ओ मेरी पृथ्वी
ओ मेरी पृथ्वी
यदि मेरी जिह्वा पर मेरे कंठ में मेरी धमनी में
हवा सी सरसराती
पहाड़ी नदियों-सी कलकल करती बिछलती
या तड़ित सी तमकती कौंधती उज्जर झकझक भाषा होती
तो मैं तुम्हारी दिव्यता
और तुम्हारे गर्भ में पल्लवित सदा
जीवन-स्रोत की महिमा का बखान कर पाता
और तुम्हारे पार्थिव आलोक के शीतल वृत्त के नीचे
शायद अर्जित कर पाता थोड़ी अमरता
पर मैं
स्वयं अपनी भाषा से पराजित
एक
बधिर
कवि
हूँ
मात्र
तुम्हारी सर्जना और सम्मोहन के आगे
विनीत और अवाक्
मगर जब तुम्हारे हिरन्यमय अंक में उन्मत्त
इस जीवन-प्रपात को
असंख्य रंगों अनगिनत रूपों में नृत्य करता हुआ पाता हूँ
तो अपनी विकल आकांक्षा के संघटित बिन्दु पर आकर
कृतज्ञता के आवेश से
तिनका-तिनका हो जाता हूँ
जी करता है अपनी मुट्ठी में बटोरकर ख़ुद को
स्वयं छींट आऊँ वहाँ–
रक्त को अनगिनत रंगों में सतत अनूदित करते
उन प्राचीन जड़ों के पास
जहाँ निरंतर अंकुरित होने की अनंत प्रक्रिया में है आकाश
लेकिन दूसरी तरफ
इस दुनिया में लगातार पसर रही कुरूपता को लेकर
तुम्हारी अप्रत्याशित शहनशीलता को देखते हुए हताश हो जाता हूँ
समझ नहीं पाता
कि तुम्हारी गोद में बैठे हुए जो लोग
दूसरे के खेत का पानी
रातोंरात मेड़ काटकर अपने खेत में पसा लेते हैं
आखिर क्यों लहलहाती ही रहती है उनकी फसल?
जो लोग गँड़ासा उठाकर और फरसा भाँजकर
किसी निर्बल के आम का पेड़ कटवा लेते हैं गाय खुलवा लेते हैं
जेठ महीने में भी उनके आँगन में क्यों
अनाज की तरह बिछी रहती है
किसी फलदार वृक्ष की मीठी छाया?
कनपटी में दोनाली सटाकर
जो लोग किसी पंद्रह बरस की बच्ची को उठा ले जाते हैं
किसी निरीह की गरदन उड़ाकर
उसकी विधवा की ज़मीन हड़प लेते हैं जो
आख़िर क्यों उनके घरों से इस तरह खिलखिलाने की आवाज आती है?
हर ड्योढ़ी हर चौराहा हर घाट हर बाट पर क्यों हमेशा दुत्कारा जाता है सत्य
तुम्हारी हथेली पर
रोज़-ब-रोज़ क्यों कलंकित होती रहती है उसकी काया
जिधर अन्याय है क्यों उधर ही संघनित रहती है शक्ति?
समझ नहीं पाता
है तुम्हारी यह कैसी माया!
जबकि तुम अपनी छायाओं को समेट ले सकती हो उनके ऊपर से
जो छुपकर दूसरों के पौधे की जड़ों में पेशाब करते हैं
लेकिन तुम देखती रहती हो टुकुर-टुकुर
जबकि तुम अपने मीठे जल से वंचित कर सकती हो उन अपराधियों को
जो दूसरों के कुएँ में जबरन ज़हर घोल देते हैं
लेकिन तुम उदासीन रहती हो
जबकि एक बार तुम अपनी देह को थोड़ा हिला दो
तो वे नेस्तनाबूद हो जाएँ
जो दूसरों की जिह्वा पर अपना घर बनाते हैं
लेकिन तुम कुछ कहती नहीं
करती नहीं कुछ
निरीह गाय की तरह चुपचाप देखती रहती हो
और अत्याचार की वैतरणी तुम्हारे शरीर पर अनवरत बहती रहती है…
तुम्हारी इस अनैतिक चुप्पी को देखकर
खिन्न रहता हूँ अक्सर
मन तो करता है कभी-कभी
कि बहिष्कृत कर दूँ तुम्हें अपने जीवन से
नहीं तो उठाकर फेक दूँ एक दिन
इस ब्रह्माण्ड से बाहर कहीं किसी महाशूण्य के अतल में
लेकिन फिर यह सोचकर वेदना से भर जाता हूँ
कि तुम पहले से ही तो कितनी अकेली हो!
अपने पिता से खरबों कोस दूर
किसी अनकिए अपराध का कोई महा दंड भुगतती हुई
चाँद जैसे भाई के साहचर्य से वंचित
किस तरह करोड़ों वर्षों से प्रतिक्षण मायके का चक्कर काटती हुई तुम
अपने ठिठुरते एकांत में बेबस बिसूरती रहती हो
और तब इच्छा होती है मुझे
कि अपनी नन्ही बेटी की तरह उठाकर तुम्हें गोद में रख लूँ
तुम्हारे मूँ-हाथ धुलवा दूँ और फ़्रॉक बदल दूँ
अधखुले लटकते रिबन निकालकर तुम्हारे बाल सँवार दूँ
और कंधे पर लेकर धीरे-धीरे थपकी दूँ तुम्हें
ओ मेरी बेटी
मैं अपने पास लिटाकर तुम्हें
रंग-बिरंगी परियों की कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ
मैं अपनी बरौनियों के घोंसले में तुम्हें
जुगनू की तरह खोंसकर रखना चाहता हूँ
इस दुनिया के तमाम पागलपन से बचाकर तुम्हें मैं
अपनी आँखों के कोर में छुपा लेना चाहता हूँ
◆
चींटियों का दुःख
चींटियों के भी तबाह होते हैं घर
चींटियों के भी निकलते हैं पर
चींटियाँ भी शवयात्रा में शरीक होती हैं
लेकिन चींटियों का दुख हमें दिखाई नहीं देता
चींटियों की पीड़ा हमें विगलित नही करती
चींटियों की मृत्यु रुलाती नहीं हमें
चींटियों का भी होता होगा कोई ईश्वर ज़रूर
छूट जाते हैं कभी हमसे भी हमारे घर
अपना ही कोई हाथ
देता हमारे डैनों को भी कतर
हमारी दुनिया भी देखते-देखते राख हो जाती है
हम भी कटी हुई जीभों से करते हैं विकल प्रार्थना
क्या पहुँचती होगी कहीं हमारी भी आवाज़ !
◆
वर्षा
सबसे पहले
क्षितिज के उस नारंगी चौके को
अपने जामुनी रंग से लीपती दिखी वह
फिर उसका इरादा
नशे की तरह आसमान पर छाने लगा
तब गड़गड़ाने लगा आकाश का विशाल मृदंग
और बिजली का अनोखा हँसिया
गोधूलि की घास उड़ाने लगा
उसके बाद
तूफान की तरह हहाती
दूर से ही आती हुई सुनाई पड़ी वह
लगा कि आज समुद्र को अपने साथ लेकर आई है
और तब फौरन
बाँस के झुरमुट में वह धड़धड़ाती हुई घुस पड़ी–
जहाँ झूमते आपस में रगड़ खाते बाँसों के साथ
वासना में तपते पेंग ले रहे थे साँप
और झरझराने लगी
फिर मैंने देखा
कि टीन के छप्पर पर उसकी बून्दें
कटहल के कोए की तरह धप-धप गिर रही हैं
उसके बाद
बरामदे पर मेरे पास आकर वह
मूँग की पकी हुई छीमियों की तरह चनककर उड़ने लगी
उसकी छींटों से मेरे कुर्ते पर छोटे-छोटे फूल उग आए
मेरे चश्मे पर उसकी बून्दें डबडबाकर अटक गईं
और अपनी शीतल उंगलियों से वह मेरे पैरों को गुदगुदाने लगी
उसके आदिम स्पर्श से मैं सिहर उठा
देखते-देखते उस स्पर्श से टघरकर
स्मृतियों की एक हरी-भरी लकीर मेरे बचपन में चली गई
जहाँ खेत-पथार, गाछ-पात,चिरई-चुनमुन, चंदा-तारे और आसमान
सब घूम-घूमकर मेरे पास ऐसे लौट रहे थे
जैसे उन्हें मेरी ही प्रतीक्षा थी
मैं सीधे वहाँ गया
जहाँ पर दादी मिट्टी के मेरे स्वर्णिम खिलौनों को
अपनी पुरानी धोती के टुकड़े में सहेजकर रखती थी
और समय-समय पर
गुड़ की तरह निकालकर देती थी मुझे
लेकिन वहाँ कुछ न था अब
केवल निर्जनता थी जो निरंतर बरस रही थी
बेकल होकर मैं
धान के उस खेत की ओर भागा
जो तमाम पेड़ों-झाड़ियों-झुरमुटों को पार करने के बाद
पीपल के गाछ के पड़ोस में
शीतलपाटी-सा बिछा रहता था
और जिसकी मेड़ों पर बगुले योगाभ्यास में तल्लीन दिखते थे
लेकिन वह रास्ता थोड़ा चलकर कहीं विलीन हो गया
और वे हरे-पीले-नीले दृश्य
पिघलकर मेरी आँखों में वापिस लौट आए
तब मैंने इमली के पेड़ के नीचे जाकर अपने दोस्तों को पुकारा
लेकिन कहीं से कोई ज़वाब नहीं आया
या तो जाती हुई मेरी आवाज़ किसी जाले में अटकी रह गई
या वे लोग कहीं और चले गए
अपने आंगन में मेरे हताश लौटते ही
बिजली चमक उठी
और वर्षा के साथ ओले झरने लगे
हर्षातिरेक से मैंने छोटी बहन को पुकारा–
कामिनी, कहाँ हो तुम!बाहर आओ और देखो क्या है यह!
वह अपनी देह और चेहरे से किसी तरह राख झाड़ती हुई दौड़ती आई
उसके एक हाथ में देकची और दूसरे में छिपली थी
देकची को हेलमेट की तरह पहन लिया मैंने
और उसने अपने माँथे को छिपली से किसी तरह ढँक लिया
फिर हम भाई-बहन
बीछ-बीछकर ओले कुड़कुड़ाने लगे
इसी बीच
सुदूर गंगा से निकल कर आ गए बड़े भैया
और हम दोनों को समेटकर ओसारे पर ले गए
दादी कटहल के गाछ से धीरे-धीरे उतरकर नीचे आई
और अपने मटमैले आँचल से मुझे पोंछने लगी
पिता दूर से ही हमें निर्विकार देखते रहे
उनके देखने में ही निहित था इस जीवन का अर्थ
उसके बाद भैया ने अपनी अटैची से निकालकर हमें बिस्कुट दिए
और उस दुनिया की कहानी सुनाई
जहाँ दिन-रात बारिश होती रहती है
फिर अचानक
बहिन लौट गई अपनी सुरंग में
भैया अपना स्टीथोस्कोप लेकर अशेष दुःख के पास चले गए
और दादी जनेऊ वाली अपनी डलिया, कपास की लोई और तकली के साथ
अपने पसंदीदा फल के वृक्ष में समा गई
और तब कोने में पड़े माहुर की एक पुरानी शीशी में बंद
अपनी ओर टुकुर-टुकुर ताकती एक बेचैन स्त्री दिखी मुझे
जिसकी शकल हमसे बहुत मिलती-जुलती थी
और जो पचास बरस पहले
भादों की एक लबालब सुबह में लथपथ भींगी हुई
हमसे बहुत दूर चली गई थी
जिसके बाद
मैं उसकी जघन्य निर्ममता के किस्से सुन-सुनकर ही हुआ था बड़ा
लेकिन आज इस एकांत में
भादों की उस गनगनाती रात में मैं
अग्निबाण की तरह प्रवेश करना चाहता था
और उस स्त्री के असाध्य जीवन की उस वेदना तक पहुँचना चाहता था
जिससे मुक्त होने के लिए उसने
अपनी देह के कई टुकड़ों तक की परवा नहीं की
मेरे प्राण में यह ऐसी कील थी ठुकी हुई
जिस पर पचास बरसों से
लगातार चोट करती हथौड़ी के निशान थे
जिससे पचास बरसों की एक अनाथ अकुलाहट लटक रही थी
जिसे निकाल कर मैं आज़ाद हो जाना चाहता था फौरन
इसलिए लपककर मैंने वह शीशी उठाई
पर आश्चर्य
उसमें कोई स्त्री नज़र नहीं आई
पता नहीं वह कहाँ गई
फिर मैंने देखा कि वह शीशी
रंग बदलती हुई मेरी देह बन गई है
और देखते-देखते मैं पपीते के एक गाछ में बदल गया हूँ
बरामदे पर अकेले भींगते हुए
पपीते का यह गाछ यों ही टपकता रहता चुपचाप
अंदर से उसे यदि पुकार नहीं लिया जाता
घर के भीतर मेरे प्रवेश करते ही पत्नी ने चौंककर देखा–
अरे,इस बारिश में कहाँ चला गए थे तुम?
जीतपुर से आ रहा हूँ–मैंने कहा
तौलिये से मेरा सर पोंछते हुए उसने परेशान होकर पूछा–
तुम रो रहे हो!
नहीं-नहीं, मैंने कहा– ये तो वर्षा की बून्दें हैं…
◆
तुम्हारी जुड़वाँ बहन
मृत्यु के भी फूल होते हैं जो अपने बीज को ह्रदय में लेकर हवाई यात्रा पर दूर-दूर निकल जाते हैं। उनकी यात्राओं से हवा में धूल उड़ती है, पत्तों पर उसकी परत जम जाती है और तुम्हारे दाँतों के बीच कुछ किरकिराने लगता है। ये संकेत हैं कि वे अपने गंतव्य पर पहुँच चुके हैं। ज़रूरी नमी और अपेक्षित अंधकार में उनका काम चल पड़ा है। फिलहाल तुम्हारी मृत्यु का वृक्ष अपनी जड़ों को मोड़-सिकोड़कर, अपने तने और टहनियों को समेटकर चुपचाप एक अदृश्य बीज में सो रहा है। असंख्य शुक्राणुओं को पछाड़ता हुआ जिस तरह एक शुक्राणु एक परिघटना को जन्म देता है उसी तरह एक शिशु मृत्यु अपने विराट वृक्ष से अलग होकर चुपचाप तुम्हारी यात्रा में विलीन हो जाती है। अब अकेले तुम नहीं हो। तुम अकेले कभी नहीं थे। यह मृत्यु के दुश्मनों का फैलाया हुआ दुष्प्रचार है कि इस दुनिया में हरेक आदमी अकेला आता है और अकेला जाता है। सच तो यह है कि तुम गर्भ में भी अकेले नहीं आते। मृत्यु हमेशा तुम्हारे साथ आती है। बल्कि असली सहोदर तुम्हारा वही है। तुम्हारी अंतरंग जुड़वाँ बहन।
इस दुनिया में तुम्हारे आते ही वह तुम्हारी छाया बन गई है। किसी पालतू जीव की तरह वह तुम्हारे कदमों में लेटी यह तुम्हारे मध्याह्न का समय है। तुम आलोकित हो। लेकिन सूरज भी तुम्हें कब तक यों प्रकाशित रख सकता है! वह ख़ुद पश्चिम की ओर सरक रहा है। तुम्हारे आंगन में कटहल के लाल-लाल पत्ते जब-तब टपक रहे हैं। पोखर में कमल की पंखुड़ियाँ सिमटने ही वाली हैं। पक्षियों की वापसी का समय निकट आ रहा है। तुम्हारी लंबी होती हुई परछाई बता रही है कि अब सूर्यास्त दूर नहीं है।
◆
तुम्हारी देह
एक सलोनी नदी
बचपन से तुम्हारी खिलखिलाहट का पीछा करते-करते
अन्ततः समा गई है आकर तुम्हारी देह में अब
सामने से बहती हो
तो एक उन्मत्त उछाल अपने अंक में लपेटकर मुझे
ले जाती है तुम्हारे साथ
मैंने अपने इस बसंत को
सबसे पहले तुम्हारी आँखों में उड़ते देखा है
तुम्हारी बाँहों की टहनियों पर
बेआवाज़ उतरते
सबसे पहले दिखे हैं मुझे मौसम के पंख
और तुम्हारी पीठ पर जो एक मोहक पुल बना है
उसके ऊपर
तुम्हारी गरदन को एकदम छूता हुआ
स्थायी रूप से जो टिका है नवमी का एक चाँद
मेरी विकल रातों को वह
दूर से भी करता है आलोकित
जब भी ऐसा हुआ है
कि तुमने जैसे भी मुझे छुआ है
उग आया है वहाँ मेरी आत्मा का एक अंकुर
कोसी की मिट्टी है तुम्हारी देह
तुम्हारे जल तुम्हारे अंधकार तुम्हारे संसर्ग में आकर
मैं बार-बार जन्म लेता हूँ
◆
आठवाँ दिन
सप्ताह का एक भी दिन ऐसा नहीं
जो बचा हो निष्कलंक अब
और जिसके हाथ निष्कलुष और दिल बेदाग हों
सोमवार की छाती पर
अब भी हिरोशिमा के चिथड़े बिखरे हुए हैं
वहाँ ज्यों का त्यों खड़ा है
मौत का एक स्याह और मशरूम जैसा दरख़्त
मंगलवार तो लोर्का के खून से रक्तरंजित है ही
यही वह दिन है
जब समुद्र की तरह उमड़ते हुए एक कवि को
स्पेन के राष्ट्र-भक्तों ने क्या से क्या बताकर मार डाला
और गुजरात के दंगे के कलंक से बुधवार बच नहीं सकता
जहाँ की दुर्लभ शाकाहारी प्रजाति ने
इसलिए सैकड़ों लोगों को कबाब की तरह भून डाला
क्योंकि वे पश्चिम की ओर मुड़कर किया करते हैं पूजा
मेरे पिता के जलने की गन्ध
वृहस्पतिवार के फेफड़े में फैली है तेज़ाब की तरह
मेरे भइया की चन्दन जैसी देह
वृहस्पतिवार की ही आग में अब भी राख हो रही है
30 जनवरी को जो
कहीं से भागता हुआ आया था प्रार्थना-सभा में उस दिन
उन तीन हिन्दू गोलियों से आहत और अचेत
वह शुक्रवार अब भी तड़प रहा है
थ्यानमेन चौक पर उद्विग्न और लाचार
यह बेचारा शनिवार भी
बराबरी और मैत्री और कम्यून के दावे का शिकार होकर
लहूलुहान और मृत पड़ा है
और लोकप्रिय इतवार की इस सचाई से भला कौन है अनभिज्ञ
कि प्रथम विश्वयुद्ध के मृतकों के सूखे खून से
उसका रंग और गाढ़ा हुआ है
दोपहर की विलम्बित उबासी में
खर्राटे भरता रहता है उसका कलंक…
रक्तरंजित इन सातों दिनों में टाँका हुआ मैं
मनुष्य होकर मनुष्य से हाँका हुआ मैं
तुरपाई के एक घर से
छिटककर
उस समय से
चुरा लेता हूँ एक चुटकी चुपचाप
जो अबोध बच्चों की दूधिया आँख में झिलमिलाता है
उनके शिशु आश्चर्य और उत्सुकता की उज्ज्वल धूल में निष्पाप
और पूरी दुनिया से नज़रें बचाकर
रात के निविड़ अंधकार में
जब एक चाण्डाल भी नींद की मदिरा पीकर घुलट जाता है
एक सादे पन्ने पर अवनत मैं
धीरे-धीरे गढ़ता हूँ
सप्ताह
का
आठवाँ
दिन
आठवें दिन को मैं अपना रक्त देता हूँ
आठवें दिन को निकालकर देता हूँ अपने नेत्र
आठवें दिन को अस्थि देता हूँ अपनी
आठवें दिन को अर्पित करता हूँ अपना सुंदर-असुंदर जीवन
आठवें दिन की नन्हीं हथेलियों पर
ओस में भींगे श्वेतचम्पा के कुछ फूल रखता हूँ
आठवें दिन की पलकों पर
आकाश से लबालब चुम्बन के मैं बिरवे लगाता हूँ
और आठवें दिन की निगरानी के लिए लिखता हूँ कविताएँ…
◆
कितनी सघन लेयर से भरी हुई कविताएँ हैं। शिल्पगत फिनिशिंग भी शानदार है। और विमलेश भइया यह अच्छा लगा कि आपने ब्लॉग फिर से एक्टिव किया।