समय का बदलना अब फिल्मों के रिलिज होने या एक नए गीत के बजते-बजते पुराने हो जाने से तय होने लगा था। शहर में मोबाईल कंपनियों की भीड़ थी, हर तीसरे दिन नए मॉडल के सेट लॉंच होते थे, टेलिविज़न के तमाम चैनलों पर ‘बात करने से ही बात बनती है’ जैसा कहते हुए एक इडियट अदा के साथ मुस्कुराता था, जैसे कह रहा हो मुझे इडियट समझनेवालों तुम सबसे बड़े इडियट हो। शहर की तंग गलियों से अपने कान के पास एक मोबाईल सेट चिपकाए एक लड़की हंसते हुए अपने होंठों को चार तरह के आकार देती थी, और पाँचवी बार अपने बालों पर हाथ फेर कर धीरे-से फुसफुसाती थी- स्टुपिड, चुप रहो।
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इस शहर में जब सब लोग भाग रहे थे और किसी के पास भी उसकी बात सुनने का समय नहीं रह गया था, वह अंदर तक बेचारगी से भरा हुआ था। आजकल उसे अपनी माँ की बहुत याद आती थी। वह सचमुच शिद्दत से चाहता था कि उसके पास एक घर हो और वह मां को अपने पास बुला ले। इसलिए नहीं कि माँ उसके बात को सुनती थी, या उसके जेहन में पीड़ा के सैकड़ों दंश मां के आने से खत्म हो जाते। बस उसे मा का होना अच्छा लगता। दुनिया में जब किसी के उपर भी विश्वास करने का समय या अवकाश न रह जाय तो माँ के पास एक जगह बची होती है हर एक बेटे के लिए। वह ऐसे ही सोचता था। इसीलिए हर तीसरे महीने वह भागकर इस मेट्रोपॉलिटन शहर से 500 किलो मिटर दूर अपने गाँव की ओर चला जाता था। लेकिन यह भागने का समय भी उसे कितनी मुश्किल से मिल पाता था। और कभी-कभी बहुत मशक्कत के बाद भी जब वह भाग नहीं पाता था तो वह सोचता था कि इस बार वह माँ को एक मोबाइल खरीदकर जरूर दे देगा। माँ के लाख मना करने पर भी। वह एक बच्चे की तरह उसके सारे फंक्शन समझा देगा और फिर जब भाग नहीं पाएगा इस शहर से तो माँ से नोबाईल पर बात कर लेगा। लेकिन बहुत चाहने के बाद भी वह ऐसा नहीं कर पाया था।
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ऐसा सोचते हुए उसने एकबार नोकिया 310 के अपने सेट को गौर से देखा। उसकी चमक तो अलबत्ता गायब हो ही चुकी थी, की-पैड के अक्षर भी घीस कर लुप्त हो चुके थे। फिर भी यह सेट उसे प्रिय था। कई बार बात करते-करते में एक चिक-चिक आवाज के साथ वह बंद हो जाता था, ऐसा उस समय होने की ज्यादा संभावना होती थी जब वह वर्तिका से बात कर रहा होता था। वह चाहता था कि हो रही बात के बीच में वह उससे कह दे कि देखो मेरा मौबाईल सिग्नल दे रहा है, और यह बंद हो जाएगा। लेकिन यह बात उसके हलक तक आते-आते रूक जाती थी और इससे पहले कि वह कहता कि वर्तिका तुम मुझे अच्छी लगती हो,…मैं तुम्हे..प्या…। और यह बात उस घीस चुके नोकिया 310 को पसन्द नहीं आती थी और वह एक हिचकी लेकर शांत हो जाता था। वह एक बार उस मशीन को उलट-पुलट कर देखता था, एक बार फिर से स्वीच-ऑन करने की कोशिश करता था। और वह था कि एक कमजोर सी हिचकी लेकर फिर नि:शब्द।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
कहानी के शुरुआती ड्राफ्ट पढ़कर कहता हूँ कि अगर संभव हो सके तो पुरी कहानी ही ला दीजिए….माँ के लिए एक मासूम चाहत को लेकर कथा आगे बढ़ रही है…. जो रोचक के साथ संवेदित भी कर रही है…..
बिमलेश भाई ,
बेहद खुबसुरत तरीके से कहानी की शुरुवात आपने की है , ललक , चाहत बढ गई है , और अब तो बस " जिया बेकरार " है पढने के लिये ।