।
‘क्या यार, इस देश में मुसलमान होना जुर्म है?’
‘कौन कहता है कि इस देश में मुसलमान होना जुर्म है?’ उलटे चंद्रमोहन ने मुझसे ही सवाल कर डाला।
‘अब अपने मुल्क में मुसलमान होना जुर्म है, तभी तो हिंदू ग्राहक कुछ भी ख़रीदने से पहले हमारा आधार कार्ड माँगते हैं। तभी तो हिंदू मोहल्ले में जब कोई चाहता है, हम पर कोई-न-कोई झूठा इलज़ाम लगाकर, हमारी हत्या कर देता है या पकड़कर थाने में डाल आता है …?’ मैं मालूम नहीं और क्या-क्या कहता चला गया था चंद्रमोहन को, ‘देश के कई राज्य हैं, जहाँ हमारी हत्याओं का सिलसिला जारी है। वहाँ एक ख़ास पार्टी की सरकारें हैं। वो हमको किसी सीरियल किलर की तरह मारते हैं और हमारी हत्याओं का जश्न मनाते हुए वीडियो भी जारी करते हैं। ऐसी हत्याओं के जुर्म में कितनों को सजाएँ मिली हैं, कोई इसका जवाब दे न मुझे! जबकि हो उलट रहा है, जिसकी हत्या होती है, उसी को दोषी कहकर असली हत्यारे को बचा लिया जाता है। उफ़्फ़ अल्लाह मियाँ, तुमने हमें मुसलमान क्यों बनाया, कुछ और काहे नहीं बनया …?’
न न न, मैं सहमत नहीं हूँ, तुम्हारे इस दोषारोपण से। मैं भी तुम्हारी तरह कम पढ़ा-लिखा हूँ। तुम्हारी तरह ग़रीब भी हूँ। लेकिन इतनी समझ मुझमें है कि अपना भारत कभी सिर्फ़ हिंदुओं का न था और न कभी रहेगा। हमारा संविधान यहाँ हर भारतीयों को बराबर का दर्जा देता है। अधिकार देता है। उसका धर्म कोई भी हो। हाँ, यह सच है कि जो धर्म के नाम पर हत्याएँ कर रहे हैं, उन्हें सज़ा जरूर मिलनी चाहिए, वो हत्यारा चाहे किसी भी धर्म से संबंध रखता हो।’
चंद्रमोहन जब ये सारी बातें कह रहा था, तो मुझे लगा कि मेरे दोस्त में अम्बेडकर बाबा की रूह दाख़िल हो गई है। मुझे लगा कि यह कोई सब्ज़ी बेचने वाला न होकर किसी ऐसी पार्टी का वक्ता हो, जिस पार्टी को सबका ख़्याल रखना आता है। सबका विकास भी करना चाहता है।
‘सुनो आसिफ़, इस हिंदू-मुस्लिम के मसले पर हम फिर कभी बात कर लेंगे। लड़-झगड़ लेंगे। मैं तुमसे अभी जिस मुद्दे पर बात करने आया हूँ, वो ज्यादा ज़रूरी है।’
चंद्रमोहन की इन बातों से मुझे भी याद आया कि हमारे मोहल्ले के लोग इस अफ़रातफ़री में कहाँ भाग रहे हैं और फिर ऐसे माहौल में मेरा दोस्त चंद्रमोहन क्या करने आया है?
‘देखो दोस्त, मेरी बातें ग़ौर से सुनो, आदमी पकड़ने वाली गाड़ी इधर ही चली आ रही है। यह अफ़रातफ़री भी उसी गाड़ी के भय से मची है …’
मैंने चंद्रमोहन को टोकते हुए विस्मय से कहा, ‘अब यह आदमी पकड़ने वाली गाड़ी कौन-सी बला है, मैंने कुत्ते पकड़ने वाली गाड़ी के बारे में काफ़ी सुन रखा है?’
‘कुत्ते को पकड़ने वाला अब ज़माना गया आसिफ़! अब आदमी को पकड़ने और पकड़कर जेलों में भरने का समय आ गया है।’
‘कुत्ते और आदमी का फ़र्क़ कबसे मिट गया हो?’ चंद्रमोहन की बात पर मैंने सवाल किया।
‘हिटलर जब था न, तब भी यही होता था। आदमियों का कोई मोल न था। हिटलर वाला वही दौर फिर लौट रहा है। तभी न आदमियों को ठूँस-ठूँस कर जेलों में भेजा जा रहा है, जैसे वो जेल न होकर आदमी रखने वाला पिंजड़ा हो।’
‘अब तुम्हारी तरह मैं ज़्यादा पढ़ा-लिखा तो हूँ नहीं, जो मैं हिटलर के दौर को जानूँगा …’
चंद्रमोहन ने मेरी बातें पूरी होने से पहले मुझे गली में और अंदर घसीट लिया था। मैं कुछ समझ पाता कि देखा वो सचमुच कुत्ता पकड़ने वाली कोई गाड़ी थी जो ढेरों कटहा कुत्ते की-सी भयानक आवाज़ निकालती हुई हमारी ही तरफ़ चली आ रही थी और उसके अंदर से औरतों, बच्चों और मर्दों की चीख़-पुकार सुनाई दे रही थी। मेरी समझ में यह बात आ गई थी कि अब आदमी ही पगला कुत्ता है, हुकूमत की नज़र में। यह बात भी समझ में आ गई थी कि कुत्ता पकड़ने वाली गाड़ी से बस हम जैसों को ख़तरा था, चंद्रमोहन जैसों को नहीं।
चंद्रमोहन ने मेरे मन की बात जान ली थी, ‘आसिफ़, तुम जो सोच रहे हो, यह सही नहीं है। इस आदमी पकड़ने वाली गाड़ी में हर वो लोग हैं, जो हुकूमत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ खड़े होते हैं। उस पिंजड़े में भी हर वर्ग के वही लोग रखे जा रहे हैं, जिनसे हुकूमत को ख़तरा महसूस होता है। हुकूमत ऐसा करने से पहले धर्म नहीं देखती, बस यह देखती है कि कौन उसके विरोध में खड़ा है।’
मैंने जोश में आकर कहा, ‘जब हम गोरे अंग्रेज़ों को अपने भारत से भगा सकते हैं, तो क्या हम ऐसी फ़ासीवादी सरकार को नहीं हटा सकते?’
‘बिल्कुल हटा सकते हैं यार, इसके लिए बस हिम्मत की दरकार है।’
‘तब फिर चलते हैं उस गाड़ी के पीछे, जिसमें पागल कुत्तों को पकड़कर ले जाने की जगह आदमियों को ले जाया जा रहा है। ऐसी ज़ालिम हुकूमत के ख़िलाफ़ अभी से लड़ाई शुरू कर देते हैं।’
‘इंक़लाब! ज़िंदाबाद!!’ चंद्रमोहन ने जोश से भरकर कहा। मेरा दोस्त चंद्रमोहन वैसे भी हम फल और सब्ज़ी बेचने वालों का लीडर था।
आदमी पकड़ने वाली वो गाड़ी हमारे मुहल्ले से बाहर निकल पाती कि हमारे बीसियों-तीसियों हथठेले ने मुहल्ले से बाहर निकलने के रास्ते को बंद कर दिया था। गाड़ी चला रहा ड्राइवर और उसमें सवार वर्दी वाले लोग हमारे मक़सद को समझ पाते कि हमने उनके साथ-साथ उस गाड़ी अपने क़ब्ज़े में लेकर उन्हें सारे क़ैदियों को आज़ाद करने के लिए बेबस कर दिया था।
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शहंशाह आलम महत्वपूर्ण कवि एवं समीक्षक हैं। इधर उन्होंने कहानियाँ लिखनी शुरू की हैं। प्रस्तुत है उनकी यह कहानी।
अनहद का ज़िंदाबाद।