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मंजूषा नेगी पाण्डेय |
मंजूषा नेगी पाण्डेयकी खासियत यह है कि उनकी अभिव्यक्ति बेहद इमानदार है – वहाँ बनावटीपन देखने को नहीं मिलता जो इधर की ढेरों लिखी जा रही फेसबुकिया कविताओं में देखी जा सकती हैं। दूसरी बात यह कि प्रेम की जटिलता और स्त्री के दर्द का बयान वे बेहद सूक्ष्म तरीके से करती हैं – इसके लिए उनके पास अपनी अलहदा अभिव्यक्ति की शैली है। अनहद पर हम उन्हें पहली बार प्रकाशित कर रहे हैं – आशा है पाठक उनकी कविताओं को पसंद करेंगे।
दो लिख रही हूं
तुम जानते हो
दोधारी तलवार पर चलना क्या होता है
शायद नहीं जानते
मेरे पास बेबुनियादी बातों का ढेर नहीं है
बल्कि हथकरघे के पंजों में फसे कितने ही सटीक धागे हैं
जो आगे पीछे ऊपर नीचे होने पर नहीं उलझते
जैसे पहाड़ की ऊँची चोटी की तीखी नोकदार ढलान पर घास चरती भेड़ बकरियां नहीं गिरती
रिवाज के मुताबिक जिस्म और रूह का अलग अलग हो जाना
रात ढलते ही समझौता करना
तकिये का गीला होना
एक उम्मीद का धीरे से खिसकना
रात के अंतिम पहर में हौले से उठना
अधूरी कंघी कर के वे नुमाइश के लिए नहीं निकलती
जितना हो सकता है
जंगल में जाकर लकड़ियां बटोरती हैं आनन फानन में
इस पशोपेश में भी
कोई जिंदगी का सिरा ही हाथ लग जाये
अपनी मजबूती जांचने के लिए कमजोर टहनियों पर कुल्हाड़ी भी चला लेती हैं
दराती से घास काटते वक्त कितने जख्म भर जाते होंगे और रिस जाते होंगे
धान की बुआई में झुकती डालियां किसी केल्शियम की मोहताज नहीं होती
बीसियों बड़ी बातें होती हैं
दो लिख रही हूं
वजूद से हट कर औरत होना
वादे के मुताबिक जिन्दा होना।
वो फूल झड़ेगा
उस अंतिम वृक्ष के लिए बसंत लौटेगा
जिस पर अमृत बेल लिपटी है
एक नन्ही चिड़िया सुबह शाम चहचहाती है
जिस पर बचा हुआ है
अभी भी एक पुष्प
जो एक पत्ते के साथ है
दिन की ढलान में
फीका सूरज होगा
निराशा होगी
दुःख होगा
दूसरे किनारे खड़ा होगा
रात की ओढ़नी लिए अमावस का चाँद
हवा से लड़ता झगड़ता
जीवन मांगता
वो फूल झड़ेगा
पत्ता झड़ेगा
साथ झड़ेंगे हम
पतझड़ की तरह
पतझड़ में
जिस तरह झड़ता है पतझड़
हम में
हम–सा
एक दिन ।
नहीं है कुछ भी ऐसा
कविता लिखने के बावजूद
मेरा जीवन से भी वास्ता है
चाय बनाती हूँ
रोटी बेलती हूँ
नाजुक मन की ओर एक पत्थर ठेलती हूँ
रात भर सोने का ड्रामा जारी रहता है
और इत्मीनान करती हूँ
भयावह सपनों से
सुबह उठती हूँ
घर भर को जुड़े में समेटती हूँ
मर्यादा की चुनर ओढ़ती हूँ
संस्कारों की बिंदी लगाती हूँ
और पहनती हूं पावों में चप्पल
ठोकरों से बचने के लिए
जो लोग स्वपन में आने से बच जाते हैं
उनसे आग्रह करती हूं
पास बिठाती हूं
समझाती हूं
नहीं है कुछ भी ऐसा
जो अंतत: घटित न हो
इस कुचक्र में निर्माण हो जाता है किले का
परिलक्षित हो रहे कंगूरे कभी भी
फैहरा सकते हैं ध्वजा ।
तुम्हारे लिए
सूखे पत्तों की फड़फड़ाहट
कितना बैचेन कर देती है
बेजान रेंगते
लोटते
कराहते
कच्चे रास्तों को विरह की पीड़ा सुनाते
दर्द का यह दृश्य देखते ही बनता है
व्यग्र हो सोचती हूँ
मैं रोक लूं खुद को
जाने से धरातल की हर दिशा में
ठहर जाऊं यहीं कहीं
तुम्हारे लिए
जैसे ठहरता है
किसी डाल पर मौसम
नहीं उतरना चाहता
पतझड़ की तरह ।
पहाड़ों को बुरा नहीं लगता
पहाड़ का जीवन पहाड़ जैसा है
मुश्किलों से भरा
उम्मीदों से भरा
एक चिड़िया पहाड़ से निकल कर आती है
और पहाड़ में खो जाती है
सुबह का सूरज पहाड़ के पीछे से निकलता है
पहाड़ के लोगों को इतना ही पता है
ये जीवित लोग हैं
भोलेपन और प्रेम रस में डूबे हुए
पहाड़ की नदी प्रेम की नदी है
छलछलाती हुई पवित्र नदी
वे नंगे पावं होते हैं
पहाड़ी रास्तों पर वे थकते नहीं हैं
पहाड़ के बच्चों का बचपन बचपन जैसा होता है
पहाड़ी औरतें बच्चों को पीठ में डाल खेतों में काम करती हैं
मर्द बीड़ी सुलगाते हैं पहाड़ों पर
पहाड़ों को बुरा नहीं लगता
पहाड़ पर चहलकदमी करते हुए लोग कभी नहीं गिरते
एक पूरा दिन पहाड़ की ढलान पर अठखेलियां करता है
सूर्यास्त के समय पहाड़ी लोग पहाड़ों की तरह एक दीर्घा
में बैठ किसी अजनबी का इन्तजार करते हैं
जो उनके घरों का अतिथि होगा
उसके स्वागत में भोजन पकेगा धीमी आंच पर
पहाड़ी लोग एक कक्ष में बैठ उस अजनबी से कहानियां सुनेंगे
वे कहानियां अनजबी के जैसी होंगी
बड़ी होती आंखे अगले ही क्षण छोटी हो जाएंगी
पहाड़ के लोग रात को सोने से पहले पीतल की परात में
अजनबी अतिथि के पावं धोएंगे
और चिर निद्रा में सो जायेंगे
पहाड़ के लोग उसे अतिथि नहीं
ईश्वर समझेंगे।
प्रेम प्रतीक्षाएं
तुम रोक लो
एक बार फिर मुझे
अगर रोक पाओ
प्रेम प्रतीक्षा में रुका रहेगा एक अंत
पूर्ण प्रतीक्षा के लिए
क्यों मिले हो इस समय
जब तुम्हारी राह कोई नहीं निहार रहा
निर्जन राह में वो लौ भी जल बुझ रही है
कांप रही है
भांप रही है
तुम्हारे हृदय में होती टकराहटों को
प्रेम का अपना भाग निश्चित है
किसे मिलना है तय है
अमावस के चन्द्रमा में
प्रियतम की छवि कोई नहीं देखता
सूखे तालाब के किनारे
मुसाफिर नहीं बैठा करते
फिर भी कदाचित तुम्हें
इस बात का एहसास न हो
तुम ठहर सकते हो कुछ देर
भर सकते हो आँखों में स्वपन
कर सकते हो सुख का अनुभव
जो तुम्हारे अपने प्रेम का प्रतिफल है
मैं तुमसे कुछ कहूँगी नहीं
शायद दे सकूंगी उस थकान को
विश्राम का पल
जो कितनी ही प्रेम प्रतीक्षाओं के कारण
तुम्हारी आँखों में दिखाई पड़ रहा है
और चल दूँगी
समय के धागे को खींचते
एक नयी दिशा की ओर ।
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परिचय:
मंजूषा नेगी पांडे
जनम : 24 अगस्त
स्थान : कुल्लू , हिमाचल प्रदेश
शिक्षा: हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय शिमला से राजनितिक शास्त्र मंे M .A
व्यवसाय: कवियत्री, लेखिका
अन्य :
गूगल पर कविता ब्लॉग :
www.kavitakerang.blogspot.in ,
www.manjushanpandey.blogspot.in
Address – #2059, jalvayu vihar society, sector 67, mohali ,chandigarh
mail – manjushan563@gmail.com
संयुक्त काव्य संग्रह- “सिर्फ तुम ” “सारांश समय का” “कविता के रंग” “काव्यशाला”
पत्र पत्रिका में प्रकाशित रचनाएँ :
“हरिगंधा” “परिंदे “एहसास की उड़ान ” , “गर्भनाल ” “अमर उजाला रूपायन” “आवाज प्लस” ,”व्यवहारिक अध्यात्म” ,”हिमतरू”,”उत्कर्ष मेल ” “आगमन एक खूबसूरत शुरुआत”
सारा सच , लेखनियां, वेब खबर ,सत्यबन्धु भारत ,आखिर लिखना पड़ा “हरी भूमि” “डिजिटल दुनिया” “हिम मानस”
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
अच्छी कविताएँ…. सजग और सक्रिय लेखन को साधुवाद.!
Kavitaye hamare as pas ki hai yah mahatwpurn hai apko badhai mai kuch alag se bhi likhunga par next time iwil tell u
बहुत बहुत धन्यवाद आपका
बहुत बहुत आभार आपका