अशोक कुमार पाण्डे |
कितनी आश्वस्ति थी तुम्हारे होने ही से बुद्ध
दुखों की कब कमी रही इस कुशीनारा में
अविराम यात्राओं से थककर जब रुके तुम यहाँ
दुखों से हारकर ही तो नहीं सो गये चिरनिद्रा में?
कितना कम होता है एक जीवन दुख की दूरी नापने के लिये
और बस सरसों के पीलेपन जितनी होती है सुख की उम्र…
आख़िरी नहीं थी दुःख से मुक्ति के लिए तुम्हारी भटकन
हज़ार वर्षों से भटकते रहे हम देश-देशान्तरों में
कोसती रहीं कितनी ही यशोधरायें कलकतिया रेल को
पटरियाँ निहार-निहार गलते रहे हमारे शुद्धोधन
उस विशाल अर्द्धगोलीय मंदिर में लेटे हुए तुम
हमारे इतिहास से वर्तमान तक फैले हुए आक्षितिज
देखते रहे यह सब अपने अर्धमीलित नेत्रों से
और आते-जाते रहे कितने ही मौसम…
गेरुआ काशेय में लिपटे तुम्हारे सुकोमल शिष्य
अबूझ भाषाओं में लिखे तुम्हारे स्तुति गान
कितने दूर थे ये सब हमसे और फिर भी कितने समीप
उस मंदिर के चतुर्दिक फैली हरियाली में शामिल था हमारा रंग
उन भिक्षुओं के पैरों में लिपटी धूल में गंध थी हमारी
घूमते धर्मचक्रों और घंटों में हमारी भी आवाज़ गूंजती थी
और हमारे घरों की मद्धम रौशनियों में घुला हुआ था तुम्हारे अस्तित्व का उजाला
हमारे लिये तो बस तुम्हारा होना ही आश्वस्ति थी एक…
कब सोचा था कि एक दिन तुम्हारे कदमों से चलकर आयेगा दुःख
एक दिन तुम्हारे नाम पर ही नाप लिए जायेंगे ढाई कदमों से हमारे तीनों काल
यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?
तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
फिर…
कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन?
कहो न बुद्ध
हमारा तो दुःख का रिश्ता था तुमसे
जो तुम ही जोड़ गए थे एक दिन
फिर कौन हैं ये लोग जिनसे सुख का रिश्ता है तुम्हारा?
कहाँ चले जाएँ हम दुखों की अपनी रामगठरिया लिए
किसके द्वारे फैलाएं अपनी झोली इस अंधे-बहरे समय में
जब किसी आर्त पुकार में नहीं दरवाजों के उस पार तक की यात्रा की शक्ति
कौन सा ज्ञान दिलाएगा हमें इस वंचना से मुक्ति
आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास
वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार
और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध
कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?
कहो न बुद्ध
क्या करें हम उस अट्टालिका में गूंजते
‘बुद्धं शरणम गच्छामि’ के आह्वान का
अशोक कुमार पाण्डे |
कितनी आश्वस्ति थी तुम्हारे होने ही से बुद्ध
दुखों की कब कमी रही इस कुशीनारा में
अविराम यात्राओं से थककर जब रुके तुम यहाँ
दुखों से हारकर ही तो नहीं सो गये चिरनिद्रा में?
कितना कम होता है एक जीवन दुख की दूरी नापने के लिये
और बस सरसों के पीलेपन जितनी होती है सुख की उम्र…
आख़िरी नहीं थी दुःख से मुक्ति के लिए तुम्हारी भटकन
हज़ार वर्षों से भटकते रहे हम देश-देशान्तरों में
कोसती रहीं कितनी ही यशोधरायें कलकतिया रेल को
पटरियाँ निहार-निहार गलते रहे हमारे शुद्धोधन
उस विशाल अर्द्धगोलीय मंदिर में लेटे हुए तुम
हमारे इतिहास से वर्तमान तक फैले हुए आक्षितिज
देखते रहे यह सब अपने अर्धमीलित नेत्रों से
और आते-जाते रहे कितने ही मौसम…
गेरुआ काशेय में लिपटे तुम्हारे सुकोमल शिष्य
अबूझ भाषाओं में लिखे तुम्हारे स्तुति गान
कितने दूर थे ये सब हमसे और फिर भी कितने समीप
उस मंदिर के चतुर्दिक फैली हरियाली में शामिल था हमारा रंग
उन भिक्षुओं के पैरों में लिपटी धूल में गंध थी हमारी
घूमते धर्मचक्रों और घंटों में हमारी भी आवाज़ गूंजती थी
और हमारे घरों की मद्धम रौशनियों में घुला हुआ था तुम्हारे अस्तित्व का उजाला
हमारे लिये तो बस तुम्हारा होना ही आश्वस्ति थी एक…
कब सोचा था कि एक दिन तुम्हारे कदमों से चलकर आयेगा दुःख
एक दिन तुम्हारे नाम पर ही नाप लिए जायेंगे ढाई कदमों से हमारे तीनों काल
यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?
तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
फिर…
कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन?
कहो न बुद्ध
हमारा तो दुःख का रिश्ता था तुमसे
जो तुम ही जोड़ गए थे एक दिन
फिर कौन हैं ये लोग जिनसे सुख का रिश्ता है तुम्हारा?
कहाँ चले जाएँ हम दुखों की अपनी रामगठरिया लिए
किसके द्वारे फैलाएं अपनी झोली इस अंधे-बहरे समय में
जब किसी आर्त पुकार में नहीं दरवाजों के उस पार तक की यात्रा की शक्ति
कौन सा ज्ञान दिलाएगा हमें इस वंचना से मुक्ति
आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास
वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार
और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध
कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?
कहो न बुद्ध
क्या करें हम उस अट्टालिका में गूंजते
‘बुद्धं शरणम गच्छामि’ के आह्वान का
कहो न बुद्ध
हमारा तो दुःख का रिश्ता था तुमसे
जो तुम ही जोड़ गए थे एक दिन
फिर कौन हैं ये लोग जिनसे सुख का रिश्ता है तुम्हारा?….
सचमुच, बुद्ध से यह अद्भुत और अभूतपूर्व संवाद संभव किया है भाई अशोक कुमार पांडेय ने। अपने समय की ओर से खड़ा होकर… वकील या फरियादी के रूप में या अंतत: कालकवि बनकर। यह कविता बताती है कि सतर्क प्रयोग करके कैसे नितांत मिथकीय संदर्भों को भी ज्वलंत, जनपक्षीय और समकालीन आयाम दिया जा सकता है। कवि को बधाई… प्रस्तुति के लिए 'अनहद' का आभार…
कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?
एक बेहतरीन कविता…
sashakt rachna .. Ashok ki kavitaon ki sampreshniyata dekhte banati hai .. ye seedhe asar karti hain.
हमारे लिये तो बस तुम्हारा होना ही आश्वस्ति थी एक…
इस के बाद कविता करवट बदलती है ..और लगातार पढ़ने वाले को झकझोरती है ! और कविता ख़तम होने के बाद आराम कक्ष में चली जाती है और पढ़ने वाला ….. जागता रहता है.
तुम देखते रहे यह सब अपने अर्धमीलित नेत्रों से
और आते-जाते रहे कितने ही मौसम… कविता कहाँ से शुरु होकर कहाँ कहाँ तक जाती है.वाह.
कविता बेहद अच्छी है। कवि और प्रस्तुतकर्ता दोनों को आभार!प्रथम दो पद थोड़े कमज़ोर लगे पर बाद में कविता बेहद अच्छी बनती गई।बुद्ध के साथ संवाद के बहाने उन संगतराशों के दिलों पर छेनियाँ चलाई गई हैं, जो मिथकीय संवेदनाओं को पत्थरों पर तराश कर वोटों के बाज़ार मॆं मण्डियाँ लगाने की फ़िराक़ में लगे हैं!हाथी,बाबा और अब बुद्ध!इनके पीछे की माया को भला कौन नही जानता!
कितना कम होता है
एक जीवन
दुख की दूरी नापने के लिये
और सरसों के पीलेपन जितनी होती है सुख की उम्र…
ताजा हमेशा ताजा होता है, वह ताजी कभी नहीं होता। कविता तो कमाल की है…
बेहतरीन रचना है अशोक जी! अनहद का आभार!!
तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
फिर…
कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन? …….. what an expression. Its really really a gr8 work.
’कस्मै देवाय हविषा विधेम’ की तरह बड़े और ज़ुरूरी सवाल करने वाली महत्वपूर्ण कविता.
"कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?"
यही तो वे सवाल हैं जिन्हें हम पूछ रहे हैं कविता में और जिनके हल हमें ढूंढने हैं जीवन में . अच्छी कविता . सच्ची कविता .
कविता तो कमाल की है| धन्यवाद|
अशोक जी …..दिन से कशमकश में उलझ गया …इन शब्द्वली के मायने बहुत कुछ निकलते हुए इंसानी जीवन के ….इस जीवन यात्रा में अनंत यूद्ध छिड़ा हुआ है द्वन्द का इस जीवन यात्रा में जीवन क्या है उस अन सुलझे सवालों को घेरती हुई इंसानी जिज्ञासा न खत्म होने वाली आप की शाब्दिक अभिव्यक्ति है …आज कितना जीवन को अ संतुलित करता हुआ कहा गया है शब्दों में ……..वाह ………इन्सान की निगाह आसमन में एक आशा पूर्ण तारे की और पर कही उसको हजारो निराश वादी तारों का झुण्ड दिख रहा है …कहाँ किस्से पूछे अपनी व्यथा ???….और इसी पक्ति ने मुझे झकझोरा है आपकी
"""""कहाँ चले जाएँ हम दुखों की अपनी रामगठरिया लिए…………..जब किसी आर्त पुकार में नहीं दरवाजों के उस पार तक की यात्रा की शक्ति
कौन सा ज्ञान दिलाएगा हमें इस वंचना से मुक्ति……आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास…..वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार-…..और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध"""" हे सब कुछ सहज सह्ब्दों का बोलबाला पर मनो एक एक शब्द सामने वोशल पहाड़ सा प्रतीत हुआ आप की नीर उत्तर करती कविता मुझे कही धकेल गयी …बहुत सुंदरा अन्तरग मन से निकले शब्द …..पर आप की किताब आने के बाद पहली कविता में सही में मुझे निउत्तर किया या सोचने पर विवश किया है …बहुत बधाई अशोक भाई जी
. Nirmal Paneri
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स्वर्णिम इतिहास रचने के आग्रही सामन्तीय सोच की इससे बड़ी उपहास और क्या होगी?यह कविता नहीं आंदोलन की नई आगाज है,उन चार सौ गावों से उजड़े हुए लोगों का क्रंदन है,अहिंसा के पुजारी पर रक्त-मांस की भेट चढ़ाने का आरोप है और तो और यह आशिक भाई के मुख से निकली शासकीय विलासिता पर विस्मित बुद्ध की ही अंतर्नाद है|
शैली थोड़ी गद्यात्मक होने पर भी मन को छू लेने में सफल है|समसामायिक विषय का चुनाव सराहनीय है| बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद भी!
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sundar kavita hai ashok, beshak tumhare abhi tak ke swar se thoda bhinn lekin jyada asardar aur jimmedari se likhi bhi.
आप सबका और भाई विमलेश का बहुत-बहुत आभार.
itihas ke panno se uthkar vartmaan ke 400 ganvo ke logo ke krandan ko kavita is tarah prastut karti hai ki ek baar ko budh bhi apni samadhi se uth khade honge. us ahinsa ke premi ke naam par ki jaa rahi hinsa ki yah vidamabana paathak ke man ko jhakjhor deti hai.आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास
वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार
और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध ek behad shaandar kavita. abhaar.
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यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?
बेहद सशक्त लिखा है ! कुछ लोगों के लिए यह उत्तर है और कुछ के लिए प्रश्न ! एक विचार को अग्रसारित करती है यह कविता !
एक सशक्त रचना… परत दर परत महीनता से दुखो का खुलासा करती, बाज़ारवाद बुध के नाम को केश करने में जुटा है कवि की फ़रियाद और आरोप अन्तर्मन कचोटते हैं मुक्ति की राह दिखाने वाले को नीव में दफना कर ब्रास की प्लेट पर चमकता उसका नाम…
कब सोचा था कि एक दिन तुम्हारे कदमों से चलकर आयेगा दुःख
एक दिन तुम्हारे नाम पर ही नाप लिए जायेंगे ढाई कदमों से हमारे तीनों काल
यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?
आसपास घटती रहती हैं, उल्लेख की दृष्टि से अनिवार्य घटनाएँ, हिन्दी का साहित्य-सर्जक ‘खबर’ को साहित्यिक रूप में रखने में तौहीन सा समझता है, तब तो और जब खबरिया चैनलों ने खबर का मतलब बिगाड़ के रख दिया हो, अब तो हिन्दी में कोई नागार्गुन भी नहीं जो इसे चुनौती समझ निभा डाले, खबर को संवेदना की सिरजन दे..अशोक जी की इस कविता को पढ़कर थोड़ा तोष अवश्य मिला!
साहित्य को समाज की चिंताओं से जोड़कर अशोक जी ने कमाल की सार्थकता सिद्ध की है.दर-असल साहित्य का उद्देश्य महज़ 'स्वान्तः सुखाय' नहीं होना चाहिए !निश्चित ही किसी संवेदनशील सरकार को यह जगाने ,झिंझोड़ने के लिए पर्याप्त है,पर ऐसी आशा करना आज के समय में व्यर्थ है.
रचनाकार और प्रस्तुतकर्ता दोनों बधाई के पात्र हैं !
बहुत ही अच्छी कविता. फ़ेसबुक पर इसकी कुछ पंक्तियां आपने शेयर की थीं. औरों की तकलीफ़ को अपनी वाणी देना कभी आसान नहीं होता.
बुद्ध के साथ हमेशा यही हुआ है…मूर्तिपूजा के विरोधी बुद्ध की मूर्तियां सबसे अधिक बनीं और अब बाज़ार में बुद्ध फ़ैशन में हैं…कुशीनगर में बुद्ध की आड में बाज़ार अपनी पूरी वीभत्सता के साथ खेल कर रहा है.
बेहद जरूरी कविता
good poem..
बामियान और कुशीनगर का प्रयोग राकेश रंजन अपनी कविता में इससे पहले कर चुके हैं…यहां यह संदर्भ अत्यंत लचर रूप में सामने आता है.
अद्भुत कविता….हिन्दी में प्रतिरोध के बचे-खुचे कुछ स्वरों में अशोक का स्वर सबसे तीखा और स्पष्ट है. यह कविता उसकी गवाह है…
आज बहुत दिनों बाद इसे अचानक देखा.
यह एनानिमस का खंडन-मंडन मजेदार है..इन बेचेहरा मित्रों का आभार. राकेश भाई मेरे पसंदीदा कवियों में से हैं…काश वह कविता उपलब्ध करा दी जाती!
वैसे एक कम परिचित युवा कवि पवन मेराज ने भी कुशीनगर के इस सन्दर्भ को लेकर लंबी कविता लिखी है जो वसुधा में छपी थी.
तुम मुस्करा रहे हो तथागत ?
तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
फिर…
कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन?
…
ये प्रश्न है या आवाहन हैं …जो भी हैं, हैं बहुत गहरे| अशोक भाई हैं ही ऐसे!!