विमलेन्दु |
विमलेन्दु को मैं बहुत अच्छे कवि के रूप में जानता हूँ लेकिन इस बीच उन्होंने उम्दा गद्य भी लिखा है। यहाँ प्रस्तुत कहानियाँ अपने कलेवर और कहन में बिल्कुल नई हैं। इन्हें पढ़ना एक कवि के गद्य को पढ़ना भर नहीं है वरन् एक ऐसे संसार में पहुँचना है जहाँ झूठ बेपर्दा हो जाता है। यह कहानियाँ वर्तमान समय की विडंबना का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती हैं।
विक्रम-बेताल की नई कहानियाँ
1. आचार्य वनस्पती सिंह और काशी की गुरु-शिष्य परंपरा
विवि मे पादप विज्ञान का विभाग नया था, वनस्पती सिंह इकलौते आचार्य थे. अतः आते ही स्वाभाविक रूप से विभागाध्यक्ष का पद सुशोभित करने लगे.
आचार्य जी ने दो-चार दिन में ही उसकी प्रतिभा को पहचान लिया था. विभाग के अलावा उसे अपने घर में भी दीक्षा देने लगे. न केवल आचार्य जी ही उसे दीक्षित कर रहे थे,बल्कि गुरु माता भी उसे आटा गूंथने,सब्जी काटने,वस्त्रादि पछारने जैसे गृहकार्यों मे प्रवीण कर रही थीं.—-आचार्य जी इसे काशी की गुरु-शिष्य परंपरा कहते थे जिसका इस रेवाखण्ड में नितान्त अभाव था.
राजन ! सायंकालीन बेला में जब आचार्य जी मदिरापान के लिए अवस्थित होते तो शिष्य हरितक्रांति शीतल जल और लवण इत्यादि की व्यवस्था किया करता. यही वह समय होता था जब आचार्य वनस्पती सिंह, शिष्य हरितक्रांति को अपनी मौलिक उद्भावनाओं से शिक्षित करते थे….उनकी मौलिक खोज के मुताबिक , पेड़-पौधे भी संसर्ग किया करते हैं. पेड़-पौधे उभयलिंगी होते हैं. वर्ष में दो बार,एक निशचित समय पर उनकी दो शाखाएँ ( जिनमें विपरीत लिंग होते हैं ) आपस में कुछ दिनों के लिए जुड़ जाती हैं.यही उनका रति-काल होता है. शिष्य हरितक्रांति इसी तरह के अनेक दिव्य उद्घाटनों से अचम्भित,स्तम्भित और गदगद हो उठता. साथ में उसकी अपनी प्रखर मेधा तो ही. सो वह पादप-विज्ञान विभाग में इतना लोकप्रिय हुआ कि कक्षा की एकमात्र कोमल-कांत-पदावली उस पर मोहित हो उठी.
आचार्य वनस्पती सिंह को यह ताड़ने में तनिक भी देर न लगी, क्योंकि वह तरुणी खुद उनके भी संचारी भावों का आलंबन थी. एक दिन मदिरा की चतुर्थ आवृत्ति के बाद आचार्य जी ने शिष्य से कहा–” बालक, हमारी काशी में एक परंपरा यह भी है कि यदि शिष्य को कोई दुर्लभ फल प्राप्त हो जाये, तो वह उसे सर्वप्रथम अपने गुरु को अर्पित कर उनसे जूठा करवाता है. तभी उस फल का सम्पूर्ण लाभ उसे मिलता है.”
हरितक्रांति मर्मान्तक पीड़ा के साथ कराहा—” गुरुवर आप कैसी बात कर रहे हैं, वह मेरी प्रीति है. हम दोनो ने विवाह करने का प्रण किया है.” इस गटना के बाद हरितक्रांति आचार्य जी से कटा-सा रहने लगा.उनके घर जाना तो बिल्कुल ही बंद हो गया. कुछ महीनों बाद उसकी स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी पूरी हो गई.M.Sc. और ढाई आखर-दोनो ही पाठ्यक्रमो में वह विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण हो गया. पिताजी का सपना उसे कॅालेज में प्राध्यापक बनाने का था,जिसके लिए Ph.d. की उपाधि आवश्यक थी. इसके लिए उसे फिर आचार्य जी की शरण में जाना था….वह गया…आचार्य जी ने क्षमा की मुद्रा में उसका स्वागत करते हुए शोध-निदेशक बनना स्वीकार कर लिया. जिस दिन उसके शोध कार्य को अनुमति देने की बैठक विवि में होनी थी, गुरुमाता ने हरितक्रांति से अपनी एक इच्छा व्यक्त की. उन्हें लेब्राडोर नस्ल के पिल्लों का एक जोड़ा पालना था. हरितक्रांति उस दिन उत्साह में था. उसने पिल्लों का जोड़ा देने का वचन गुरुमाता को दे दिया. इस वचन के साथ ही उसके शोध कार्य का शुभारंभ निर्विघ्न हो गया.पिल्लों का जोड़ा 45 हज़ार रु. में मिला. शिक्षक-पिता ने, प्राध्यापक-सपने के लिए ये पैसे दिये. राजन ! पिल्लों के साथ-साथ हरितक्रांति का शोधकार्य भी बढ़ता गया. तीन साल की अथक मेहनत के बाद आखिर वह घड़ी आ गई जब शोध-ग्रंथ पर आचार्य जी को हस्ताक्षर करना था….हरितक्रांति इस अवसर के लिए चांदी की कलम लेकर आया था आचार्य जी के लिए…..आचार्य जी मुसकाए…शोध-ग्रंथ को एक किनारे रखते हुए कहा—-” तुम्हारी प्रेमिका कैसी है ? तुम्हें काशी की परंपरा याद है न ?? “ उसके बाद की कथा यह है कि हरितक्रांति का शोध-ग्रंथ तीन बार रिजेक्ट हुआ….और दो वर्ष बाद हरितक्रांति का शव नवनिर्मित वाणसागर बांध की एक नहर में पाया गया. कहानी खत्म कर बेताल ने प्रश्न किया—-” अब तू बता राजन, हरितक्रांति की मृत्यु का कारण क्या था–काशी की परंपरा या शिक्षक-पिता का प्राध्यापक-सपना ??? “
2. स्व. चिड़ीमार वनवासी तीरंदाजी सम्मान
बहुत दिन बाद जब विक्रम श्मशान आया तो कुछ दुर्बल दिखाई पड़ रहा था. उसे देखकर बेताल ने कुछ चिन्तित होकर उसकी दुर्बलता का कारण पूछा. विक्रम ने बताया कि उसे बवासीर की बीमारी हो गई थी. गुदामार्ग से निरंतर रक्त-स्राव के कारण दुर्बलता आ गई है. विक्रम की यह दशा देखकर बेताल उसके साथ पैदल ही चल पड़ा…रास्ता काटने के लिए उसने कहानी शुरू की—-
राजन् ! तुमने महाभारत के गुरु द्रोण का नाम तो सुना ही होगा , जिनके प्रिय शिष्य अर्जुन ने तीरंदाजी में बड़ी ख्याति अर्जित की थी. गुरु द्रोण युद्ध-कला से सम्बंधित एक त्रैमासिक पत्रिका ‘ आखेट ‘ का प्रकाशन भी किया करते थे, जिसका अधिकतर काम-काज अर्जुन ही देखता था. यह पत्रिका राजवंश से आर्थिक सहायता प्राप्त थी. एक दिन गुरु द्रोण अपने शयनकक्ष में विश्राम कर रहे थे. गर्मी का समय था. अर्जुन आम की गुठली को पीसकर, सरसो के तेल में मिलाकर ले आया. यह लेप गुरु द्रोण के तलवों में मलने लगा. इस लेप से गर्मी का प्रकोप कदाचित कुछ कम हो जाता था. तलवों में लेप मलते हुए अर्जुन किंचित सकुचाते हुए गुरु द्रोण से कहा–” गुरुवर, आपकी कृपा से आज मुझे संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है. एकलव्य का अंगूठा मागकर ,मेरे पथ के सभी कांटे आपने दूर कर दिए. कर्ण का प्रमाणपत्र तो आपने पहले ही निरस्त कर दिया था. अब मेरा कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है…गुरुवर अब तीरंदाजी का कोई सम्मान भी मिल जाता तो मेरी भी प्रतिष्ठा बढ़ जाती और आपकी भी.”
गुरु द्रोण ने करवट बदली. उदर में अठखेलियां करती हुई वायु को मुक्त किया और बोले—” हाँ अर्जुन, मैं भी कई दिनों से यही सोच रहा था. तुम्हें सम्मान मिल जाने से हमारी कोचिंग संस्था का नाम ऊँचा होगा और विद्यार्थियों की संख्या भी बढ़ जायेगी….ऐसा करो, हमारी पत्रिका के इसी अंक में एक सम्मान की घोषणा कर दो—‘ स्व. चिड़ीमार वनवासी तीरंदाजी सम्मान ‘ …..अर्जुन ने बीच में टोंका—” गुरुदेव,ये चिड़ीमार कौन था ?”
”
यह एक बहेलिया था “—गुरु द्रोण ने बताया. ” मेरे ही गांव का था. बाल्यावस्था में हम लोग इससे तीतर और बटेर मरवाकर चुपके से खाया करते थे. बड़ा अचूक निशानेबाज़ था.” ” और सुनो, ऐसा करना “—गुरु द्रोण ने रणनीति समझाते हुए कहा—” इस सम्मान के लिए एक तीन सदस्यीय निर्णायक मंडल बना लो…एक तो कृपाचार्य ही हो जायेंगे. दो और लोगों के नाम सोचकर उन्हें पत्र लिख दो.मगध और काशी के आचार्यों को ही रख लो, उनकी नियुक्ति के समय मैं ही एक्सपर्ट था.कोई गड़बड़ न होगी. अपना बायोडाटा बनाकर तीनो निर्णायकों के पास भेज दो…अगर दूसरे लोगों की प्रविष्टियां आती हैं तो उन्हें भेजने की आवश्यकता नहीं है…यह तो सभी जानते ही हैं कि तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो.” अर्जुन ने पुलकित होकर द्रोण के चरणो में सिर रखा और सीधे पत्रिका-कार्यालय चला गया. त्रैमासिक पत्रिका-‘ आखेट ‘ के ताज़ा अंक में ‘ स्व. चिड़ीमार वनवासी तीरंदाजी सम्मान ‘ की सूचना प्रकाशित हुई. पात्र व्यक्तियों से प्रविष्टियां मगाई गई थीं. अन्य लोगों के साथ कर्ण और एकलव्य ने भी प्रविष्टि भेजीं जिन्हें पत्रिका कार्यालय में ही जमा कर दिया गया. गुरु द्रोण की तरफ से एक पत्र लिखकर कर्ण और एकलव्य को सूचित किया गया कि चूँकि आपने अपने बायोडाटा में जाति-प्रमाणपत्र नहीं लगाया था, अतएव आपकी प्रविष्टि विचार योग्य नहीं पाई गई.‘
आखेट ‘ के दीपावली विशेषांक में, ‘स्व. चिड़ीमार वनवासी तीरंदाजी सम्मान ‘ अर्जुन को देने की घोषणा प्रकाशित हुई और यह भी सूचना दी गई कि नववर्ष के प्रथम दिन हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र यह सम्मान प्रदान करेंगे.इस सूचना के बाद दुर्योधन वगैरह ने कुछ हो-हल्ला मचाया लेकिन पितामह ने उन्हें ” घर की ही बात है “-का हवाला देकर शांत करा दिया.
कहानी खत्म कर बेताल ने विक्रम से पूछा–-” राजन् तनिक विचार कर बताओ ! यह सम्मान देकर द्रोण ने किसकी प्रतिभा का अपमान किया है ??? “
3. विभागाध्यक्ष की कार्पेट पर अमीबा…
चपरासी कुछ सकपकाते हुए बोला—-” साहब पानी का होगा.”…..प्रो.मिश्रा ने उँगलियों से धब्बे को दबाया और सूँघकर बोले—-” बेवकूफ , पानी का नही पेशाब का धब्बा है !” उस दिन से रोज़ कोई उनके पहुँचने से पहले कलीन पर पेशाब कर जाता था. विभाग का दरवाज़ा खोलकर , चपरासी साफ-सफाई के बाद जब पानी लेने चला जाता, इसी बीच कोई आकर ये कारनामा कर जाता…. प्रो.मिश्रा ने तंग आकर पेशाब करने वाले को पकड़ने की योजना बनाई… एक दिन वो अपने समय से काफी पहले विभाग पहुँच गये.दरवाज़ा उन्होने खुद खोला, और जाकर आल्मारी के पीछे छुप गये….लगभग पौन घंटा बाद एक आकृति ने उनके कमरे में प्रवेश किया….इधर-उधर देखकर आकृति विभागाध्यक्ष के टेबल के सामने बैठ गई…..और जब उठी तो वहाँ पर अमीबा की तरह का एक गीला धब्बा बन गया था….. आकृति जाने को ही थी कि प्रो. मिश्रा आल्मारी के पीछे से कूद पड़े—-“ मिसेज़ तिवारी आप !! ये क्या करती हैं आप !!!”….
असिस्टेन्ट प्रो., मिसेज़ तिवारी अवाक् रह गईं थीं…सर..सर.. करते हुए सर्रर्रर्रर्र…..से बाहर भागीं……
कहानी खत्म कर बेताल ने प्रश्न पूछा—–” अब तू ही बता विक्रम ! असली अपराधी कौन है, मिसेज़ तिवारी–कि प्रो. मिश्रा ?? “
4. प्रो. साहब का मुहावरा
राजा विक्रम आया. वह गमछे से अपना पसीना पोंछ ही रहा था कि बेताल कूद कर उसकी गर्दन से लटक गया. विक्रम उसे लादकर चल पड़ा….. बेताल ने कहानी शुरू की—–
राजन ! एक शहर के एक नामचीन महाविद्यालय में हिन्दी साहित्य के एक व्याख्याता थे…मीठी वाणी बोलते थे. अपने मेनिफेस्टो में कम्युनिस्ट थे, पर निरापद थे….अध्यापन,संगोष्ठियों,उत्तर-पुस्तिकाओं की जाँच और प्रश्न-पत्रों की सेटिग में ही रमे रहते थे. इस कार्य मे उनके नाबालिग कम्युनिस्ट शिष्य उनकी भरपूर मदद किया करते थे…… सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था, कि पिछले बरस, बी.ए. तृतीय वर्ष का हिन्दी का पेपर सेट करने का ज़िम्मा विश्वविद्यालय ने उन्हे दे दिया. प्रो. साहब के लिए यह कोई नयी बात नहीं थी…लेकिन इस बार वे कोई नवाचार करने के मूड में थे…..सो एक नाबालिग शिष्य की सलाह पर प्रश्न-पत्र के खण्ड-स में उन्होने एक प्रश्न दिया—–
—- ” हँसी तो फँसी “—-इस मुहावरे का अर्थ बताते हुए, वाक्य में प्रयोग कीजिये । परीक्षा में जब पेपर छात्रों को दिया गया तो कुछ धार्मिक किस्म के छात्र इस मुहावरे को लेकर भड़क गये…बात तुरंत प्रो.साहब के विरोधियों के मार्फत कुलपति तक और फिर राज्यपाल तक पहँच गयी….थोड़ी-बहुत औपचारिकताओं के बाद प्रो.साहब पेपर सेट करने के अयोग्य घोषित कर दिये गये. साथ ही चरित्र-परिष्कार करने की चेतावनी भी दी गई…. कहानी खत्म कर बेताल ने अपना प्रश्न किया—“-अब तू बता विक्रम ! इसमें प्रोफेसर साहब की क्या गलती थी ?? “
एक से बढ़कर एक …. आनंद आ गया विमलेंदु भाई