दिल्ली में पिता
पिता से जब भी मैं कहता कि
बाबूजी , कुछ दिन आप मेरे पास आ कर
दिल्ली में रहिए
तो वे हँस कर टाल जाते
कभी-कभी कहते —
बेटा , मैं यहीं ठीक हूँ
लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था
आख़िर जब नहीं रहीं माँ तो
‘ गाँव में अकेले कैसे रहेंगे आप ? ‘
यह कह कर
ज़िद करके ले आया मैं
दिल्ली में पिता को
किंतु यहाँ आ कर
ऐसे मुरझाने लगे पिता
जैसे कोई बड़ा सूरजमुखी धीरे-धीरे
खोने लगता है अपनी आभा
गाँव में पिता के घर के आँगन में
पेड़ ही पेड़ थे
चारों ओर हरियाली थी
किंतु यहाँ दिल्ली में
बाल्कनी में
केवल कुछ गमले थे
बहुमंज़िली इमारतों वाले
इस कंक्रीट-जंगल में तो
खिड़कियों में भी ग्रिल और जाली थी
‘ बेटा , तुम और बहू
सुबह चले जाते हो दफ़्तर
लौटते हो साँझ ढले
पूरा दिन इस बंद मकान में
क्या करूँ मैं ? ‘
दो दिन बाद उदास-से बोले पिता
‘ आप दिन में कहीं
घूम क्यों नहीं आते ? ‘
— राह सुझाई मैंने
किंतु अगली शाम
दफ़्तर से लौटने पर मैंने पाया कि
दर्द से कराह रहे थे पिता —
‘ क्या करूँ , लाख कहने पर भी
बस-ड्राइवर ने स्टॉप पर
बस पूरी तरह नहीं रोकी ।
हार कर चलती बस से उतरना पड़ा
और गिर गया मैं ‘ —
दर्द से छटपटाते हुए बोले पिता
कुछ दिनों बाद जब ठीक हो गए वे तो
पूछा उन्होंने — ‘ बेटा , पड़ोसियों से
बोलचाल नहीं है क्या तुम्हारी ? ‘
मैंने उन्हें बताया कि बाबूजी ,
यह आपका गाँव नहीं है
महानगर है , महानगर
यहाँ सब लोग अपने काम से काम रखते हैं । बस !
यह सुन कर उनकी आँखें
पूरी तरह बुझ गईं
उनकी स्याह आँखें
जो कुछ तलाशती रहती थीं
वे चीज़ें यहाँ कहीं नहीं मिलती थीं
अब वे बहुत चुप-चुप
रहने लगे थे
कुछ दिन बाद एक इतवार
मैंने पिता से पूछा —
‘ बाबूजी , दशहरे का मेला देखने चलिएगा ?
दिल बहल जाएगा । ‘
वे मुझे कुछ पल एकटक देखते रहे
उनकी आँखों में संशय और भय के सर्प थे
किंतु मैंने उन्हें किसी तरह मना लिया
मैदान में बेइंतहा भीड़ थी
पिता घबराए हुए लगे
उन्होंने मेरा हाथ कस कर पकड़ रखा था
अचानक लोगों के सैलाब ने
एक ज़ोरदार धक्का दिया
मेरे हाथों से उनका हाथ छूट गया
लोगों का रेला मुझे आगे लिए जा रहा था
पिता मुझसे दूर हुए जा रहे थे
मुझे लगा जैसे ज़माने की रफ़्तार में
पीछे छूटते जा रहे हैं पिता
मैं पलटा किंतु तब तक भीड़ में
आँखों से ओझल हो गए पिता
महानगर दिल्ली में
खो गए पिता …
बच्ची
हम एजेंसी से
एक बच्ची
घर ले कर आए हैं
वह सीधी-सादी सहमी-सी
आदिवासी बच्ची है
वह सुबह से रात तक
जो हम कहते हैं
चुपचाप करती है
वह हमारे बच्चे की
देखभाल करती है
जब उसका मन
खुद दूध पीने का होता है
वह हमारे बच्चे को
दूध पिला रही होती है
जब हम सब
खा चुके होते हैं
उसके बाद
वह सबसे अंत में
बासी बचा-खुचा
खा रही होती है
उसके गाँव में
फ़्रिज या टी.वी. नहीं है
वह पहले कभी
मोटर कार में नहीं बैठी
उसने पहले कभी
गैस का चूल्हा
नहीं जलाया
जब उसे
हमारी कोई बात
समझ में नहीं आती
तो हम उसे
‘ मोरोन ‘ और
‘ डम्बो ‘ कहते हैं
उसका ‘ आइ. क्यू. ‘
शून्य मानते हैं
हमारा बच्चा भी
अकसर उसे
डाँट देता है
हम उसकी बोली
उसके रहन-सहन
उसके तौर-तरीक़ों का
मज़ाक उड़ाते हैं
दूर कहीं
उसके गाँव में
उसके माँ-बाप
तपेदिक से मर गए थे
उसका मुँहबोला ‘ भाई ‘
उसे घुमाने के बहाने
दिल्ली लाया था
उसके महीने भर की कमाई
एजेंसी ले जाती है
आप यह जान कर
क्या कीजिएगा कि वह
झारखंड की है
बंगाल की
आसाम की
या छत्तीसगढ़ की
क्या इतना काफ़ी नहीं है कि
हम एजेंसी से
एक बच्ची
घर ले कर आए हैं
वह हमसे
टॉफ़ी या ग़ुब्बारे
नहीं माँगती है
वह हमारे बच्चे की तरह
स्कूल नहीं जाती है
वह सीधी-सादी सहमी-सी
आदिवासी बच्ची
सुबह से रात तक
चुपचाप हमारा सारा काम
करती है
और कभी-कभी
रात में सोते समय
न जाने किसे याद करके
रो लेती है
बौड़म दास
( बौड़म दास का असली नाम कोई नहीं जानता )
किसी स्कूल के पाठ्य-पुस्तक में
नहीं पढ़ाई जाती है जीवनी बौड़म दास की
किसी नगर के चौराहे पर
नहीं लगाई गई है प्रतिमा बौड़म दास की
वे ‘ शाखा ‘ में नहीं जाते थे
इसलिए प्रधानमंत्री उन्हें नहीं जानते हैं
वे ‘ वाद ‘ के खूँटे से नहीं बँधे थे
इसलिए किसी भी पंथ के समर्थक
उन्हें नहीं जानते हैं
उन्होंने मुंबइया फ़िल्मों में
कभी कोई भूमिका नहीं की
जिम में जा कर ‘ सिक्स-पैक ‘ नहीं बनाया
न वे औरकुट या फ़ेसबुक पर थे
न व्हाट्स-ऐप या ट्विटर पर
यहाँ तक कि ढूँढ़ने पर भी उनका
कोई ई-मेल अकाउंट नहीं मिलता
इसलिए आज का युवा वर्ग भी
उन्हें नहीं जानता है
किंतु जो उन्हें जानते थे
वे बताते हैं कि बौड़म दास ने
राशन-कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए
कभी रिश्वत नहीं दी
इसलिए न उनके पास लाइसेंस था न राशन कार्ड
बस या रेलगाड़ी में चढने के लिए
उन्होंने कभी धक्का-मुक्की नहीं की
वे हमेशा क़तार में खड़े रहते थे
इसलिए सबसे पीछे छूट जाते थे
उन्होंने कभी किसी का हक़ नहीं मारा
कभी किसी की जड़ नहीं काटी
कभी किसी की चमचागिरी नहीं की
कभी किसी को ‘ गिफ़्ट्स ‘ नहीं दिए
उनका न कोई ‘ जुगाड़ ‘ था न ‘ जैक ‘
इसलिए वे कभी तरक़्क़ी नहीं कर सके
नौकरी में आजीवन उसी पोस्ट पर
सड़ते रहे बौड़म दास
उनके किसी राजनीतिक दल से
संबंध नहीं थे
उनकी किसी माफ़िया डॉन से
वाकफ़ियत नहीं थी
चूँकि वे अनाथालय में पले-बढ़े थे
उन्हें न अपना धर्म पता था
न अपनी जाति
प्रगति की राह में
ये गम्भीर ख़ामियाँ थीं
जीवन में उन्होंने कभी
मुखौटा नहीं लगाया
इसलिए इस समाज में
आज के युग में
सदा ‘ मिसफ़िट ‘ बने रहे
बौड़म दास
उनके पास एक चश्मा था
वृद्धावस्था में उन्होंने
एक लाठी भी ले ली थी
वे बकरी के दूध को
स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम बताते थे
और अकसर इलाक़े में
इधर-उधर पड़ा कूड़ा-कचरा बीन कर
कूड़ेदान में फेंकते हुए देखे जाते थे
इसलिए इक्कीसवीं सदी में
जानने वालों के लिए
उपहास का पात्र बन गए थे
बौड़म दास
उनके जन्म-तिथि की तरह ही
उनकी मृत्यु की तिथि भी
किसी को याद नहीं है
दरअसल इस युग के
अस्तित्व के राडार पर
एक ‘ ब्लिप ‘ भी नहीं थे
बौड़म दास
मोहल्ले वालों के अनुसार
बुढ़ापे में अकसर राजघाट पर
गाँधी जी की समाधि पर जा कर
घंटों रोया करते थे
बौड़म दास
क्या आप बता सकते हैं कि
ऐसा क्यों करते थे बौड़म दास ?
इंस्पेक्टर मातादीन के राज में
( हरिशंकर परसाई को समर्पित )
जिस दसवें व्यक्ति को फाँसी हुई
वह निर्दोष था
उसका नाम उस नौवें व्यक्ति से मिलता था
जिस पर मुक़दमा चला था
निर्दोष तो वह नौवाँ व्यक्ति भी था
जिसे आठवें की शिनाख़्त पर
पकड़ा गया था
उसे सातवें ने फँसाया था
जो ख़ुद छठे की गवाही की वजह से
मुसीबत में आया था
छठा भी क्या करता
उसके ऊपर उस पाँचवें का दबाव था
जो ख़ुद चौथे का मित्र था
चौथा भी निर्दोष था
तीसरा उसका रिश्तेदार था
जिसकी बात वह टाल नहीं पाया था
दूसरा तीसरे का बॉस था
लिहाज़ा वह भी उसे ‘ना‘ नहीं कह सका था
निर्दोष तो दूसरा भी था
वह उस हत्या का चश्मदीद गवाह था
किंतु उसे पहले ने धमकाया था
पहला व्यक्ति ही असल हत्यारा था
किंतु पहले के विरुद्ध
न कोई गवाह था , न सबूत
इसलिए वह कांड करने के बाद भी
मदमस्त साँड़-सा
खुला घूम रहा था
स्वतंत्र भारत में …
कैसा समय है यह
कैसा समय है यह
जब हल कोई चला रहा है
अन्न और खेत किसी का है
ईंट-गारा कोई ढो रहा है
इमारत किसी की है
काम कोई कर रहा है
नाम किसी का है
कैसा समय है यह
जब भेड़ियों ने हथिया ली हैं
सारी मशालें
और हम
निहत्थे खड़े हैं
कैसा समय है यह
जब भरी दुपहरी में अँधेरा है
जब भीतर भरा है
एक अकुलाया शोर
जब अयोध्या से बामियान तक
ईराक़ से अफ़ग़ानिस्तान तक
बौने लोग डाल रहे हैं
लम्बी परछाइयाँ
कबीर
एक दिन आप
घर से बाहर निकलेंगे
और सड़क किनारे
फुटपाथ पर
चिथडों में लिपटा
बैठा होगा कबीर
‘ भाईजान ,
आप इस युग में
कैसे ? ‘ —
यदि आप उसे
पहचान कर
पूछेंगे उससे
तो वह शायद
मध्य-काल में
पाई जाने वाली
आज-कल खो गई
उजली हँसी हँसेगा
उसके हाथों में
पड़ा होगा
किसी फटे हुए
अख़बार का टुकड़ा
जिस में बची हुई होगी
एक बासी रोटी
जिसे निगलने के बाद
वह अख़बार के
उसी टुकड़े पर छपी
दंगे-फ़सादों की
दर्दनाक ख़बरें पढ़ेगा
और बिलख-बिलख कर
रो देगा
किसान का हल
उसे देखकर
मेरा दिल पसीज जाता है
कई घंटे
मिट्टी और कंकड़-पत्थर से
जूझने के बाद
इस समय वह हाँफता हुआ
ज़मीन पर वैसे ही पस्त पड़ा है
जैसे दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद
शाम को निढाल हो कर पसर जाते हैं
कामगार और मज़दूर
मैं उसे
प्यार से देखता हूँ
और अचानक वह निस्तेज लोहा
मुझे लगने लगता है
किसी खिले हुए सुंदर फूल-सा
मुलायम और मासूम
उसके भीतर से झाँकने लगती हैं
पके हुए फ़सलों की बालियाँ
और उसके प्रति मेरा स्नेह
और भी बढ़ जाता है
मेहनत की धूल-मिट्टी से सनी हुई
उसकी धारदार देह
मुझे जीवन देती है
लेकिन उसकी पीड़ा
मुझे दोफाड़ कर देती है
उसे देखकर ही मैंने जाना
कभी-कभी ऐसा भी होता है
लोहा भी रोता है
कामगार औरतें
कामगार औरतों के
स्तनों में
पर्याप्त दूध नहीं उतरता
मुरझाए फूल-से
मिट्टी में लोटते रहते हैं
उनके नंगे बच्चे
उनके पूनम का चाँद
झुलसी रोटी-सा होता है
उनकी दिशाओं में
भरा होता है
एक मूक हाहाकार
उनके सारे भगवान
पत्थर हो गए होते हैं
ख़ामोश दीये-सा जलता है
उनका प्रवासी तन-मन
फ़्लाइ-ओवरों से लेकर
गगनचुम्बी इमारतों तक के
बनने में लगा होता है
उनकी मेहनत का
हरा अंकुर
उपले-सा दमकती हैं वे
स्वयं विस्थापित होकर
हालाँकि टी. वी. चैनलों पर
सीधा प्रसारण होता है
केवल विश्व-सुंदरियों की
कैट-वाक का
पर उस से भी
कहीं ज़्यादा सुंदर होती है
कामगार औरतों की
थकी चाल
मासूमियत
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क आँखें बो दीं
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी निजता
भंग हो गई
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क हाथ बो दिए
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर के सारे सामान
चोरी होने लगे
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क जीभ बो दी
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी शांति
खो गई
हार कर मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
एक शिशु मन बो दिया
अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी
खिला हुआ है
माँ
इस धरती पर
अपने शहर में मैं
एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में
एक छोटे-से शब्द-सा आया था
वह उपन्यास
एक ऊँचा पहाड़ था
मैं जिसकी तलहटी में बसा
एक छोटा-सा गाँव था
वह उपन्यास
एक लम्बी नदी था
मैं जिसके बीच में स्थित
एक सिमटा हुआ द्वीप था
वह उपन्यास
पूजा के समय बजता हुआ
एक ओजस्वी शंख था
मैं जिसकी गूँजती ध्वनि-तरंग का
हज़ारवाँ हिस्सा था
वह उपन्यास
एक रोशन सितारा था
मैं जिसकी कक्षा में घूमता हुआ
एक नन्हा-सा ग्रह था
हालाँकि वह उपन्यास
विधाता की लेखनी से उपजी
एक सशक्त रचना थी
आलोचकों ने उसे
कभी नहीं सराहा
जीवन के इतिहास में
उसका उल्लेख तक नहीं हुआ
आख़िर क्या वजह है कि
हम और आप
जिन उपन्यासों के
शब्द बन कर
इस धरती पर आए
उन उपन्यासों को
कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला ?
सूरज , चमको न
सूरज चमको न
अंधकार भरे दिलों में
चमको न सूरज
उदासी भरे बिलों में
सूरज चमको न
डबडबाई आँखों पर
चमको न सूरज
गीली पाँखों पर
सूरज चमको न
बीमार शहर पर
चमको न सूरज
आर्द्र पहर पर
सूरज चमको न
सीरिया की अंतहीन रात पर
चमको न सूरज
|
सुशांत सुप्रिय |
परिचय
————
नाम : सुशांत सुप्रिय
जन्म : 28 मार्च , 1968
शिक्षा : एम.ए.(अंग्रेज़ी ), एम . ए. ( भाषा विज्ञान ) : अमृतसर ( पंजाब ) , व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ :
—————–
# हत्यारे ( 2010 ) , हे राम ( 2013 ) , दलदल ( 2015 ) , ग़ौरतलब कहानियाँ
( 2017 ) , पिता के नाम ( 2017 , मैं कैसे हँसूँ ( 2019 ) : छह कथा-संग्रह ।
# इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं ( 2015 ) , अयोध्या से गुजरात तक ( 2017 ) , कुछ समुदाय हुआ करते हैं ( 2019 ) : तीन काव्य-संग्रह ।
# विश्व की चर्चित कहानियाँ ( 2017 ) , विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ( 2017 ) , विश्व की कालजयी कहानियाँ ( 2017) , विश्व की अप्रतिम कहानियाँ ( 2019 ) : चार अनूदित कथा-संग्रह ।
सम्मान :
——–
भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा रचनाएँ पुरस्कृत । कमलेश्वर-स्मृति ( कथाबिंब ) कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार । स्टोरी-मिरर.कॉम कथा-प्रतियोगिता , 2016 में कहानी पुरस्कृत । साहित्य में अवदान के लिए साहित्य-सभा , कैथल ( हरियाणा ) द्वारा 2017में सम्मानित ।
अन्य प्राप्तियाँ :
————–
# कहानी ‘ दुमदार जी की दुम ‘ पर प्रतिष्ठित हिंदी व मराठी फ़िल्म निर्देशक विनय धूमले जी हिंदी फ़िल्म बना रहे हैं ।
# सितम्बर-अंत , 2018 में इंदौर में हुए एकल नाट्य प्रतियोगिता में सूत्रधार संस्था द्वारा मोहन जोशी नाम से मंचित की गई मेरी कहानी ‘ हे राम ‘ को प्रथम पुरस्कार मिला । नाट्य-प्रेमियों की माँग पर इसका कई बार मंचन किया गया ।
# पौंडिचेरी विश्वविद्यालय के Department of Performing Arts ने मेरी कहानी ‘ एक दिन अचानक ‘ के नाट्य-रूपांतर का 4अगस्त व 7अगस्त , 2018को मंचन किया ।
# पीपल्स थिएटर ग्रुप के श्री निलय रॉय जी ने हिंदी अकादमी , दिल्ली के सौजन्य से मेरी कहानी “ खोया हुआ आदमी “ का मंचन 7 फ़रवरी , 2019 को दिल्ली के प्यारे लाल भवन में किया ।
# कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , नेपाली , पंजाबी, सिंधी , उड़िया, मराठी, असमिया , कन्नड़ , तेलुगु व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित । कहानी ” हे राम ! ” केरल के कलडी वि.वि. ( कोच्चि ) के एम.ए. ( गाँधी अध्ययन ) पाठ्य-क्रम में शामिल । कहानी ” खोया हुआ आदमी ” महाराष्ट्र स्कूल शिक्षा बोर्ड की कक्षा दस के पाठ्य-क्रम में शामिल । कहानी ” एक हिला हुआ आदमी ” महाराष्ट्र स्कूल शिक्षा बोर्ड की ही कक्षा नौ के पाठ्यक्रम में शामिल । कहानी ” पिता के नाम ” मध्यप्रदेश व हरियाणा के स्कूलों के कक्षा सात के पाठ्यक्रम में शामिल । कविताएँ पुणे वि. वि. के बी. ए.( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल । कहानियों पर आगरा वि. वि. , कुरुक्षेत्र वि. वि. , पटियाला वि. वि. , व गुरु नानक देव वि. वि. , अमृतसर आदि के हिंदी विभागों में शोधार्थियों द्वारा शोध-कार्य ।
# आकाशवाणी , दिल्ली से कई बार कविता व कहानी-पाठ प्रसारित ।
# लोक सभा टी.वी. के ” साहित्य संसार ” कार्यक्रम में जीवन व लेखन सम्बन्धी इंटरव्यू प्रसारित ।
# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह ‘ इन गाँधीज़ कंट्री ‘ प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ‘ द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ‘ प्रकाशनाधीन ।
# लेखन के अतिरिक्त स्केचिंग , गायन , शतरंज व टेबल-टेनिस का शौक़ ।
# संप्रति : लोक सभा सचिवालय , नई दिल्ली में अधिकारी ।
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
मोबाइल : 8512070086
पता: A-5001,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद – 201014
( उ. प्र. )
———-०———-