साहस है तुम्हारे भीतर
तुम मुझे अच्छी लगती हो
इसलिए नहीं –
कि तुम्हारी मुस्कान में
है दिशाओं के खुलने की सी उजास।
कि तुम्हारी नजरों में
है गुनगुनी धूप की सी चमक
कि तुम्हारी चाल में
है लहराती हुई खड़ी फसल सी लोच
कि तुम्हारी सुंदरता में
है षड्ऋतुओं के विविध रंग ।
बल्कि इसलिए
कि साहस है तुम्हारे भीतर
गलत को गलत कहने का ।
सड़ी -गली और पक्षपाती
रूढि़यों एवं परम्पराओं को
तोड़ने का ।
अत्याचार -अन्याय के खिलाफ
खड़े होने का ।
विसंगति एवं विद्रूपताओं पर
प्रश्न खड़े करने का ।
हिमालय का एक दृश्य
सूर्योदय की
ललाई किरणों में नहायी पर्वत चोटियां
लग रही हैं ऐसी
जैसे पहली -पहली बार छुआ हो
किसी प्रेमी ने
अपनी कमसिन प्रेमिका को
अंगुलियों के पोरों से
और उसके गालों में छा गयी हो लाली।
प्रशंसा में
धीरे-धीरे भूलने लगता है आदमी
साफ-साफ बोलना
रिरियाने-मिमियाने लगता है आदमी
जब पड़ जाता है प्रशंसा के फेर में
लत सी लग जाती है प्रशंसा पाने की
नहीं मिलती प्रशंसा बहुत दिनों तक जब
बुरा सा लगने लगता है तब
छीजता सा महसूस करता है खुद को ।
इसलिए कुछ लोग
हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं इसे
प्रशंसा में
कौन है ऐसा जो बहने न लगे ।
बहते हुए खुद को संभालना
बहुत कम हैं जानते
खुद को बचा ले बहने से जो
वही दुनिया में कुछ कर पाते हैं
प्रशंसा से निर्विकार रह पाने वाले ही
अनंत काल तक याद
तसल्ली
तसल्ली होती है कुछ
देखता हूं जब
बस्ते
और माता -पिता की
लैण्टानाई महत्वाकांक्षाओं के
बोझ से दबे बच्चे
निकाल ही लेते हैं खेलने का समय
ढॅूढ लेते हैं एक नया खेल
समय और परिस्थिति के अनुकूल
पतली गली में हो
या छोटे से कमरे के भीतर
या फिर कुर्सियों के बीच
मेज के नीचे
चाहे स्थान हो कितना भी कम
बना ही लेते हैं वे
अपने लिए खेलने की जगह
जैसे अबाबील
ढॅूढ ही लेती है घर का कोई कोना
अपना घौंसला बनाने को
तमाम चिकनाई के बावजूद ।
और भी हैं यहां
रोज-रोज करती हो साफ
घर का एक-एक कोना
रगड़-रगड़ कर पोछ डालती हो
हर-एक दाग-धब्बा
मंसूबे बनाती होगी मकड़ी
कहीं कोई जाल बनाने का
तुम उससे पहले पहॅुच जाती हो वहाॅ
हल्का धूसरपन भी
नहीं है तुम्हें पसंद
हर चीज को
देखना चाहती हो तुम हमेशा चमकते हुए
तुम्हारे रहते हुए धूल तो
कहीं बैठ तक नहीं सकती
जमने की बात तो दूर रही
इस सब के बीच फुरसत ही कहाँ
देख सको जो तुम
और भी हैं यहां
घर के भीतर-बाहर
अनेकानेक दाग-धब्बे-जाले
धूसरपन ही धूसरपन
धूल की परतें ही परतें
सदियों से जमी
जरूरत है इन्हें साफ करने की अधिक।
बाजार-समय
बहुत सारी हैं चमकीली चीजें
इस बाजार-समय में
खींचती हैं जो अपनी ओर
पूरी ताकत से
मगर
कितनी हैं
जो बांधती हों कुछ देर भी।
स्कूल चलो अभियान
इन कविताओं में से बहुत सी कविताएँ पहले पढ चुकी हूँ पुनेठा जी बहुत सहजता से बहुत गम्भीर बात कह जाते हैं कविताएँ मन को छूती हैं और बोझिलता से कोसों दूर हैं.बल्कि इसलिए
कि साहस है तुम्हारे भीतर
गलत को गलत कहने का ।
सड़ी -गली और पक्षपाती
रूढि़यों एवं परम्पराओं को
तोड़ने का ।
महेश भाई की कवितायेँ किसी चमत्कार से नहीं अपनी सहजता से आपको बांधती हैं …….. वे कविता के लिए बहुत ताम झाम खड़ा नहीं करते ……आपने बिलकुल सही कहा है कि वे रोज़मर्रा की बातों से कविता संभव करते हैं……………. और पाठक को भी वह दृष्टि देते हैं की वह भी सामान्य लगने वाली स्थिति के पार देख सके ……..महेश भाई की उपस्थिति समकालीन कविता के परिदृश्य में महतवपूर्ण है …………इस प्रस्तुति के लिए आभार
बहुत सुंदर कवितायेँ ………….. इन्हें उपलब्ध कराने के लिए आभार
बहुत सूक्ष्म अनुभूतियों को पकड़ लेने की मारक क्षमता रखते हैं महेश जी बाजार समय थोड़े शब्दों में कही हुई एक बड़ी बात है..
ऐसे ही ये पंक्तिया "कि साहस है तुम्हारे भीतर
गलत को गलत कहने का ।" पूरी कविता को कितना सुन्दर बना देती हैं.. यह आज के समय की ज़रूरत को रेखांकित करती है..महेश जी समकालीन कवियों में से मेरे एक प्रिय कवि हैं आभार बिम्लेश जी बधाई महेश जी ..
सभी कविताएँ बहुत गहन …साहस है तुम्हारे भीतर विशेष पसंद आई ..
विमलेश पता नहीं कैसे आपके ब्लाग से अब तक अनभिज्ञ रहा। फिर किसी फेसबुक लिंक से इस तक आया। इधर नेट पर ज़्यादा सक्रिय नहीं हूं शायद इसलिए ऐसा हुआ। देर से आया पर दुरूस्त आया। सारी पुरानी पोस्ट भी देखीं। सब कुछ कितना सुव्यवस्थित और उर्जा से भरा है यहां। रही बात महेश की तो उनकी कविता का मैं पुराना प्रशंसक हूं, जब वे लिखना शुरू कर रहे थे, तब से। उन्हें मेरी शुभकामनाएं।
"इस बाजार-समय में" जब कि सारा कुछ बिकने की कगार पर है …महेश जी की कविताएँ अपने जीवन मूल्यों को थामे न बिकने की शर्त पर कीमती हैं !…
apki kavitaayen… mujhe pasand hain..
apke kahne ka sahaj tareeka baandh leta hai… aur kavita ki ravangii badh jati hai..
aap aise hi khoobsoorati se rachte rahen hamesha…
meri shubh kamnayen !
मंसूबे बनाती होगी मकड़ी
कहीं कोई जाल बनाने का
तुम उससे पहले पहॅुच जाती हो वहाॅ
हल्का धूसरपन भी
नहीं है तुम्हें पसंद
हर चीज को
देखना चाहती हो तुम हमेशा चमकते हुए
तुम्हारे रहते हुए धूल तो
कहीं बैठ तक नहीं सकती
जमने की बात तो दूर रही
बहुत दिनों से सोच रही थी महेश जी की कवितायों पर टिप्पणी लिखूं पर छठ के कारण समय नहीं मिल पा रहा था. हालांकि ये कवितायेँ मैं विमलेश के इस ब्लॉग पर कई बार पढ़ चुकी थी किन्तु लिखना इत्मिनान से चाहती थी इसलिए आज लिख रही हूँ. सबसे पहले तो महेश जी को बहुत बहुत बढ़ाई इतनी अच्छी कविताओं के लिए. सबसे पहले मैं प्रशंसा में कविता पर बात करना चाहूंगी. यह कविता इक ऐसे सत्य को सामने रखने का प्रयास है जिससे कोई भी अनजान नहीं है पर हर आदमी यदि सचेत ना हो तो इस जाल में फंस ही जाता है, वो कहते हैं –
धीरे-धीरे भूलने लगता है आदमीइ
साफ-साफ बोलना
रिरियाने-मिमियाने लगता है आदमी
जब पड़ जाता है प्रशंसा के फेर में
प्रशंसा में
कौन है ऐसा जो बहने न लगे ।
पुनेठाजी बच्चों उनके समय और आजकल के समय की जटिलता को को बहुत बेहतर ढंग से अपनी इस कविता 'तसल्ली' मे चित्रित करते हैं.
तसल्ली होती है कुछ
देखता हूं जब
बस्ते
और माता -पिता की
लैण्टानाई महत्वाकांक्षाओं के
बोझ से दबे बच्चे
निकाल ही लेते हैं खेलने का समय
ढॅूढ लेते हैं एक नया खेल
समय और परिस्थिति के अनुकूल
Mahesh Punetha jitne achhe sameekshak hai utne hi badiya kavi bhi..unke paas sadagi ka saundarya hai.shlip ,kathya.samvedan se akarshit karete hain..
महेश भाई का पुराना पाठक हूँ. उनकी कविताएँ हमेशा आकर्षित करती हैं. कारण है उनकी सहज जनपक्षधरता. यहाँ भी उसे स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है…
atyant sundar rachnaye hain……….topic bhi bahut hi achche hain..
mujhe sabse jyada aakarshit kiya …..किताबों के बीच पड़ा फूल
सूख चुकी हो भले
इसके भीतर की नमी
कड़कड़ी हो चुकी हों
इसकी पत्तियाँ
उड़ चुकी हो भले
इसमें बसी खुशबू
फीका पड़ चुका हो भले
इसका रंग
पर इतने वर्षों बाद अभी भी
बचा हुआ है इसमें
बहुत कुछ
बहुत कुछ
बहुत कुछ ऐसा
खोना नहीं चाहते हम
जिसे कभी ।
कि साहस है तुम्हारे भीतर
गलत को गलत कहने का ।,…
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प्रशंसा में
कौन है ऐसा जो बहने न लगे ।
बहते हुए खुद को संभालना
बहुत कम हैं जानते,…. बहुत अच्छी लगी ,आभार,…