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Home कविता

महेश पुनेठा की कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
A A
15
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महेश पुनेठा हिन्दी कविता में सक्रिय एक महत्वपूर्ण नाम है। महेश जी की कविताएं जीवन संघर्षों से प्राप्त ऊर्जा को प्रतीकित करती हैं। उनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सहजता है, एक ऐसी सहजता जो पाठक के हृदय को कहीं गहरे झंकझोरती है। शिल्प के भारीपन से दूर महेश पुनेठा की कविताओं में लोक की सादगी और इमानदारी मौजूद है। दूर की कौड़ी के फेरे में नहीं पड़कर यह कवि अपने आस-पास की चीजों को अपनी कविता का विषय बनाता है और अपने कवित्व से हमें मोहित करता है।






















महेश पुनेठा

बहुत आग्रह के बाद महेश भाई ने ये कविताएं उपलब्ध कराई हैं। अनहद पर पहली बार उन्हें आप पढ़ेंगे। और यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।

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साहस है तुम्हारे भीतर
तुम मुझे अच्छी लगती हो
इसलिए नहीं –
कि तुम्हारी मुस्कान में
है दिशाओं के खुलने की सी उजास।
कि तुम्हारी नजरों में
है गुनगुनी धूप की सी चमक
कि तुम्हारी चाल में
है लहराती हुई खड़ी फसल सी लोच
कि तुम्हारी सुंदरता में
है षड्ऋतुओं के विविध रंग ।
बल्कि इसलिए
कि साहस है तुम्हारे भीतर
गलत को गलत कहने का ।
सड़ी -गली और पक्षपाती
रूढि़यों एवं परम्पराओं को
तोड़ने का ।
अत्याचार -अन्याय के खिलाफ
खड़े होने का ।
विसंगति एवं विद्रूपताओं पर
प्रश्न खड़े करने का ।
                              
हिमालय का एक दृश्य

सूर्योदय की
ललाई किरणों में नहायी पर्वत चोटियां
लग रही हैं ऐसी
जैसे पहली -पहली बार छुआ हो
किसी प्रेमी ने
अपनी कमसिन प्रेमिका को
अंगुलियों के पोरों से
और उसके गालों में छा गयी हो लाली।
प्रशंसा में


धीरे-धीरे भूलने लगता है आदमी
साफ-साफ बोलना
रिरियाने-मिमियाने लगता है आदमी
जब पड़ जाता है प्रशंसा के फेर में
लत सी लग जाती है प्रशंसा पाने की
नहीं मिलती प्रशंसा बहुत दिनों तक जब
बुरा सा लगने लगता है तब
छीजता सा महसूस करता है खुद को ।
इसलिए कुछ लोग
हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं इसे


प्रशंसा में
कौन है ऐसा जो बहने न लगे ।
बहते हुए खुद को संभालना
बहुत कम हैं जानते
खुद को बचा ले बहने से जो
वही दुनिया में कुछ कर पाते हैं
प्रशंसा से निर्विकार रह पाने वाले ही
        अनंत काल तक याद
तसल्ली


तसल्ली होती है कुछ
देखता हूं जब
बस्ते
और माता -पिता की
लैण्टानाई महत्वाकांक्षाओं के
बोझ से दबे बच्चे
निकाल ही लेते हैं खेलने का समय
ढॅूढ लेते हैं एक नया खेल
समय और परिस्थिति के अनुकूल
पतली गली में हो
या छोटे से  कमरे के भीतर
या फिर  कुर्सियों के बीच
मेज के नीचे
चाहे स्थान हो कितना भी कम
बना ही  लेते हैं वे
अपने लिए खेलने की जगह
जैसे अबाबील
ढॅूढ ही लेती है घर का कोई कोना
अपना घौंसला बनाने को
तमाम चिकनाई के बावजूद ।
और भी हैं यहां
रोज-रोज करती हो साफ
घर का एक-एक कोना
रगड़-रगड़ कर पोछ डालती हो
हर-एक दाग-धब्बा
मंसूबे बनाती होगी मकड़ी
कहीं कोई जाल बनाने का
तुम उससे पहले पहॅुच जाती हो वहाॅ
हल्का धूसरपन भी
नहीं है तुम्हें पसंद
हर चीज को
देखना चाहती हो तुम हमेशा चमकते हुए
तुम्हारे रहते हुए धूल तो
कहीं बैठ तक नहीं सकती
जमने की बात तो दूर रही
इस सब के बीच फुरसत ही कहाँ
देख सको जो तुम 
और भी हैं यहां
घर के भीतर-बाहर
अनेकानेक दाग-धब्बे-जाले
धूसरपन ही धूसरपन
धूल की परतें ही परतें
सदियों से जमी
जरूरत है इन्हें साफ करने की अधिक।
    
बाजार-समय


बहुत सारी हैं चमकीली चीजें
इस बाजार-समय में
खींचती हैं जो अपनी ओर
पूरी ताकत से
मगर
कितनी  हैं
जो बांधती हों कुछ देर भी।
स्कूल चलो अभियान

नाम सुनते ही स्कूल का
फूट पड़ा मन का सोता
बहने लगा गुबार
चातुरमासी स्रोतों-सा
कह देना चाहती थी वह
सब कुछ एक ही श्वास में-
क्या होगा स्कूल जाकर
पढ़-लिखकर
तोड़ रहा है पत्थर
मेरा बेटा
कंधे छिल चुके हैं उसके
पत्थर सारते-सारते
मजूरी ही करनी थी अगर
अनपढ़ ही रहता तो क्या बुरा था
सरम तो नहीं लगती
पत्थर तोड़ते हुए।
पत्थर तोड़-तोड़कर
स्कूल पढ़ाया
बाप ने उसके 
आखिर क्या पाया ।
समझाने चाहे मैंने
पढ़ने-लिखने के फायदे
लेकिन व्यर्थ गए सारे तर्क मेरे
रूक नहीं पाए
जैसे बरसाती नदी में बड़े-बड़े शिलाखंड
बोली जा रही थी वह –
कैसी छुरी चलती है दिल पर
देखती हूँ जब पत्थर ढोते
अपने पढ़े-लिखे बेटे को
सेठों के बेटों के लिए ही है क्या नौकरी
हम गरीबों के बेटों के लिए
नहीं चपरासीगिरी भी ।
किंकत्र्तव्यविमूढ़ देखता रहा मैं
तमतमाया चेहरा उसका
काँपती श्वासें
निरूत्तर खड़ा रहा उसके प्रश्नों को सुन।
चारों ओर गूँजने लगे स्वर
स्कूल चलो
आखिर किस स्कूल
जहाँ मास्टर एक
उसके भी काम अनेक
हाँकता रहता बच्चों को दिनभर
मजमा लगाए मदारी सा
नाचता रहता खुद जोकर सा ।
स्कूल चलो
आखिर किस स्कूल ?
मैं दबे पाँव लौट आया वहाँ से ।
किताबों के बीच पड़ा फूल
सूख चुकी हो भले
इसके भीतर की नमी
कड़कड़ी हो चुकी हों
इसकी पत्तियाँ
उड़ चुकी हो भले
इसमें बसी खुशबू
फीका पड़ चुका हो भले
इसका रंग
पर इतने वर्षों बाद अभी भी
बचा हुआ है इसमें
बहुत कुछ
बहुत कुछ
बहुत कुछ ऐसा
खोना नहीं चाहते हम
जिसे कभी ।

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 15

  1. कल्पना पंत says:
    14 years ago

    इन कविताओं में से बहुत सी कविताएँ पहले पढ चुकी हूँ पुनेठा जी बहुत सहजता से बहुत गम्भीर बात कह जाते हैं कविताएँ मन को छूती हैं और बोझिलता से कोसों दूर हैं.बल्कि इसलिए
    कि साहस है तुम्हारे भीतर
    गलत को गलत कहने का ।
    सड़ी -गली और पक्षपाती
    रूढि़यों एवं परम्पराओं को
    तोड़ने का ।

    Reply
  2. pradeep saini says:
    14 years ago

    महेश भाई की कवितायेँ किसी चमत्कार से नहीं अपनी सहजता से आपको बांधती हैं …….. वे कविता के लिए बहुत ताम झाम खड़ा नहीं करते ……आपने बिलकुल सही कहा है कि वे रोज़मर्रा की बातों से कविता संभव करते हैं……………. और पाठक को भी वह दृष्टि देते हैं की वह भी सामान्य लगने वाली स्थिति के पार देख सके ……..महेश भाई की उपस्थिति समकालीन कविता के परिदृश्य में महतवपूर्ण है …………इस प्रस्तुति के लिए आभार

    Reply
  3. Nityanand Gayen says:
    14 years ago

    बहुत सुंदर कवितायेँ ………….. इन्हें उपलब्ध कराने के लिए आभार

    Reply
  4. leena malhotra rao says:
    14 years ago

    बहुत सूक्ष्म अनुभूतियों को पकड़ लेने की मारक क्षमता रखते हैं महेश जी बाजार समय थोड़े शब्दों में कही हुई एक बड़ी बात है..
    ऐसे ही ये पंक्तिया "कि साहस है तुम्हारे भीतर
    गलत को गलत कहने का ।" पूरी कविता को कितना सुन्दर बना देती हैं.. यह आज के समय की ज़रूरत को रेखांकित करती है..महेश जी समकालीन कवियों में से मेरे एक प्रिय कवि हैं आभार बिम्लेश जी बधाई महेश जी ..

    Reply
  5. संगीता स्वरुप ( गीत ) says:
    14 years ago

    सभी कविताएँ बहुत गहन …साहस है तुम्हारे भीतर विशेष पसंद आई ..

    Reply
  6. शिरीष कुमार मौर्य says:
    14 years ago

    विमलेश पता नहीं कैसे आपके ब्‍लाग से अब तक अनभिज्ञ रहा। फिर किसी फेसबुक लिंक से इस तक आया। इधर नेट पर ज्‍़यादा सक्रिय नहीं हूं शायद इसलिए ऐसा हुआ। देर से आया पर दुरूस्‍त आया। सारी पुरानी पोस्‍ट भी देखीं। सब कुछ कितना सुव्‍यवस्थित और उर्जा से भरा है यहां। रही बात महेश की तो उनकी कविता का मैं पुराना प्रशंसक हूं, जब वे लिखना शुरू कर रहे थे, तब से। उन्‍हें मेरी शुभकामनाएं।

    Reply
  7. सुशीला पुरी says:
    14 years ago

    "इस बाजार-समय में" जब कि सारा कुछ बिकने की कगार पर है …महेश जी की कविताएँ अपने जीवन मूल्यों को थामे न बिकने की शर्त पर कीमती हैं !…

    Reply
  8. संध्या नवोदिता says:
    14 years ago

    apki kavitaayen… mujhe pasand hain..
    apke kahne ka sahaj tareeka baandh leta hai… aur kavita ki ravangii badh jati hai..
    aap aise hi khoobsoorati se rachte rahen hamesha…
    meri shubh kamnayen !

    Reply
  9. Dr. Alka Singh says:
    14 years ago

    मंसूबे बनाती होगी मकड़ी
    कहीं कोई जाल बनाने का
    तुम उससे पहले पहॅुच जाती हो वहाॅ
    हल्का धूसरपन भी
    नहीं है तुम्हें पसंद
    हर चीज को
    देखना चाहती हो तुम हमेशा चमकते हुए
    तुम्हारे रहते हुए धूल तो
    कहीं बैठ तक नहीं सकती
    जमने की बात तो दूर रही

    Reply
  10. Dr. Alka Singh says:
    14 years ago

    बहुत दिनों से सोच रही थी महेश जी की कवितायों पर टिप्पणी लिखूं पर छठ के कारण समय नहीं मिल पा रहा था. हालांकि ये कवितायेँ मैं विमलेश के इस ब्लॉग पर कई बार पढ़ चुकी थी किन्तु लिखना इत्मिनान से चाहती थी इसलिए आज लिख रही हूँ. सबसे पहले तो महेश जी को बहुत बहुत बढ़ाई इतनी अच्छी कविताओं के लिए. सबसे पहले मैं प्रशंसा में कविता पर बात करना चाहूंगी. यह कविता इक ऐसे सत्य को सामने रखने का प्रयास है जिससे कोई भी अनजान नहीं है पर हर आदमी यदि सचेत ना हो तो इस जाल में फंस ही जाता है, वो कहते हैं –

    धीरे-धीरे भूलने लगता है आदमीइ
    साफ-साफ बोलना
    रिरियाने-मिमियाने लगता है आदमी
    जब पड़ जाता है प्रशंसा के फेर में
    प्रशंसा में
    कौन है ऐसा जो बहने न लगे ।

    Reply
  11. Dr. Alka Singh says:
    14 years ago

    पुनेठाजी बच्चों उनके समय और आजकल के समय की जटिलता को को बहुत बेहतर ढंग से अपनी इस कविता 'तसल्ली' मे चित्रित करते हैं.

    तसल्ली होती है कुछ
    देखता हूं जब
    बस्ते
    और माता -पिता की
    लैण्टानाई महत्वाकांक्षाओं के
    बोझ से दबे बच्चे
    निकाल ही लेते हैं खेलने का समय
    ढॅूढ लेते हैं एक नया खेल
    समय और परिस्थिति के अनुकूल

    Reply
  12. Anonymous says:
    14 years ago

    Mahesh Punetha jitne achhe sameekshak hai utne hi badiya kavi bhi..unke paas sadagi ka saundarya hai.shlip ,kathya.samvedan se akarshit karete hain..

    Reply
  13. Ashok Kumar pandey says:
    14 years ago

    महेश भाई का पुराना पाठक हूँ. उनकी कविताएँ हमेशा आकर्षित करती हैं. कारण है उनकी सहज जनपक्षधरता. यहाँ भी उसे स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है…

    Reply
  14. Isha says:
    14 years ago

    atyant sundar rachnaye hain……….topic bhi bahut hi achche hain..
    mujhe sabse jyada aakarshit kiya …..किताबों के बीच पड़ा फूल

    सूख चुकी हो भले
    इसके भीतर की नमी
    कड़कड़ी हो चुकी हों
    इसकी पत्तियाँ
    उड़ चुकी हो भले
    इसमें बसी खुशबू
    फीका पड़ चुका हो भले
    इसका रंग
    पर इतने वर्षों बाद अभी भी
    बचा हुआ है इसमें
    बहुत कुछ
    बहुत कुछ
    बहुत कुछ ऐसा
    खोना नहीं चाहते हम
    जिसे कभी ।

    Reply
  15. Unknown says:
    13 years ago

    कि साहस है तुम्हारे भीतर
    गलत को गलत कहने का ।,…
    ******
    प्रशंसा में
    कौन है ऐसा जो बहने न लगे ।
    बहते हुए खुद को संभालना
    बहुत कम हैं जानते,…. बहुत अच्छी लगी ,आभार,…

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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