पंकज पराशर की ये कविताएं उनके पाकिस्तान प्रवास के दौरान लिखी गई हैं – इन कविताओं एक खास विशेषता यह है कि पंकज ने हर कविता उस खास शहर में रहते हुए ही लिखी है। उनकी कविताओं में पाकिस्तान के ये शहर सिर्फ शहर नहीं रह जाते वरंच कुछ और भी हो जाते हैं। यह कुछ और हो जाना ही वास्तव में कविता है जो इन कविताओं का भी प्राण है।
अनहद पर हम इसबार पढ़ रहे हैं युवा कवि आलोचक पंकज पराशर को। हमेशा की तरह आपकी बंबाक प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही…।
(सुंदर दास रोड, लक्ष्मी चौक और लाला छतरमल रोड पर घूमते हुए)
यहां किसी ध्वनि तरंग को अनुमति नहीं भारत से आने की
पासपोर्ट पर लगी वीजा की मुहर अभयदान की मुद्रा में
हाथ थामते हुए कहती है-
कभी जो वर्तमान था अब इतिहास है
जहां से निकले अनेक ध्वनि तरंग
आज भी इतिहास पर उंगलियां उठाता है
जिस लाहौर नइं वेख्या ओ जम्या ही नइं–
कौन कहता था?
कौन जन्म लेने की सार्थकता को लाहौर देखने से जोड़ता था?
आज भी सुनाई देती है फजिर की अजान अमृतसर तक
उस लाहौर को अब महज महसूस किया जा सकता है
बाजार अनारकली में एक अस्सी साला बूढ़ा
आज भी सुनाता है असंख्य जन्मों के अकारथ चले जाने की कथा
रात के तीसरे पहर में जब जागने की गुहार लगाता है इतिहास
जब-जब इस्लमाबाद से निकली हुई तेज हवा
तूफान बनकर छा जाती है तारों भरे आसमान में
लहोर लहोर कहकर आर्तनाद करने लगता है
भग्न-विस्थापित हृदयों का हाहाकार
दरबारों में गिरफ्तार इतिहास का स्वर-पहाड़
पंजाबी में पश्तो में सिंधी में उर्दू में
अभिव्यक्ति की राह ढूंढ़ता बुल्ला की जानां
लहोर लहोर के उच्च स्वर में
कितने पैमानों से मापा गया पानी
पानी-पानी हो चुकी पृथ्वी की छाती के टुकडों-टुकड़ों में
खून-खून हो चुके आत्मा के किनारे गिद्धों का झुंड उड़ता रहा
चोंच में भर-भर कर असंख्य स्त्रियों-शिशुओं का नरमुंड
मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना की रेखा रेड क्लिफ की गवाही में
लाहौर के पागलों को टोबा टेक सिंह* में रूपांतरित करता
वधस्थल पर चीत्कारोल्लसित टैंक के मुंह पर
अमृतसर के अमृतविहीन होने की पुष्टि करता
आज भी पड़ा है मेरी जेब में पासपोर्ट –वीजा बना हुआ
***
*सआदत हसन मंटो की एक कहानी.
1.
रावलपिंडी से आज भी बहुत दूर है लाहौर
जहां स्वतंत्रता का समवेत स्वर
प्रचंड नरमेध के इतिहास में बदल गया था
दूर-दूर होते समय में शोर करती अनंत स्वर-श्रृंखला-
…जो भी था निकट अब दूर हो रहा है
दूर-दूर होकर विलीन हो रहा है
चारों दिशाओं में घूमते इंसाफ के अलंबरदार और चौधरीगण
इंसाफ करने के लिए परेशान हैं वर्तमान से इतिहास तक
वे आतुर हैं इतिहास तक पहुंचकर इंसाफ करने के लिए
2.
जैसे ही मैं फोन पर होता हूं खांटी मातृभाषी
भारत से आए फोन पर मां से करता हूं बातचीत
कि अचानक मेरी ओर मुड़-मुड़कर देखता है मेरा टैक्सी ड्राइवर करीम खान
अविश्वास और आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछता मेरी मातृभाषा में-
“भाईजान, क्या आप हिंदुस्तानी हैं?
मेरे अब्बा से मिलेंगे आप?
वे बोलते हैं यही बोली जो अभी बोल रहे थे आप”
और धीरे-धीरे फैल जाता है मेरी टैक्सी में
अविभाजित हिंदुस्तान का भागलपुर रावलपिंडी की राह में
3.
मेरे डाकघर की मुहर में आज भी कायम है मुंगेर
और यहां कतरनी धान का चूड़ा याद करते हुए करीम खान के बुजुर्ग पिता
मौत से पहले एक बार जरूर देखना चाहते हैं
अपना देश
एक पूरा देश मिलने के बाद भी वह ढूंढ़ते हैं आज भी
अपना-सा एक देश
अपने देश से नगर-नगर घूमते हुए मैं पहुंचा हूं रावलपिंडी
जहां आज भी मेरे पीछे आ गया मेरा देश
कोस-कोस पर परिवर्तित होता हुआ पानी
इतनी दूर आकर भी वैसा ही लगता है जैसे अपने गांव के कुएं का
और दस कोस पर बदलती बानी पैंसठ बरस बाद भी
लगी वैसी ही जैसी आज के भागलपुर की
मैं देखता हूं इतिहास की ओर और इतिहास मेरी ओर
सामूहिक स्मृति से विलीन
जो मिलता है कई कोस दूर रावलपिंडी में
4.
यहां एक साथ घट रहा है अनेक घटनाचक्र
गेहूं के लिए तनते ए.के. सैंतालिस
सैंतालिस से सैंतालिस के चक्रवृद्धि को देखते
रावलपिंडी के कोने-कोने से आए बुजुर्ग
मंत्र की तरह बुदबुदाते हैं-
इस्लाम-आबाद
आह…बाद…आह…बाद…
आबाद लोगों के बीच सब बरबाद!
5.
“बाघा की बाधा दुनिया की तमाम बाधाओं से ज्यादा मुश्किल है जनाब
आप आए मुझसे मिले…”
मिले विलीन होकर अस्सी वर्ष के संचित आंसू में
मुझे मात्र लहो…लहो…लहो…सुनाई पड़ा
सृष्टि का सबसे आदिम स्वर पंचम तक उठते हुए
भागलपुर की सामूहिक स्मृति से विलीन
इतिहास की जीवंत कथा फैल रही थी रावलपिंडी में
वर्तमान के कैनवस पर.
***
फजिर के अजान के स्वर-पंथ पर आगे बढ़ता
ढूंढ़ता हूं इस भूगोल में इतिहास का पुष्पपुर
जहां किशमिशी लहू में लिथड़े हैं मेरे पांव
और मैं सीमांत गांधी के आकुल पुकार धंसने लगता हूं
अनंत पतझड़ में झरते हैं यहां पत्तों के संग-संग
रंग-बिरंगे कारतूसों के खोखे
खोखे में छिपे शिया और सुन्नियों के बंदूकों से
नफरत की अंतहीन कड़ी शबो-रोज
अपने-अपने आग्रहों के प्रतिष्ठार्थ
स्थापना और शिलान्यास की राजनीति में राम
‘सियाराम मय सब जग जानी’ से सर्वथा पृथक
महज ‘जय श्रीराम’ होकर रह गए हैं
और न जाने क्यों लोकतांत्रिक देश की अयोध्या में भी सीता
राम के संग स्वीकार्य नहीं हो पा रही है?
पेशावर में बार-बार याद आती है
अश्रु-विगलित सीता की क्रंदित छवि
व्यथित स्वर में पृथ्वी से प्रार्थना करती हुई
शुक्लपक्ष की रात के अंतिम पहर में
पंक्तिबद्ध सीताओं की छाती पर आज भी गरजता है बंदूक
पिता-भ्राता की मर्यादा के रक्षार्थ
रत्नगर्भा पृथ्वी रक्तगर्भा बनी कांपती है
तलातल से रसातल तक
न जाने क्यों अहर्निश आती रहती है
पृथ्वी में विलीन होती सीताओं की आकुल पुकार
शुक्लपक्ष की रात के इस अंतिम पहर में
फजिर के अजान में मिलती हुई
अयोध्या से लेकर पेशावर तक आज भी उसी तरह.
***
पिछले कई दशकों से उठती है हूक
और समुद्र की गर्जना में विलीन हो जाती है
यहां मौजूद है बनारस
सहारनपुर मेरठ गया और बुलंदशहर
अपने निर्णय से बेबस और उदास
मैं अपने बत्तीसवें साल में करता हूं
साठ सालों से मुलाकात
समय पूछता है समय से
कैसा है अब मेरठ कैसा है बुलंदशहर
कैसा है गया और कैसा है सहारनपुर
प्रश्नाकुल जनसमूहों के बीच खड़ा समय
बांट पाता है समय को सिर्फ कुछ बूंद आंसू
अब उन दिनों में लौटना नामुमकिन है
उन यादों में लौट पाना नामुमकिन है
और मुमकिन से असंतुष्ट कराची
नामुमकिन में लौटने के जिद पर अड़ा था!
***
चिड़िया डरती है
डरती-डरती चीख़ती है
और उड़ जाती है निस्सीम गगन में
इस भूगोल में इतिहास का ऑक्टोपसी जकड़
और वह भी नहीं तो क्या
कि तोप की आवाज सहज लगती है
और चिड़िया की भयाक्रांत!
लाउडस्पीकर से ग्रुरुवाणी का लयात्मक स्वर
फैलता है अंतरिक्ष में
और सड़क उसी तरह पसरा रहता है
निस्तब्धता का साम्राज्य
सफरी झोला उठाता बढ़ाता हूं कदम
किसी और नगर की ओर देखता हूं
देखता हूं चहुंओर आकुलता से
मगर दिखाई नहीं देता कहीं
चिड़ियों का कलरव करता झुंड!
***
सभी कविताओं का अनुवादः स्वयं कवि
पंकज पराशर
संपर्कः सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
ए.एम.यू., अलीगढ़-202002 (उत्तर प्रदेश)
फोन- 0-9634282886.
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
प्रणाम सर,आपकी रचनायेँ पढ़ीँ,बेहद पसंद आईँ,बधाई…शोधार्थी,हिन्दी विभाग,अमुवि