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Home कविता

वसंत सकरगाए की कविताएँ

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कविता, साहित्य
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वसंत सकरगाए बहुत समय से कविताएँ लिख रहे हैं। उनकी कविता ‘हरसूद में बाल्टियों’ से लेकर ‘आज के दिन जन्मे हुए बालक’ तक फैली हुई हैं। वसंत आस-पास की छोटी चीजों के सहारे शानदार कविताएँ संभव करते हैं। भाषा की सहजता इस कवि की एक अन्य विशेषता है जो इधर लगभग कम होती जा रही है – सहज भाषा में बड़ी कविता लिखना वास्तव में कठिन कार्य है और यह कार्य वसंत बखूबी कर रहे हैं। वसंत जी की कविताएँ हम अनहद पर पहली बार पढ़ रहे हैं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार तो रहेगा ही।

 

 

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हरसूद में बाल्टियाँ

 

महानगर की तर्ज़ पर

हरसूद में नहीं थीं दमकलें

लिहाज़ा नहीं फैली दहशत

कभी सायरन के ज़रिए

और आग की ख़बर आग की तरह

 

चूँकि दमकलें नहीं थीं इसलिए आग बुझाना

नैतिक दायित्व में शामिल था, नौकरी नहीं

 

छठवें दशक के उस दौर में भी

बूँद-बूँद पानी के लिए जब जूझ रहा था हरसूद

उठते ही कोई लपट नाजायज़

किसी घर से ग़ैर वाजिब़ धुआँ

पलक झपकने से पहले ही

पानी भरी बाल्टियाँ लिए लोग

दौड़ पड़ते थे आग की ओर

 

हाँ, थाना कचहरी और रेल्वे-स्टेशन पर

टँगी ज़रुर रहीं ये निकम्मी… ताउम्र

सड़कर गल जाने की आख़िरी हद तक

रेत भरी कुछ लाल बाल्टियाँ

जिनकी पीठ पर लिखा होता था ‘आग‘

जो तक़दीर बनने की पायदान पर

इस्तेमाल होती रहीं ऐश-ट्रे और पीकदान बतौर

कि बुझाते थे लोग ‘आग‘ में

बीड़ी-सिगरेट की आग और थूकते थे आग पर

 

दुनिया की बड़ी से बड़ी अदालत में

ख़ुदा को हाज़िर नाज़िर मान

कि एक दिल की अदालत भी है यहाँ

दे सकता हूँ यह बयान

कि मेरे पूरे होशो-हवास में

कभी नहीं बनी बड़ी तबाही की वजह आग

फिर किसने और क्यों फैलायी अफ़वाह यह

तबाही की हद तक फैलती है आग

बहरहाल करते हुए ज़मीनी आस्थाओं को ख़ारिज़

जिंदा दफ़न, अमान्य हर शर्त तक

लिया गया फ़ैसला

कि पाट दिया जाए कोना-कोना

पानी से हरसूद का

 

जगह-जगह से नुँची-पीटीं

मूक रहीं जो बरसों-बरस

लटकी-पटकी वक़्त की तरह

होते-होते हरसूद से बेदख़ल

लोगों के संग-साथ

बहुत रोयी थीं बाल्टियाँ भी।

 

 

नाप

 

कितना कम हूँ मैं

अब आपको क्या बताऊँ!

 

न आकाश तक हाथ पहुँचते हैं

न पाताल तक पाँव

 

टुकुर-टुकुर देखता रहता हूँ आसमान

पाँव से कुरदेता रहता हूँ ज़मीन

 

मेरे नाप का कोई आदमी मिले

तो बताना मुझको

 

 

आज के दिन जन्मा बालक

 

आज इस बालक का जन्मदिन है

और उस बालक का भी

 

मैं देख रहा हूँ अलग-अलग आँखें

अलग-अलग नापें  पाँव की छापें अलग-अलग

सुन रहा हूँ पदचापें अलग-अलग

आज के दिन की

 

आज इस बालक का जन्मदिन है

आज सुबह जब जागेगा गुदड़ी का यह लाल

कोई धूल मलेगा इस बालक के मुँह पर

कोई उठाकर पटकेगा पानी के गड्डे में

हरी घास पर बच्चे खाएँगे कुलाटियाँ

नाचेंगे गाएँगे-

हेप्पी बरथ डे टू यू…हेप्पी बरथ डे टू यू…

बड़ी धूमधाम से मनाया जाएगा इस बालक का जन्मदिन

 

आज सवा सेर गुड़ फोड़ेगी इस बालक की माँ

झुग्गी-बस्ती के बच्चों में बाँटेगी एक-एक टुकड़ा

बलैया लेगी माथे पर चटकाएगी आठों उँगलियाँ

अनामिका पर पोंछेगी तवे की कालिख़

लाल के भाल पर लगाएगी काला टीका

इस बालक को नहीं मिलेगा जन्मदिन का कोई तोहफ़ा

 

आज उस बालक का भी है जन्मदिन

सुबह-सुबह माँ हटाएगी लिहाफ़

और कहेगी; “विश यू वेरी-वेरी हैप्पी बर्थडे माय डियर सन”

इसे दोहराएंगे पिता नाश्ते के वक़्त डायनिंग टेबल पर

शाम किसी आलीशान होटल के हॉल में

बड़ी धूमधाम से मनाया जाएगा उस बालक का जन्मदिन

 

उस बालक के चेहरे पर मला जाएगा केक का मख्खन सारा

जैसे ही फूटेगा ग्लीटर बम उतरेंगे चाँद-सितारें

छूटते ही स्नो-स्प्रे खड़ी होंगी सफ़ेद झाग की पर्वत-श्रृंखलाएँ

फूट-फूटकर बधाइयाँ देंगे रंग-बिरंगें गुब्बारें

 

शहर के किसी तोपचंद के गिफ्ट-पैक में होगी छोटी-सी तोप जिस पर लिखा होगा जय जवान और बैठा होगा वर्दी पहनकर

यह तोप घरभर में दौड़ेगी सेना के बेड़े में नहीं होगी शामिल

एक कुख्यात अपराधी देगा खिलौना बंदूक का तोहफ़ा

अल्पबचत अधिकारी के हाथों में होगी महंगी धातु की  गुल्लक

कोई नन्हे ख्बाबों में भरेगा रिमोट-कंट्रोल ऐरोप्लेन की उड़ान

और नज़राना कारों की तो इतनी होगी तादाद

पिता की कार की डिग्गी में रिक्ति नहीं होगी कारें रखने की

छप्पन पकवानों की महक से तृप्त होंगी हवाएँ

 

आज के अख़बार में पढ़ रहा हूँ

आज के दिन जनमे बालक का भविष्यफल

छपा है कि आज ही के दिन जन्मे थे शेक्सपियर

एक बड़ा अभिनेता एक बड़ा क्रिकेटर

मिल्खा सिंह और कल्पना चावला ने

जन्म लिया था आज ही के दिन

 

ज्योतिष ने लेक़िन यह कहीं नहीं लिखा

कि आज के दिन की

आँखें होती हैं अलग-अलग

पाँव की छापें  नापें अलग-अलग

पदचापें सुनाई देती हैं अलग-अलग

 

आज इस बालक का जन्मदिन है

और उस बालक का भी!

 

                                           

रबर

 

सबकुछ वैसा ही है जैसा कि अब तक

रहा व्यवहार और बरताव

 

यह लचीलापन है कि पुराना रबर-बैंड

गिरता है तो अब भी

बनती है दिल की आकृति

 

यहाँ तक कि मर-मिटने की शर्त पर

ग़लतियाँ सुधारने और फिर नयी इबारत गढ़ने का

बड़े-बूढ़े-बच्चे सभी को

समान अवसर देता है रबर का एक टुकड़ा

 

रबर की थैलियाँ (फॉमल्टेशन बैग्स्) उतनी ही खरी हैं

सदियों से दे रही हैं

मरीजों को राहत की सेंक

 

शुक्रिया रबर के उन तमाम वाइजरों का

जिन्होंने संधियों की हर दरार पाटी

और व्यर्थ नहीं जाने दिया हवा और द्रव

 

मेरी नब्ज़ टटोल कर नहीं

हो सके तो किसी तरकीब़ से थोड़ा खींचकर देखिए

देखिए कि इतने अत्याचार हो रहे हैं मुझ पर

और गुस्से में

तन नहीं  रही हैं मेरी नसें

 

डॉक्टर!

कहीं ऐसा तो नहीं कि

मर चुकी है

मेरी नसों की रबर

 

 

कवि का कारोबार

 

जब एक-एककर  लोगबाग

उतारकर फैंक रहे थे सहजता-सरलता

 

मैं आत्मा के काँधे पर संवेदना की बोरी टाँगे

एक कबाड़ी की तरह बीनता रहा उन्हें

आनेवाली नस्ल के लिए

किंचित कोशिश करता रहा काग़ज पर

तरतीब से पेश करने की

 

कि कभी हमारे पुरखे

हुआ करते थे सहज-सरल

 

कि एक कवि का पारम्परिक कारोबार था यह

जो चलता था नये कारोबार के साथ

 

 

सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण

 

बेशक़ सूरज को नीले कुर्ते पर टँका

सोने का बटन कहते हों आप

और चाँद को

छींटदार काले कुर्ते पर लगा

चाँदी का बटन

 

मगर हक़ीक़त कुछ और ही है जनाब !

 

सूरज बुरीतरह फँसा हुआ है दो मामलों में

 

एक कुआँरी लड़की से सम्बंध बनाना और

गर्भवती होने पर उसे बेसहारा छोड़ देना

दूसरा प्रकरण शिशुपाल वध की

साज़िश में बताया जाता है शामिल होना

 

आपको तो पता ही है अदालतों की लेटलतीफियाँ

सो, सदियों से चल रहे हैं ये दोनों प्रकरण

 

जिस समय राहू दरोगा काला नक़ाब पहनाकर

सूरज को ले जाता है पेशी पर

उस समय को

सूर्यग्रहण कहते हैं

 

और जिस रात केतु दरजी का सिला

बुर्का ओढ़कर निकलती है नाज़नीन पूर्णिमा

दीद के मारे दिलजले आशिक़ों के लिए

यह रात

चंद्रग्रहण होती है।

 

 

हाथों की फ़िक्र से गुजरते हुए

 

“कहीं ऐसा न हो किसी दिन

मैं पूरी तरह लाचार हो जाऊँ अपने इन हाथों से”

 

मैं डॉक्टर को अपनी समस्या बता रहा हूँ-

 

बता रहा हूँ कि कठिनाई फ़िलहाल इतनी भर है

कि दाँयी और बाँयी और ऊपर की तरफ़

ठीक से उठा नहीं पा रहा हूँ दोनों हाथ

थोड़ा मुश्कि़ल होता है फिर भी नहाते वक़्त हाथों को

खींच-तानकर

साबुन लगा ही लेता हूँ काँख-काँधे पर

 

बता रहा हूँ कि कठिनाई फ़िलहाल इतनी भर है

कि काँधों को किसी तरह बचा रहा हूँ

अवांछित हाथों के रखे जाने से

लेकिन  हटा नहीं पा रहा हूँ उन नामुराद हाथों को

अपने हाथों से

 

बता रहा हूँ कि कठिनाई फ़िलहाल इतनी भर है

कि एक अँधियारा बादल गुजर जाता है मेरे घर के ऊपर से

पर काँधे पर डट गई पूरी अमावस

को हटा नहीं पाऊँगा अपने हाथों से

 

एक पर्ची पर कुछ दवाएँ लिखकर देने के साथ ही

डॉक्टर मुझे यह ज़रूरी मशविरा भी देता है कि

“कठिनाइयों की फ़िलहाल शुरूआत भर है यह

लेकिन मुठ्ठियाँ तानकर हाथों को ऊपर नहीं उठाओगे बार-बार

हाथों को नहीं फैलाओगे चारों तरफ़

तो किसी दिन

पूरी तरह लाचार हो जाओगे

हाथों से!”

 ——

                                            

 

 वसंत सकरगाए                

2 फरवरी 1960 (वसंत पंचमी) को हरसूद (अब जलमग्न) जिला खंडवा मध्यप्रदेश में जन्म।

म.प्र. साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार,मप्र साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान,शिवना प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान तथा अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘संवादश्री सम्मान।

बाल कविता-‘धूप की संदूक‘ केरल राज्य के माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल।

दूसरे कविता-संग्रह ‘पखेरु जानते हैं‘ की कविता-‘एक संदर्भ:भोपाल गैसकांड‘ जैन संभाव्य विश्विलालय बेंगलुरू

द्वारा स्नातक पाठ्यक्रम हेतु वर्ष 2020-24 चयनित।

 दो कविता-संग्रह-‘निगहबानी में फूल ‘और ‘पखेरु जानते हैं‘ ।

संपर्क-ए/5 कमला नगर (कोटरा सुल्तानाबाद) भोपाल-462003

मोबाइल-9893074173/9977449467

ईमेल- vasantsakargaye@gmail.com

 

 

 

 

 

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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