विनय कुमार की कविताएँ सहज-सरल होती
हुई भी सतर्कता और ध्यान रखकर पढ़ने की मांग करती हैं। वे जिस विषय पर कविता लिख
रहे होते हैं उसके बाह्य के साथ अभ्यंतर तक जाते हैं इसलिए उनके यहाँ निर्जीव लगती
चीजें भी सजीव होकर बोलने-बतियाने लगती हैं। कवि अपने मानस की सजगता से किसी भी
वस्तु में प्राण भर देता है। प्रस्तुत कविताओं को अलग-अलग पढ़ते हुए भी उसमें एक
पूर्वापर संबंध देखने को मिलता है जो किसी कथा को पढ़ने का सुख दे सकता है। विनय
कुमार पेशे से मन के डॉक्टर हैं शायद यही कारण है कि कविता लिखते समय भी वे विषय
के मन के कोने अंतरे में जाते हैं और दिलचस्प और अलहदा कविता रच पाने में सक्षम हो
पाते हैं। अनहद पर हम पहली बार उनकी कविताएँ पढ़ रहे हैं। आपकी प्रतिक्रिया का
इंतजार तो रहेगा ही।
शरद की मुस्कान
सरोवर में उतरती सीढ़ियों पर
बैठी है दिसम्बर की धूप
हवा में हल्के रहस्य के तुहिन कण
बिखरे हैं
सीढ़ियों पर पड़ते वृक्षों के
साये
किसी सुख कि प्रतीक्षा मेँ चंचल
हैं
और उधर नीचे बहुत नीचे
हृदय में सरोवर के नाचती मछलियाँ
ठहरे पानी को मरने से बचा रही हैं !
शिफॉन
सरोवर की सीढ़ियों पर
शरद की धूप एक दृश्य भर नहीं है
अभी-अभी आई ऋतु का
अभी-अभी खुला बिस्तरबंद भी है
सबसे ऊपर पीली सी ओढ़नी शिफॉन की
नीचे पता नहीं क्या है
काले अक्षरों-सी चींटियाँ लेती हैं
टोह
कि गरमाहाट के सिवा और क्या
कल्पना से होड़ लेते पारखी परिंदे
पंख फटकारते हुए छोड़ते हैं कूट
संदेश
सब कुछ जानती हवा हँसकर सहेज लेती है
पारभासक पीली यवनिका के पार
और भी बहुत कुछ हो रहा होगा
जो मेरे नैन और बैन से परे
कि सारी की सारी कविताएँ कह पाना
किस कवि के बस में!
मर्म से लगी
दुनिया की सारी सीढ़ियों का गन्तव्य
ऊपर, पृथ्वी से दूर
और नीचे बसे बंकरों और तहख़ानों की
उतराई गुप्त
खुले में सिर्फ़ सरोवर की सीढ़ियाँ
नीचे जाती हैं
जहाँ पृथ्वी के हृदय में बसा पानी
पैठने वाले को अपनी पूरी तरलता से
अपना लेता है
ठीक वैसे ही जैसे सीढ़ियों पर बैठे
मानुस को अपना रही
सूर्य के मर्म से लगी दिसम्बर की
हल्की पीली धूप!
सांध्य राग
सरोवर अब भी वहीं है
पानी और उसके भीतर की मछलियाँ भी
मगर धूप जा चुकी है
पश्चिम दिशा की आँखें लाल हैं
थोड़ी ही देर बाद अँधेरा आएगा
और देखने वाली आँखें सो जाएँगी
नींद जितना निहत्था करती है
उतना ही मुक्त
अब सरोवर की सीढ़ियाँ मेरे भीतर
उतरेंगी
शरद की मुस्कान के साथ
फिर जी उठे पानी में मछलियों का
नृत्य
आत्मा के अनंत को आंदोलित रखेगा!
सुख-रात्रि
सूर्य के बाद ज़रा सा चाँद आया था
वह भी जा चुका है
अब सरोवर दिखाई नहीं देता
गाढ़े अंधेरे में डूब-सा गया है
सीढ़ियों की काया और पानी का मन एक
रंग है
पृथ्वी ने चाँद की खिड़की तक को बंद
कर दिया है
और सारे सितारे अपने-अपने कहकशां में
गर्क
ऐसे में सिर्फ़ छूकर ही देखा जा सकता
है
यह बात हर शय को छूती-छेड़ती हवा को
पता है
पास-पास तैरती मछलियों
और पर जोड़े लेटे पंछी युगल को भी
कमल के मर्म में धँसे भौंरे जब रिहा
होंगे कल
पूछ लेना कि छूकर देखना क्या होता है
इसीलिए तो
निशीथ के निर्मम सन्नाटे में
देह खर्राटे ले रही है
जाग रही आहत आत्मा
पूछती है कवि से –
तुम्हारी बुद्धि को क्या हो गया है
उसके धंधों की धूल कैसे सहते हो
दम नहीं घुटता
कवि मुस्कुराता है –
इसीलिए तो ……
सरोवर की सीढ़ियों पर बैठा हूँ
कि जीवित रह सको तुम
और देख सके अपना विद्रूप वह विपथगा
भी
धो सके पाने की धूल
सुखा सके अपने गीले बाल दिसम्बर की
उड़ती हुई धूप में !
चाप-ताप
वे अलग-अलग दिशाओं से आते
और यहीं इन्हीं सीढ़ियों पर बैठते
सामने सूर्य की पीठ होती लाल और कोमल
सरोवर के साफ़ पानी में पश्चिम का
आकाश
शाम के राग सा हौले-हौले छिड़ता होता
और पेड़ का संसार
किसी बेहद पुराने और शालीन
ऑर्केस्ट्रा की तरह
गहरी विनम्रता के साथ राग को
अपनी ही आग में पकने दे रहा होता
वे कभी आकाश को देखते
कभी पानी में डोलते प्रतिबिम्ब को
और आपस में यूँ बतियाते
मानो दो तारे अपनी-अपनी रोशनी में एक
दूसरे को नहला रहे हों
हौले-हौले दिशाओं का भेद ख़त्म हो
जाता
सारा आकाश एक गोटेदार चंदोवे में बदल
जाता
और तब वे एक दूसरे का हाथ थामे
किसी एक दिशा में निकल जाते
सरोवर की सीढ़ियाँ सदियों से
उनका आना और बैठना जानती हैं
वही आतुरता, वही रोमांच वैसी ही बातें
किसी रोज़ न आयें तो निराश हो जाती
हैं
जल समझाता है –
हर बार वही नहीं आते
जो तुम्हारी गोद में पहली बार बैठे
थे
वो तो चार-पाँच बार के बाद
– बादल कह रहे थे –
अलग-अलग दिशाओं में चले गए थे
तब से आज तक हज़ारों जोड़े आए और गए
और तुम हो कि ..
सीढ़ियाँ जल को झिड़क देती हैं –
रहने दो अपनी दरपनिया ऐंठ
कितनी छवियाँ रखी हैं छिपाकर बोलो
हम सीढ़ियों के सिवा सब कुछ बदल जाता
है
जैसे तुम्हारे सीने की मछलियाँ
सामने खड़े पेड़ के पत्ते
और मुझे फाड़कर उग आयी दूब तक
हमें चेहरों से क्या लेना
हम तो उन्हें पैरों की चाप और
देह के ताप से पहचानती हैं !
कविता से परे
माना कि बहुत सारी कविताएँ हैं यहाँ
मगर कविता से परे भी बहुत कुछ हो
सकता है
मुमकिन है
कोई बैठे और उसे
बीज गणित के मुश्किल सवालों के हल
सूझ जाएँ
शेयर्स की ख़रीद-फ़रोख़्त में
पिछले हफ़्ते हुए घाटे की भरपाई का
रास्ता निकल आए
तय कर ले कि नौकरी ज़्यादा मुफ़ीद कि
व्यापार
किस नगर किस मुहल्ले में बसे
फ़्लैट कहाँ ख़रीदे
और वसीयतनामे में किसके नाम क्या
लिखा जाए
सरोवर की सीढ़ियों पर
पसर सकते हैं मस्लेहत के मसले तमाम
वैसे ही जैसे अभी इस छोटी-सी कविता
में !
मंदिर-१
मेरे पीछे सदियों पुराना मंदिर है
और सामने सरोवर का काँपता हुआ जल
जल के भीतर मंदिर भी हौले-हौले काँप
रहा है
दीवारों पर उकेरी गयी मूर्तियाँ
जड़ता गँवा चुकी हैं
उनकी काया में लोच देख रोमांचित हूँ
उठकर मंदिर की तरफ़ देखता हूँ
कितना रूखा कितना धूसर कितना जड़
सदियों की बारिश पीकर भी निष्प्राण
पत्थर के गर्भगृह में बसे पत्थर के
देव विग्रह भी
जाने कितना जल पी गए
किंतु पत्थर के पत्थर
फिर मुड़ता हूँ और बैठ जाता हूँ
सरोवर की सूनी हो चुकी सीढ़ियों पर
मंदिर में घंटों और कामनाओं का शोर
है
और यहाँ तृप्ति, शीतलता और शांति की त्रिवेणी
यहीं से लौट जाऊँगा अब !
मंदिर- २
कथाकाय मंदिर के परिसर में
कज्जल कहन वाली कविताओं से भरा
एक प्रच्छन्न सरोवर भी है
यह जानने में समय लगता है
इसका संधान
कृपा और प्रसाद के अधीर अहेरी
और पार्श्व द्वार से पैठते कुटिल खल
कामी नहीं कर सकते
कि उन्हें तो गर्भगृह के द्वार तक
बेरोक प्रवेश
एक बेमन से फेंकी गयी माला
एक सीला रामदाना और निर्बाध निकास
मिल जाए यही बहुत है
उन्हें इस बात से क्या मतलब
कि कब खसती है माल
मूरत कब मुसकाती है !
मंदिर- ३
मंदिर को सरोवर चाहिए
सरोवर को मंदिर की क्या दरकार
सीढ़ियाँ भी उसकी मंदिर तक नहीं
जातीं
वे और सीढ़ियाँ हैं जो वहाँ जाती हैं
मगर जब सरोवर मंदिर की मिल्कियत हो
तो क्या करें वे जो उसकी सीढ़ियों पर
धूप की तरह बैठना चाहते हैं
बारिश की तरह स्वयं को सौंपना चाहते
हैं
उसके साथ हवा की तरह होना चाहते हैं
पवित्रता का पंक बाँटते मंदिरों की
मुट्ठी में मरते सरोवरों के देश में
पीने लायक पानी कहाँ मिलेगा प्रभो!
मंदिर- ४
क्या फ़र्श और क्या दीवारें
विग्रह तक चिपचिपे
मंदिर में जाओ तो
कामनाओं के कीचड़ से लिथड़ जाता है
मन
हर फ़रियादी चकनाचूर मनौतियों के
मलबे से गुज़रकर
मलीन और मर्माहत लौटता है
जाने किसने रचा था ऐसा सार्वजनिक
उपाय
जहाँ करुणा सिक्कों की तरह खनकती हो
ऐसे मंदिरों में सरोवर के जल से
नहाकर क्या जाना
और अगर नहीं रह सकते जाए बिन तो जाओ
मगर लौटते हुए आओ इधर
सरोवर की सीढ़ियों पर
बैठो थोड़ी देर
यह प्रकृति और पुरुष दोनों की करुणा
का नीर है
क्या तन और क्या मन
मज्जन तो यहीं हो सकता है मानुसो!
मंदिर- ५
डाल पर नयी-नयी आयी मैना से
पुराने तोते ने कहा –
उस बूढ़े को देख रही हो
जो खाँसता हुआ जा रहा है
वह रोज़ आता है
और पानी में डूबी सीढ़ी के बिलकुल
पास बैठता है
अजीब है .. उम्र हो गयी
मगर मंदिर की तरफ़ मुड़कर देखता तक
नहीं
कमबख़्त अपनी खुरदरी आवाज़ में
बड़ी देर तक जाने क्या गुनगुनाता है
और सरोवर का अंजलि भर जल सरोवर में
ही छोड़ .. चला जाता है
लौटते वक़्त उसके क़दम ऐसे उठते हैं
जैसे वह नंदन कानन से मृत्युलोक की
तरह जा रहा हो!
मंदिर- ६
पुलिस पानी पर लिखा नहीं पढ़ सकती
उसके जासूस मछलियों की आँखों में
दर्ज सबूत नहीं चुन सकते
अदालत में नहीं जा सकता सरोवर
और जाकर भी क्या होगा
जो आँखों देखा हाल हृदयंगम
उसे जानने की कोई तरकीब नहीं अपराध
विज्ञान के पास
जिस रात मंदिर की मूर्ति चोरी हुई
उस रात प्रभु के आदेश से यहीं बैठा
था पुजारी
चिलम पर चिलम खींचता हुआ
और अगले दिन सूने मंदिर को देखकर
पत्थर हो गया था
और आज पुलिस ने फ़ाइल बंद कर दी
पंछियों को नहीं पता
वरना सारे संसार को बता देते –
पानी में गिरने से पहले वह चीख़ा था
कह तो चींटियाँ भी देतीं
कि उसकी टूटी हुई बेज़ायक़ा साँस
आज भी सरोवर की सीढ़ियों पर पड़ी है
!
मंदिर- ७
वह रास्ता जो मंदिर को जाता है
शोहदों से ख़ाली नहीं
पसीजने वाले पैर
पवित्र देहरी पर भी फिसल ही जाते
नाख़ून गर्भगृह के भीतर भी बढ़ते हैं
और मंदिर का नेपथ्य मंदिर नहीं होता
वह जो ब्रह्म मुहूर्त के ठीक पहले
धोता है अपने पाप
लोगों को समझाता है
कि आधी रात के बाद कथाओं से निकल
सरोवर की सीढ़ियों पर केलि करते हैं
साँप !
अंतिम
आहिस्ता-आहिस्ता टूट जाएँगी सीढ़ियाँ
निथरा हुआ जल देती मिट्टी गाद बनकर
भर जाएगी
कम होता पानी
पृथ्वी के अंत:पुर में पनाह लेने को
खिसक लेगा
एक बूढ़ा और बीमार बगुला
अंतिम मछली को अंतिम निवाला समझ
देखता रहेगा
दोनों में पहले कौन मरेगा यह ईश्वर
नहीं
अंतर्धान होता पानी तय करेगा !
डॉ. विनय कुमार
————–
जन्म : ९ जून १९६१, कंदौल, जहानाबाद(बिहार)
काव्य पुस्तकें : क़र्ज़ ए तहज़ीब एक
दुनिया है, आम्रपाली और अन्य
कविताएँ, , मॉल में
कबूतर और यक्षिणी।
मनोचिकित्सा से सम्बंधित दो गद्य
पुस्तकें मनोचिकित्सक के नोट्स तथा
मनोचिकित्सा संवाद प्रकाशित।
इसके अतिरिक्त अंग्रेज़ी में
मनोचिकित्सा की पाँच किताबों का सम्पादन।
*वर्ष २०१५ में ” एक मनोचिकित्सक
के नोट्स‘ के लिए अयोध्या
प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान
*वर्ष 2007 में मनोचिकित्सा सेवा के लिए में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का ‘‘डॉ रामचन्द्र एन. मूर्ति सम्मान’’
मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में
नेतृत्व। पूर्व राष्ट्रीय महासचिव: इंडियन
साइकिएट्रिक सोसाइटी
सम्प्रति: प्रेसिडेंट, इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी: ईस्टर्न ज़ोनल ब्रांच