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विमलेश शर्मा |
विमलेश शर्माकी कविताएँ पढ़ते हुए आप एक सहज प्रवाह का अनुभव करेंगे जहाँ बीच-बीच में संवेदना के द्वीप आपकी राह तकते खड़े मिलेंगे। यहाँ कोई बड़ी बात नहीं कही जा रही होती न ही कोई बड़ा दावा ही किया जा रहा होता है – कई बार अपने मन की तंतुओं को खोलकर करीने से रख दिया जाता है। कविता और होती क्या है – मोहिं तो मोरे कवित्त बनावत। विमलेश की कविताएं पढ़ते हुए आप भाषा की ताजगी के साथ कहन का तीखापन भी महसूस करेंगे – यह तीखापन कविता के मुकम्मल होने की जरूरी शर्त नहीं है क्या।
अनहदपर विमलेश पहली बार मुखातिब हो रही हैं – हम उनका स्वागत कर रहे हैं और आपसे गुजारिश कर रहे हैं कि अपनी कीमती राय से हमें जरूर अवगत कराएँ।
रिक्तियाँ
बात सिर्फ इतनी सी है
जहाँ गैर ज़रूरी
वहाँ हैं तमाम उपस्थितियाँ
संवाद की
और जहाँ ज़रूरी
वहाँ हैं घोर अनुपस्थितियाँ…!
कहानियाँ मेरी तुम्हारी
अनंत हैं हमारी कहानियाँ
जैसे बारिशों की मौज में
हम बैंच पर बैठे
और हारसिंगार ने मेरी माँग सजा दी चुपचाप
मेरे आँचल में बैठे तुम
कितना मुस्कराए थे ना तब!
बिछलती चाँदनी थी
और हम घास पर बैठे
दूर आकाश में ठिठके
उन खुश तारों को देख रहे थे
मेरे कानों की लोर को होले से छुआ था तुमने
वो बात उन जुगनुओं का ही इशारा थी ना!
जब बैठे थे हम नदी किनारे
मन भीग रहा था बूंद-बूंद
जबकि हम कोरे रहे
जल की छुअन से
हमारे भीतर बाहर बहती नदी थी
वो बारिशें कितनी अलग थी ना!
तुम्हारे नहीं होने पर भी
एक छाया का आकार लेना
ऐसा है जैसे
श्वास निःश्वास के अंतराल में
जीवन का उग आना
या कि सगुण का निर्गुण हो जाना
हर कहानी में
हमारे सान्निध्य से प्रकृति खुश थी
खिली हुई, नवोढ़ा सी..
आँखों में आँखों का यूँ खिलना सावन था
और उस नमी से धरा पर जो खिला था
वो प्रेम था!
अस्मिता के कगारों पर
उदास शब्दों के बीच
वो चमकता शब्द है ना
पर्याय है स्त्री का
पर शर्तिया!
तुम चूक करोगे उसे पहचानने में
सम्पूर्ण समर्पण के क्षणों में भी
उसे जानने, मानने के बीच
छुपे हैं तुम्हारे कई भ्रम
कई संज्ञाएँ
उपमाएँ असंख्य
पर तुम उलझे रहोगे
अस्तित्व के प्रतीप तक बस!
वो सहेज रही होगी नमक जिंदगी का
जब तुम अर्थ के श्लेष में उलझे होंगे
या बैठा रहे होगें जीवन के समीकरण
प्रेम के विलोम में
श्श्श! यह जादू है!
मानो! कि स्त्री
रोज़ उगती है
रोज़ बढ़ती है कुछ अंगुल
अपने कौमार्य के प्रस्फुटन और
रीतने के बाद भी
तब भी
जब तुम बंद कर रहे होते हो दरवाज़े
उसके ख्वाबों पर
अपनी भीरू सोच का पहरा बैठा कर
वो खारिज़ करती हुई तमाम दुनिया को
उतरती है भीतर गहरे
खोज लेती है जीवन के सिरे
तमाम वैपरित्य के बीच भी
किसी अठमासे मादा भ्रूण की तरह
वह मानवीकरण की ही भाँति
सिरजती है नई सृष्टि
एक नया इन्द्रधनु
एक उजली हंसी
कभी देह तो कभी मन की दहलीज़ पर…
कायनात की हक़ी़क़त
ख्वाबों के जंगल में
कोई गिलहरी आंखों से
अधबुने जुगनू सरीखे पल
चुप से रख जाता है
रेतीले कोरों पर
मौन गहराई में
अकस्मात् हुई किसी
पदचाप की धमक से
कोई पा लेता है
आब-ए- मुक़द्दस*
तो कहीं
कैलाशी शिव को
अपनी ही चौहद्दी में
जानते हो! कौतूहल!
मौन से टूटा शब्द है
माथे पर एकाएक उग आया तिलक है
वो अव्यक्त होकर भी ज़ाहिर है
किसी दरवेश के भीतर का शायर है
और कुछ नहीं
बस्स! किसी
अजानी चेतना को झकझोर कर
मोती सी सीपियों में यकायक
शफ़्फाक चमक पैदा होने का नाम है आश्चर्य!
और यूं मूर्त से अमूर्त हो जाने को
हम कह देते हैं अक्सर
नेमत!
जादू!
रहस्य!
या कि कोई पहेली अबूझ!
एक कविता में प्रेम
मैंने पूछा
यूँही रहोगे ना सदा!
और तुमने सौगात में दिए थे
कुछ शब्द
ऋतुओं के ब्याज से कि
मैं
ना शिशिर हूँ
ना हेमन्त
वसन्त, ग्रीष्म
ना ही वर्षा और शरद!
मैं ऋतु नहीं हूँ
पर उसका उल्लास सहेज
सदा खिलता रहूँगा तुम्हारे लिए
मैं ऋतव्य* मधु नहीं हूँ
जो झरता है
कुछ विशेष दिनों की पोटली से
मैं तुम्हारा ह्रदय हूँ
जीवन हूँ
जो धड़कता है सांसों की ताल पर
कल कल
बेकल!
मैं वह आकाश हूँ
जो थामे रखता है
धरा को
तमाम मौसमों में
सुनो!
देखो यहाँ!
मैं तुम हूँ!
तुम से हूँ
और बना रहूँगा सदा
तुम्हीं में
तुम सा होकर !
*ऋतव्य-मौसम संबंधी
***
संपर्कः-म.न.32 शिवा कॉलोनी,
हरिभाऊ उपाध्याय विस्तार नगर योजना, वृद्धाश्रम के सामने,
अजमेर-305001 राजस्थान । दूरभाष-9414777259
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
अच्छी कविताएँ…. बधाई
बहुत ही सुंदर भावों के लिखी गई रचना |शुभकामनायें
श्श्श! यह जादू है!
मानो! कि स्त्री
रोज़ उगती है
रोज़ बढ़ती है कुछ अंगुल
अपने कौमार्य के प्रस्फुटन और
रीतने के बाद भी…पढ़ते वक्त महसूस हुआ मन के किसी कोने में ज्वारभाटा उठ रहा है..
सही मायने में सुन्दर कवितायेँ..विमलेश जी को बधाई
सुंदर विमल कुमार दिल्ली