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वी रू |
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वीरू सोनकर की कविताएँ प्रचुर ऊर्जा से भरी हैं और उनमें धरती की चिंता समाहित है। यही कारण है कि धरती उनका प्रिय शब्द है। वीरू अपनी पीढ़ी में इस कारण अलहदा हैं कि उनकी कविताएँ किसी जाति या सम्प्रदाय का हिस्सा न होकर खालिस मनुष्य की कविताएँ हैं । यहाँ उनकी लगभग पंद्रह कविताएँ दी जा रही हैं जो बहस की माँग करती हैं। आपसे अनुरोध है कि उनकी कविताओं पर अपनी बेवाक राय रखें। अनहद कोलकाता आपका ही ब्लॉग है, आपके होने से हमारा हौसला बढ़ता है।
धरती ने बहुत देर में भ्रम तोड़ा था
वह जो चपटी सी दिखती थी
पर थी गोल
इसकी पीठ पर बहुत सारे देश चढ़े बैठे थे
पहले धरती के यह देश होते थे
फिर धीरे-धीरे देशों की अपनी धरती हो गयी
*
बंदरों की कोई धरती नहीं थी. वह कूदते फांदते एक पूरे विश्व को मुँह चिढ़ाते थे
धरती सिर्फ आदमियों की थी और आदमी धरती के सबसे चिढ़ने वाले प्राणी थे
*
धरती कब से थी, और कहाँ से आई थी, या कैसे बनी थी, यह सब की बातों का जरूरी हिस्सा था
धरती कैसे बच सकती थी, इस बात से सब चेहरा छुपाते थे
कुछ लोग कहते थे कि धरती दुल्हन की तरह है और रात-दिन उसका श्रृंगार करते, कुछ कहते वह माँ की तरह है और कहते-कहते मर जाते!
*
कुछ लोग, जिनकी अपनी कोई धरती नही थी वह दूर से उगता हुआ सूर्य देखते थे और खुशी से झूमने लगते थे बड़े हर्ष से कहते कि एक दिन हमारी भी धरती होगी
*
धरती पर मकान थे, दुकाने थी और पाठशालाएं भी, कुछ दब-दबा कर मंदिर और वेश्यालय भी थे. धरती पर लुटेरे भी थे जो लूट लेते थे धरती को, पर धरती अनिद्य सुंदरी थी उसका कौमार्य ज्यादा टिकाऊ था या उसका प्रसव काल लंबा टिकता था. इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ बूढ़े ही दे सकते थे पर वह असंवाद के रोग से ग्रस्त होकर मर जाते थे. यह धरती उन बुढो को किसी गुप्त इतिहास सा लील लेती थी. बाद में अनुत्तरित प्रश्नकर्ता धरती पर नए बुढो की प्रतीक्षा करते थे
*
कई बार बूढ़े सोचते, कि काश मरने से पूर्व वह अपनी आँखें किसी शीशे के जार में रख दें और बाद में इस धरती को टकटकी लगा देखते रहें. उनका अनुसंधान कहता था कि भाषा सिर्फ बोली ही नही जा सकती, बल्कि देखी भी जा सकती है!
*
धरती का पेट संसार का सबसे बड़ा पेट था पर यह कुछ खाता नही था सिर्फ उगलता था
*
बच्चे कहते हैं कि धरती चोर है जो उनके कंचे खा गई. कुछ वयस्क तो अक्सर शिकायत करते कि उनके हिस्से की धरती उनका भाई खा गया. कोई नही जानता था कि धरती अखाद्य है जो किसी को नही पचती. कुछ चालाक पिता भी थे जो धरती को एक चपत लगा कर, गिर पड़े चोटिल रुआँसे बच्चों को समझा देते थे. यह धरती फिर एक विशाल गद्देदार मैदान में बदल जाती थी
*
लोग बुलबुले की तरह बनते थे और फूटते थे
धरती चुप रहती थी और बनी रहती थी
धरती का सारा इतिहास बुलबुलों के बनने और फूटने का इतिहास है
*
धरती पर हवा है
धरती पर पानी है
भाषा है और रंग-रूप है
धरती पर सांसे है जो चलती ही रहती हैं एक बार धरती के एक हिस्से ‘चिली‘ से एक कवि ( जिसका नाम *पाब्लो नेरुदा है ) ने कविता में नारा दे दिया.
मौन रहना
अब हम बारह तक गिनेंगे
और इस बीच सब मौन रहेंगे
कम से कम एक बार इस धरती पर
चलो कोई भी भाषा नही बोलें
चलो रुक जाएं एक पल के लिए
बिना अपनी बाहें हिलाए–
और धरती ने भी अपनी सांसे रोक ली थी धरती के जीवन का पहला रोमांचकारी पल, जब उसे लगा था अब तो कोई न कोई उसकी भाषा सीख ही लेगा
पर नेरुदा के कहे पर यह दुनिया नही चलती. न कोई रुका, न किसी ने बोलना बंद किया
धरती अपनी आदिभाषा मे पता नही कब तक बड़बड़ाती रहती पर तब तक कुछ कवियों ने ऐलान कर दिया था कि धरती की आधिकारिक भाषा ‘कविता‘ है
*
धरती पर नदी की लय थी
धुन थी जो बजती रहती थी हवाओ के बांस के जंगलों से गुजरने पर
धरती पर रोड मैप भी थे
बहुत दूर तक पंक्षियों को रास्ता बताते
बहुत दिनों तक कवियो का काम ऐसे ही आसान हुआ
*
धरती शिल्प से भरपूर थी. अलग-अलग जगहों पर चीजे बदल जाती थी. कहीं चपटी नाक तो कहीं कमानी सी खड़ी नाक सुंदरता के पैमाने में बदलती थी. जो चीज कहीं अपमान का विषय थी, तो थोड़ा आगे बढ़ कर वही सम्मान का विषय होती थी
*
धरती पर बेहिसाब मौसम थे और थे संसर्ग और अंधाधुंध प्रजनन. खोह-खदान कुछ भी सुरक्षित न था. जो अभी तक खोदा न गया था उसकी कुदालें इसी धरती पर तैयार हो रही थी
और धरती,
जिसने सब कुछ पर्याप्त मात्रा में बना दिया था. वह अपने हवा से हल्के हाथों से एक चेहरा बना रही थी. वह चेहरा जो धरती की भाषा पढ़ने की एक कोशिश और कर सकता था. वह चेहरा जो एक बार और कविता लिखता तो सब चुप हो जाते, बिना बाहें हिलाए
और धरती तब शायद अपना पहला वाक्य बोलती!
उन दिनों/इन दिनों
उन दिनों एक बार
मेरी परछाई गिर पड़ी मेरे भीतर
देह नही, आत्मा की चोट बोलती रही भीतर
देर तक समझाया आत्मा ने
तुम देह का नही मेरा अक्स हो बाहर
उन दिनों मैंने चाय की बजाए अपना फ़ोन लगा लिया था
मुँह के पास,
और भूल का एक सिप ले लिया
काफी देर तक मेरी चाय का कप हकबकया सा रहा
मुझे पहचानने की कोशिश में
उन दिनों मैं देर तक चलता रहता था
सड़क से बातें करता हुआ
अप्रत्याशित ठोकर से
सड़क याद दिलाती थी बार-बार
श्रीमान, आप गलत व्यक्ति से बात कर रहे हैं
मैंने सड़क से नही कहा
मुझे बहुत बुरा लगता हूँ जब तुम ‘यु टर्न‘ लेती हो
उन दिनों मेरे एकांत में, एक बड़ई चला आता था
और कहता था मुझे
महोदय,
मुझे आता है स्मृति-बोझ से दबी आत्मा को छीलना, और चमकाना
मैं उन दिनों बहुत ज्यादा सोचा करता था
जिन दिनों लोग मानते थे
उदासियों का मौसम अब चला गया
उन दिनों, संशय का एक मौसम
मेरे भीतर अपना पहला बसंत मना रहा था
इन दिनों मैं सोचता हूँ
अपने उन दिनों को
और सहलाता हूँ अपने मिट गए संशयों को
इन दिनों मेरी परछाई मुस्तैद है मेरे बाहर
मेरी आत्मा का चेहरा अब भीतर नही
मेरे चेहरे से हँसता है
यह धूप के माथे पर छांव के ठहर जाने के दिन थे
अब मैं देह और आत्मा को अलग-अलग ठीक से पहचान सकता था!
उन दिनों और इन दिनों में अब एक बड़ा फर्क है
इन दिनों मेरे एकांत में आ बैठा
वह बढ़ई
अब एक कवि की भाषा मे बात करता है
शब्द नहीं, एक पूरा देश है
शब्द, शब्द की तरह नही आये
वह आये थोड़ा सकुचाते हुए
और, मैंने पूछा कैसे हैं आप!
शब्द जो प्रत्यक्ष थे, स्वतः प्रमाणित थे
आश्चर्य से भरे हुए, वह दुबारा आये तो अपने कपड़े उतारे हुए
और, मैंने फिर पूछा मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ
लौट गए शब्द इस बार आये, तो करुणा से भरे हुए थे
दुख की छाया उनकी और बढ़ गयी थी जब मैंने उनसे पूछा नही
सिर्फ बताया, मैं आपके लिए कर ही क्या सकता हूँ
इस बार शब्द आये तो
अपमान और गुस्से से जले हुए
आधे गले मे फसे, और कुछ हिचकी के साथ बाहर निकले हुए
उन्हें एक निशब्द और निर्विकार चेहरा मिला
वह लौट गए!
शब्द, जो शब्द की तरह नही आये थे
चुभते रहे, एक चुप्पे मनुष्य के भीतर बहुत देर तक
इस बार वह आये तो मैं कह दूँगा उनसे
मैं करूँगा कुछ न कुछ आपके लिए
पर शब्द नही आये, उनकी आहटे आती रही
पदचाप बजते रहे कानो में
कि एक सुबह मैंने देखा!
एक देश को, ‘शब्द‘ जिसकी पीठ पर शहरों-गाँवो और मुहल्ले के घरों की तरह उँग आये थे
मैंने देखा, मेरे कपड़े हवा में उड़ गए हैं
एकदम नग्न/लालभभुका चेहरा लिए हुए
मैं किसी शब्द की तरह नही
किसी उत्तराकुल प्रश्न की तरह!
एक चुप्पे मनुष्य की ओर दौड़ जाना चाहता था
उस धूर्त मनुष्य की ओर,
जिसके बारे में माना जाता है कि उसका चेहरा बुद्ध से मिलता है
जो अपनी कविता में एक ‘निर्दोष व्यक्ति‘ है
देश को खोदा जाए
एक कुदाल लीजिए
और शुरू हो जाइए अपने घर से ही
खोदना शुरू करिये
ऐसे मानो राष्ट्र निर्माण की नींव रखना है आपको
घर की खुदाई से निकलेंगे
कुछ जरूरी मुद्दे/अश्लील फिल्मो की सीडियां/टी वी पर संसद की बहसों में ली गयी उबासियाँ/फटाफट काम निकालने को दी गयी धनराशियाँ
वह सारा कचरा भी निकल रहा है
जिसे देश की सड़कों-ट्रेनों-बसों-सरकारी कार्यालयों में आपने फैला दिया था
आप हैरत में हैं इतना साफ सुथरा घर आपका
कैसे बदल गया पीकदान में ?
कहीं निकल कर रेंग रहा होगा एक मतदाता भी
अपने अचरज को समेटिये, अभी और खुदाई बाकी है
दिमाग पर जोर डालेंगे तो वह मतदाता आपको याद दिला सकता है
पिछला चुनाव, जिसमे आपकी जाति जीत गयी थी
मिट्टी को हटाने की प्रक्रिया में
निकल रही हैं सुंदर लड़कियाँ
और देखिए तो, आप उन्हें पहचान रहे हैं
बस में,
रेल यात्रा में,
और सड़क पर
आपकी याददाश्त बहुत तेज़ है सच मे,
आधे कपड़ो में घूम रही ये लड़कियाँ भला भूलने की भी चीज हैं ?
खुदाई में निकले मुद्दे जिन्हें आपने पीछे फेक दिया है
आप याद करते हैं
आप इन्हें पहले भी कभी फेक चुके हैं
खोदते-खोदते देखो, सामने आ गया है एक पत्थर
आपसे यह पत्थर हटाये नही हट रहा है
कुदाल का वार बार-बार उस पत्थर पर पड़ रहा है
उस पत्थर पर, एक पहचाना हुआ चेहरा उभर रहा है
अब जरा घर से बाहर झांक कर देखिए
और सच बोलिये, क्या आप सहमत हैं
कि एक ऐसी ही खुदाई पूरे देश मे होनी चाहिए ?
पत्थर पर उभरे चेहरे की जैसी शिनाख्त आपने की
क्या वैसी ही शिनाख्त पूरे देश मे होनी चाहिए ?
या एक देश को यूं ही टनों मिट्टी के नीचे दबे रहना चाहिए
ताकी पुरातत्ववेत्ता कभी ठीक से जान सकें
कि एक देश, जो जीवित था
वह मतदान करते-करते आखिर कैसे मर गया!
इस सदी के बच्चे
एक सदी के समाप्त होने पर
अब मछलियों को उल्टी आयी है
मछलियाँ उगल रही है सफेद पुतलियों वाले इंसानी बच्चे
पूरी दुनिया मे अब बच्चे ही बच्चे हैं
जो दौड़ रहे हैं
जो हँस रहे हैं
जो चीख रहे हैं
और धक्का दे रहे हैं एक दूसरे को
गिर रहे हैं एक सदी से, दूसरी सदी की गोद मे
और किताबो में ढूंढ रहे हैं
अपनी खो गयी काली पुतलियों को
नई सदी, बच्चो की सदी है
पिछली सभी सदी के बच्चे जो अजन्मे थे
उन्हें मछलियाँ उगल रही हैं
नई सदी के हाथों में!
वह आपकी मेज उलट देंगे
बहरा कर देंगे आपकी लाइब्रेरियों को
आप जहां जिस काम को मना करेंगे, उसे वह वहीं करेंगे
इस सदी के बच्चे, पिछली सभी सदियों की इच्छाएं हैं
एक दिन आप जानेंगे
कि बच्चों ने आपको भी इसी सदी में ला पटका है
जैसे आप भी अभी तक
किसी मछली के पेट मे थे!
आदत
पहले-पहल मैं नही जानता था
कि किसी काम को लगातार दुहराने से
खुद में लग गयी एक सेंध को ‘आदत‘ कहते हैं
मुझे लोगो ने बताया
न जाने कब किसी के पहले हुक्म की शक्ल में,
एक आदत ने दरवाजा खोल कर मेरे भीतर अपना पहला कदम रखा
लोग नही जानते थे
मैं जानता था!
जाति
मैं बहुत देर से जाना!
कि मेरी जाति मेरा साथ घट गया, सिर्फ एक ‘दुर्योग‘ है
दुनिया यह पहले से जानती थी
मैंने दुनिया से कहा
दुनिया ने मुझे सुना भी
पर दुनिया चुप रही
मैं जल्दी जान गया!
मैं जिसे किसी दुर्योग की तरह देखता हूँ
वह दुनिया के हाथ लग गया एक ‘सुखद संयोग‘ है
भूल
भूल एक शब्द है
जो अक्सर घर के दरवाजे पर तैयार खड़ा मिलता है
उसे याद दिलाता हुआ
जिसे आप भूल गए
‘ओह, याद आया‘
एक वाक्य भर नही, एक मंत्र है
आप जितनी बार भूलते हैं
यह मंत्र उतनी बार आपके जीवन पर एक औचक धावा मारता है
आपकी जीभ उतनी बार टटोलती है
अनुभव का एक नया स्वाद
दरअसल भूल सिर्फ एक शब्द नही, एक खबर है
जहाँ जीवन चौकता है
व्यक्ति थोड़ा और दुरुस्त होता है
शब्दधर्मिता
मेरे शब्दों में यौवन था
किलक-किलक कर बाहर आता
मानो अभिव्यक्ति नाच रही किसी नृत्यांगना सी
सब कुछ मेरे शब्दो से हिल-मिल रहा था
मेरे शब्दों से उपजा पूरा पर्यावरण
एक कवि का आगमन
एक नए दृश्य का आगमन था!
शब्द जो पतझड़ की तरह नही आए
शब्द जो ‘नए‘ का गीत गा रहे थे
शब्द जो कह रहे थे
– अब चुप हो जाना
इस सारे संसार को बूढा कर देना है!
शिशु-काल
(१)
एक भी चीज स्थिर नही थी
हर बात में प्रवाह था
वाक्य नही, पर शब्द लड़खड़ाए दौड़े जाते थे
कौतूहल की दुनिया मे हर कहीं प्रश्नचिन्ह टंगे थे
मैं चारो ओर झाँकता थक गया
पूछता और दुहराता
और सोचता संशय में!
क्या यह दुनिया भी अभी ही जन्मी है ?
(२)
हर चीज को पहली बार भौचक्का सा देख रहा था
दुख ने, पहली बार हाथ पकड़ा था मेरा
और सुख ने लीपा था ढेर चंदन मेरे माथे पर
स्पर्श सबसे मादक था
आत्मा और देह लगभग एक ही थी तब
ध्वनि एक चुड़ैल थी
जगा देती थी कच्ची नींद से
तब मेरा नाम, मेरी पहली पूंजी था
बड़ा जानवर
मेरे कान घोड़े की तरह कनफटे नही थे
न ही किसी गाय की तरह त्रिशूल छपा था मेरी पीठ पर
कुत्ते का पट्टा भी नही था मेरे गले मे
मैं गुर्रा कर खाना भी नही मांगता था
न मैं हाथी की तरह भारी, न पतंगे की तरह हल्का था
जानवरो के सभी पहचानो-चिन्हों से परे
मेरे चेहरे पर एक निर्दोष मुस्कुराहट थी
जिसके पीछे एक धूर्त छिपा था
जो सभी जानवरो में बड़ा जानवर था!
जिसकी दुम, इतिहास ने काट दी थी
मूर्ख से मिलो
दोस्तो!
कोई मूर्ख मिले, तो उसका चेहरा चूम लो
एक वही है जिसने इतिहास से कुछ नही सीखा.
वही है जो भविष्य तक खाली हाथ जाना चाहता है
वह निपट नौसिखिया जहाँ मिले, उसके पीछे हो लो
एक वही है जिसकी जेब मे
एक अनछुआ, कुँआरा जीवन है
और, उनसे दूर रहो दोस्तो!
जिनके मुँह से नसीहतें झरती रहती हैं
इतिहास-स्मृति के बोझ से दबी पीठ लेकर, जो वर्तमान की घास चर रहे हैं
ये बुद्धि-जानवर तुम्हे जीवन का नही
उस भविष्य का रास्ता बताएंगे, जिसे किसी ने नही देखा
यह चालाक लोग नही जानते
जीवन की ओर ऐसे जाना चाहिए
जैसे एक मूर्ख जाता है भरे बाजार के बीच!
जो हर चीज को यूँ देखता है
जैसे पहली बार देख रहा हो
हमारे दौर के बच्चे
हमारे दौर के बच्चों की पतंग कट गई है
उनकी दौड़ कहीं गुम है आसमानों में
वे ताक रहे हैं दुख के उस आसमान को, जिसने खा लिया है उनकी पतंग को
और उगल दिया है मौसमी बमवर्षक विमानों की चहल-पहल को
हर पेड़ ने उनके ‘लंगड़ो‘ के जवाब में
अपनी खाली जेबें दिखा दी है
मकानों की छतों पर भी नही मिल रही उनकी पतंग
कुओं में लगाई गई उनकी पुकार भी खाली हाथ लौटी है
उनकी पतंगों की शिनाख्त में अब एक पूरी दुनिया लगी हुई है
पर यह हमारे दौर बच्चे ही हैं जिन्हें पता है
अब उनकी पतंग धरती पर नही गिरेगी
हमारे दौर के बच्चे भूल रहे हैं
बम से प्रदूषित हुई हवा के पेच कैसे काटते हैं
अब लोरियां उनके सोने का नही, जागते रहने का आह्वान है.
वे कभी आते थे निश्चल-कौतूहल के साम्राज्य से
अब उनकी आंखों से एक वयस्क-भय झाँकता है
हमारे दौर के बच्चे आश्चर्य में हैं
वो इतनी जल्दी कैसे बड़े हो गए
हमारे दौर के बच्चे पढ़ते हैं ‘पूरी दुनिया के मजदूरों एक हो‘
और बुदबुदाते हैं दबी सी आवाज में
पूरी दुनिया के बच्चों एक हो!
मैं कवि हूँ ( तीन कविताएं )
१-
चेतना की मुंडेर पर बैठा एक पंछी अपनी गर्दन झाड़ता है कहता है स्मृतियों ने तुम्हे बूढा बना दिया
तुम एक पंछी की तरह हमेशा युवा रह सकते हो
उठो, और झाड़ दो इस भारी बोझ को
नए के लिए बची जगह पर ही रहता है तुम्हारा यौवन!
*
बेहद बोर लेक्चरों से ऊब चुका
मेरी कविता में चला आया एक शिक्षक कहना चाहता है छात्रों से
मैंने बचा रखी है खुद के भीतर बेवकूफ होने की तमाम संभावनाएं
चलो, साथ मे बाटते हैं इसे!
*
कि एक युग-प्रवर्तक मिल गया मुझे रास्ते मे
युग के बदल जाने के अपराध बोध से दबा हुआ
मैंने उसे अपने युग की एक ताज़ा कविता सुनाई
प्रसन्नता से भरा वह कह उठा
मैं चलता हूँ
मैंने पूछा कहाँ!
उसने कहा, मैं भूल गया था युग बदलने से ज्यादा बड़ा काम है
आदमी को बदल देना
यह भीषण दुख की स्मृति में रची गयी कविता के बसंती दिन थे
*
देर रात आंख खुलते ही मैंने देखा
भाषाविद आपस मे लड़ रहे हैं
कविता के असंस्कारी होने के आरोप पर वहां किसी एक कवि का होना बेहद जरूरी था
पर मैं उस झगड़े से दूर अपनी कविता में आ कर सो गया
*
भोर में,
मैंने नजरे चुराते हुए देखा नदी में स्नान करती स्त्रियों को
और पूछ लिया
नदी का उत्साह पी कर तुम दिन भर युवा रहोगी
या सच मे तुमने ही घोला है अपनी पिछली रात्रि का स्वप्न
इस नदी के पेट मे
कैसे तुम और नदी एक साथ इतनी बावली हो उठती हो
बताओ तो!
मुझ तक स्त्रियों की आवाजें इतनी मंद हो कर आई
मानो वह पांच हजार साल की थकी आवाजे हों
सुनो चले जाओ, हम अपने कपड़े छुपा कर नहाते हैं अब
दूसरा कृष्ण नही चाहते हैं
हम अभी पहले वाले कृष्ण को ही भुगत रहे
मैं आगे बढ़ गया
यह सोचते हुए कि आगे कभी महाभारत होगी तो मेरी भूमिका क्या होगी
अगर कभी ऐसा हुआ तो
मैं जरूर इस नदी के पास फिर लौटूंगा
और कहुंगा मैं कवि हूँ कृष्ण नही!
२-
एक दिन की बात है
मेरे घर की कुंडी खटखटा कर
रहस्य ने भीतर चले आने की इच्छा प्रकट की
मैंने पूछा कौन हो तुम
उसने कहा मेरा परिचय ही मेरी मृत्यु है
मैंने कहा आओ, भीतर चले आओ
उसके बाद उस शहर में
एक आदमी बढ़ गया था और एक कवि घट गया था
घट गया कवि, अपनी कविता में था जिसे लोग पढ़ते नही थे
बढ़ गया एक आदमी कविता लिखता था और कहता था
मैं कवि नही, एक रहस्य हूँ!
उससे कोई बात नही करता था
शहर के बूढ़े अब सिर्फ बूढ़े थे
पता नही किसने, उनके शहर के रहस्य में सेंध लगा दी थी
उनका शहर अब बिल्कुल आम शहर था
जिसकी तमाम खासियतें कभी उन बूढ़ों की आंखों में चमकती थी
३-
टोटकों से भरी पड़ी है पृथ्वी
चलने से पहले कोई दही का तिलक लगवा रहा है
कहीं गाँव मे डायन ढूंढ ली जाती है
मुंडेर पर बैठे कौवे में भी अनिष्ट संकेत ढूंढ लिए हैं लोगो ने
द्वार पार करने के लिए पहले उठे शुभ दाएँ पैर ने धकेल दिया है
अशुभ बाएं पैर पर विज्ञान के दावों को
कोई नही लेता अब भयानक बीमारियों का नाम
बेवजह नही कोसता कोई किसी को
किसी अफवाह सी बैठी रहती है सरस्वती हमारी जिव्हा पर
कि चौबीस घंटे में एक बार वो जो बोलेगी वही घटेगा आगे चल कर
हिचकी और छींक में बनते बिगड़ते हैं जिनके काम
अनिष्ट चला आता है सभी टोटकों को धता बता कर
कि मान जाओ मेरा आना तय है जैसे तय है सुखों के दिनों का चले आना
पर कहीं कोई एक यकीन का धागा बंध जाता है
धरती पर एक टोटके का बोझ और बढ़ता है
मैं सोचता हूँ
धरती के तमाम इंसानों में एक कवि का होना
पृथ्वी का आजमाया एक टोटका तो नही!
*****
वीरू फिलहाल कानपुर में रहते हैं। उनसे 07275302077 पर संपर्क किया जा सकता है।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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