प्रसन्न कुमार झा – 09331592283 |
धरती पर अनगिनत शहर नगर
वैसे ही शहरों और नगरों
की धरती पर बसते हैं
कई घर, मकान, इमारतें
जिनकी दीवारों पर लिखे होते हैं
“ स्टिक नो बिल्स “
नौकरों के होते हुए भी
प्रायः कबाड़ रूम में
सामानों के बीच की ज़गहों
या औसत ऊँचाई के बाद कहीं भी
मिल जाते हैं
लटकते, झूलते मकड़े के जाले
वैसे ही शहरों और नगरों की धरती पर
पुल के नीचे, रिक्शा स्टैंड के पीछे
रेल की पटरियों के सामानांतर
या सडको के किनारे
मिलती है परिचय और जीविका की अबूझ पहेली
बस्तियां और उनके खंडित हिस्से
या समरूप ढही अधढही ,
छोटी बड़ी दीवारें
जिसपर रचती हैं
बस्तियों की औरतें
गोबर के उपले
जैसे रचती हैं, हस्तछाप
अपनी नथ की गोलाई
दांतों तले आँचल
मानो आत्मसंतुलन
जैसे नमकीन पानी में
पिघलता काज़ल
जैसे श्यामल चेहरे पर
पड़ती भंवरें
औरतें गोबर से
ठोकती उपले
जैसे आटे की लोई से
गढ़ती रोटियां
धीमी आँच पर सकती रोटियां
प्रतिदिन अपनी अपनी
स्थिति, गंध, रंग, और रस के साथ
गुदड़ी में ज़न्मे बच्चे की
ख़ुशी में नाच गा आता
रिक्शा वाला गूंगा, लंगड़ा
मुनिसिपल्टी के नल में नहा कर
घास पर
हाफ पैंट सुखाता
पंचर वाला नन्हा आज़ाद
अल्ल्हड़ उम्र में,
कामवाली में बदल चूकी
प्रेमिका की शिकायत में
दारू पी बवाली करता मवाली
थके हुए आम लोगों की
धीमी पड़ती आवाज़
सरकारी गोदामों के बाहर
बरसात में सड़ने के लिए
पड़े हुए गेहूं के बोरे
प्लास्टिक, फटा हुआ कार्टून
सड़े हुए कपडे,
साइकल के पुराने पहिये
ईंख के सिट्ठे से
बनी छत्त के नीचे
बर्तन में डभक लेता भात
तेज़ रफ्तार रेल गाड़ी में
फिल्मी गीत गाते
कमीज़ से छिलके बुहारते
अमर, अकबर, एंथनी
या अधखुली पोटली दबाए
दुबक कर
बाथरूम से चिपकी हुई
नितांत अपरिचित,
परिचय विहीन
गन्दी औरतें
की तरह
जीवन को नंगे पांव
दम के पखेरू उड़ने तक खींचते
थोड़ी सी संभावना सिरजते
और मकड़े के जाल
की तरह बस्तियां बसाते
सारे उपेक्षित लोग । महावृक्ष और मोटर गाड़ी
विशाल आकाश
और तहों तक
पनियाई धरती रची
ज़लवायु और जीवन रचा,
कोने, किनारे और दीवारों के
नक़्शे नक्काशियाँ नहीं रचे
और ना ही
धर्म मज़हब, पूजा इबादत की
नियमावली और शारणि बनाई ,
उनके रूपों और नामों को तय किया
गंगा या कुछ और नाम से
दौडती दिशाओं में
क्लांत श्यामल पांव
निर्भेद पखारती
और देवता बने इनसानों की
चरण रजों का
वहन करती हुई
मर्यादा में
अब तक !
उसी प्रकार
गावं के बदलते मिटटी में
निडर पूर्वजों के समय से
पूर्वजों और चाँद
के साथ संपर्क में
सधा- सा,
अब तक खड़ा है,
यह दैवी महावृक्ष,
जिसके नीचे
पत्थरों और घासों से आते हैं
तितर बितर पद चिन्ह
और चारण शब्दों में घुली
सूखे पत्तियों के चरचराहट
कंडों के टूटने की महीन
आदम आवाज़,
अब तक महावृछ में
जीवन संशलेषण करती हुई
लालटेन की रौशनी में
तरबतर फ़क़ पड़ जाते है
इस गाँव से होकर
गुजरने वाले इन्सानी चेहरे
जिनपर खाखार कर
थूक देता है,
वृद्ध महावृक्ष
अपने निडर पंछियों के घरोंदों के साथ
और तप्त सूरज की रौशनी में
पूर्वजों और देवताओं को
कूच करना होगा
किसी और वृक्ष पर तत्काल
महावृक्ष की महाछाया
जड़ों की गहड़ाई ताड़ते
अवाक् बच्चो की जिज्ञासाओं को
दी जाएगी तत्काल
उलटी कहानी, उल्टा विज्ञान
दुष्ट था यह
दैत्याकार महावृक्ष
रात क्रोधित हुए थे
महाबली भीम और हनुमान
क्योंकि कल यहाँ
बहुमंजिली स्वेत इमारतें होगी
महावृक्ष के स्थान
पर चमचमाती मोटर गाड़ियाँ होगी
इस नए शहर की हवा
मायूस उदास बहेगी
वातानुकूलित अनुशासन से
और अवकाश प्राप्ति के बाद भटकेगी
हरित गंध के लिए बैचन होकर
मैला पड़ चुका चाँद,
दाढ़ी बढाया
अपनी पनीली धरती के
चारों ओर घूमेगा
देखता हुआ
धरती के आंगनों में
स्वचछन्द हरि चुनरियाँ
इस बार भी
निर्भेद छिटकता
अपने तप्त देह से
शीतल चांदनी
हर आंगन के लिए
जैसा पूर्वजों के समय से
अब तक होता आया है
जब काम हो कम
उदास हुए जाते हैं लम्हे
भारी हुआ ज़ाता है मन
बरे चट्टान सा
जिस पर बैठ कर
लगता है
जैसे मैं तुम्हारे
आँखों की कोर से
नुने सपने के तरह
बस फिसलने को हूँ
इन हरी घाटियों में
मौन विलीन हो जाने के लिए
ठंढी हवा के थप थप मे
धक धक करता है मन
फिर कभी कभी
अकेलेपन का रूप बदल कर
नव बधु सज़् कर
पास आ कर
पास ही खड़ी हो जाती हो तुम
जीवन के समक्ष
अटूट प्रेम बन कर
आँसू, कुछ वादे, कुछ हठ लिए
लगता सब झूठ झूठ सब झूठ
एक आवारा
गीत गाता मुस्कुराता
आगे लिकल जाता हूँ मैं……….
कहीं और
प्रेम पाखी की तरह
उचाईयां बदलता
फूलों की वादियों में
आदतन
इंतजार करने के लिए
जहां तुम्हारे
झुमके की धातु से
टकरा जाता है
मेरे छुट्टी के दिन का सूरज
या पूरा का पूरा नीला आकाश
तुम्हारे चेहरे पर छिटक कर
पसर जाने के लिए
और अपने आप में लौट आता हूँ मैं. दो पल
सुबह तुम्हारे खनकते हाथ
से धुले कमीज़,
जिसकी फटी जेबें टांक कर
वयस्ततों में रखती हो चन्द रूपये,
ऑफिस की चाभियाँ
हाथ में थमा देती हो
एक छतरी
मैं, अंतहीन काले मंडराते अनिश्चिता की तरह
या अपने घर के
छप्पर से छिटककर
जाने कहाँ बहता चला जाता हूँ तुम्हारे लिए
दो पल तलाशता सा
घर लौटकर
खड़ी करता हूँ , साईकल
देखता हूँ तुम्हें नूतन पलास के फूल की तरह
परन्तु मेरे इस वर्तमान में
तुम्हें अनवरत फूंकना पड़ता है
हर दिन बुझे बुझे अंगारे से
अर्धगर्म सच को
दो चार रोटियां पकाते,
मेरी पागल कल्पनाओं की तरह
मुझे पागल कवि समझ कर
दो पल रात के फुरसत में
मुस्कुराते हुए ………..
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
bahut sundar|
bahut dhiraj chahiye ek
sath dekh pana mushkil ||
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (11-7-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
हर दिन बुझे बुझे अंगारे से
अर्धगर्म सच को
दो चार रोटियां पकाते,
मेरी पागल कल्पनाओं की तरह
मुझे पागल कवि समझ कर
बेहतरीन!
आँखों में कुछ……..
आँसू, कुछ वादे, कुछ हठ लिए
लगता सब झूठ झूठ सब झूठ
एक आवारा
गीत गाता मुस्कुराता
आगे लिकल जाता हूँ मैं……….
Sabhi rachnayen prabhavit karati hain…
बहुत सुंदर दोनों रचनाये….
सुन्दर रचना पढने को मिली ||
श्रीमान जी का बहुत-बहुत आभार ||
सभी रचनाएं……
…गहरी संवेदना लिए हुए ……ज़मीन से जुडी
ह्रदय तक पहुँचने में सक्षम
sabhi rachnaayen yathart chitran se autprot aaj ka pratibimb dikhati hui lagi.sabhi pravaahukt kuch hat ke bahut achchi lagi.aapko badhaai.aapke blog par charcha manch ke madhyam se pahli bar aai hoon aana sarthak raha.follow kar rahi hoon.taki aapke update se avgat rahoon.
achhi kavitayen…
sheshnath
अनहद पर परिचय के लिए, कवि एवं कथाकार "विमलेश त्रिपाठी" जी और अनहद के प्रबुद्ध पाठक साथियों, एवं मित्रो को प्रोत्साहन और प्रेरणादायक टिप्पणियों के लिए धन्यवाद !